ईश्वर एक है
स्वामी विवेकानंद
गतांक से आगे…
भारत में इस लक्ष्य के संबंध में ये विचार हैं कि स्वर्ग है, नरक है, पृथ्वियां हैं, पर वे स्थायी नहीं हैं। यदि मैं नरक को भेजा हूं, तो वह स्थायी नहीं है, मैं चाहे कहीं भी हूं, वहीं संघर्ष निरंतर चलता रहता है। समस्या यह है कि इस सारे संघर्ष के परे कैसे पहुंचा जाए? यदि मैं स्वर्ग जाता हूं, तो कदाचित वहां कुछ चैन मिले। यदि मैं अपने दुष्कृत्यों के लिए दंड पाता हूं, तो वह भी सदा नहीं रह सकता। भारतीय आदर्श स्वर्ग जाना नहीं है। इस पृथ्वी से बाहर निकलो, नरक से बाहर निकलो, स्वर्ग से बाहर निकलो। लक्ष्य क्या है? वह मुक्ति है। तुम सबको मुक्त होना चाहिए। आत्मा का तेज आच्छादित है। इसे फिर अनाच्छादित करना है। आत्मा का अस्तित्व है। वह सब जगत में है। वह कहां जाएगी? वह कहां जा सकती है। वह वहीं जा सकती है, जहां वह न हो। यदि तुम यह समझ लो कि वह सदा विद्यमान है, तो उसके बाद सदा के लिए पूर्ण सुख होगा और जन्म तथा मृत्यु नहीं और रोग नहीं, शरीर नहीं। शरीर स्वयं सबसे बड़ा रोग है। आत्मा, आत्मा की भांति स्थित होगी। चेतना, चेतना की भांति रहेगी। यह कैसे किया जाए? उस ईश्वर की उपासना करके जो आत्मा में है, जो अपने स्वभाव से ही नित्य, शुद्ध और पूर्ण है। इस संसार में दो सर्वशक्तिमान सत्ताएं नहीं हो सकतीं। दो या तीन ईश्वरों के होने की कल्पना करो, एक संसार की सृष्टि करेगा, तो दूसरा कहेगा, मैं संसार का विनाश करूंगा। ऐसा कभी नहीं हो सकता। ईश्वर एक ही होना चाहिए जीवात्मा पूर्णता को पहुंचती है, वह लगभग सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हो जाती है। यह उपासक है। उपास्य कौन है? वह, स्वामी, ईश्वर स्वयं, सर्वव्यापी, सर्वज्ञाता आदि विशेषणों से युक्त और सबसे ऊपर, वह प्रेम है। जीवात्मा इस पूर्णता को कैसे प्राप्त करे? उपासना के द्वारा। तुममें बाइबल के अध्येता हैं, वे सभी समझते हैं कि समस्त यहूदी इतिहास और यहूदी विचार संपत्ति का निर्माण दो प्रकार के शिक्षकों, पुरोहितों और पैगंबरों द्वारा हुआ है। पुरोहित रूढि़वादी शक्ति के प्रतिनिधि हैं और पैगंबर प्रगति की शक्ति के। बात यह है कि सब जगह रूढि़मय कर्मकांड घुस आता है, औपचारिकता प्रत्येक वस्तु को जकड़ लेती है। यह बात हर देश और प्रत्येक धर्म पर लागू होती है। उसके बाद नई दृष्टि वाले कुछ नए द्रष्टा आते हैं, वे नए आदर्शों और विचारों का प्रचार करते हैं और समाज को एक नई गति देते हैं। कुछ पीढि़यों में उनके अनुयायी अपने गुरुओं के विचारों के प्रति इतने भक्त हो जाते हैं कि वे उनके अतिरिक्त कुछ और नहीं देख पाते। इस युग के सर्वोपरि प्रगतिशील उदार उपदेशक कुछ वर्षों में सर्वाधिक रूढि़ग्रस्त पुरोहित बन जाएंगे। यह प्रगतिशील विचारक अपनी बारी आने पर, किंचित भी आगे बढ़ने वाले मनुष्य को रोकने लगेंगे। उन्होंने जो स्वयं पा लिया है, वे उससे आगे किसी को नहीं जाने दंगे। वे जो वस्तु जैसी है, उसे वैसा ही रहने देने में संतुष्ट हैं। वह शक्ति, जो प्रत्येक देश में प्रत्येक धर्म के निर्मायक सिद्धांतों द्वारा काम करती हैं, धर्म के बाह्य रूपों में प्रकट होती है। सिद्धांत और पुस्तकें कुछ नियम और अंग-संचालन खड़े होना, बैठ जाना, ये सब उपासना की उसी कोटि से संबंध रखते हैं। आध्यात्मिक उपासना इसलिए पार्थिव बन जाती है कि अधिकांश मानव जाति उसे अपना सके।
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