लज्ज्ति होते शिलान्यास

By: Feb 17th, 2018 12:05 am

हिमाचल में नई सरकार बनते ही अगर घुमारवीं विधानसभा क्षेत्र की तीन शिलान्यास पट्टिकाएं टूट जाएं, तो इसमें हार-जीत का फैसला कौन करेगा। यूं तो पत्थर वहां भी लग जाते हैं, जहां मिट्टी नहीं होती तथा दरिया वहां तक पहुंच जाते हैं, जहां किनारा नहीं होता। पूर्व विधायक राजेश धर्माणी के नाम खुदे शिलान्यास अगर इरादों की किश्ती होते, तो मुसाफिरों की तरह सियासत यूं नंगे बदन हैरान न होती। असली कहावत तो शिलान्यास को उद्घाटन में बदलने की है, फिर भी विकास की इबारतों को दफन करने का गुनाह कबूल नहीं होगा। टूटे शिलान्यास भी पूछते होंगे कि खंडहर होने से पहले सजा क्यों मिली। यह इसलिए कि हमारी हस्ती का मानदंड आखिर शिलान्यास से उद्घाटन तक क्यों सिमट गया और यह कौन सी हस्ती है जो पूर्ववर्ती सरकारों का नामोनिशान मिटाना चाहती है। ये तीनों शिलान्यास पट्टिकाएं न तो मात्र समारोह थीं और न ही टूट कर पत्थर हो जाएंगी, बल्कि कुछ आहें बटोरकर लज्जित जरूर होंगी। इस टूटन से हटकर भी एक परिदृश्य है, जहां शिलान्यास में छिपा सियासी अहंकार है और ज्यों ही सांसदों से सवाल की परिभाषा सामने आ रही है, जवाब तैयार हो रहे हैं। ऐसे में कांगड़ा जिला के सबसे बड़े शिक्षण संस्थान यानी केंद्रीय विश्वविद्यालय के औचित्य का सवाल भी भाजपा के गले की फांस बना हुआ है। यहां कांगड़ा के बजाय दो संसदीय क्षेत्रों के प्रतिनिधियों के पाले में पड़ा केंद्रीय विश्वविद्यालय का प्रश्न, अगर हमीरपुर के सांसद अनुराग की इज्जत से जुड़ता है तो कांगड़ा के सांसद शांता कुमार के कद की इबादत सरीखा है। यह दीगर है कि शांता कुमार ने केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रश्न को अपने अहंकार की बेडि़यां नहीं पहनाईं और न ही मसले को राजनीतिक तूल दिया, बल्कि इसे शिक्षाविदों व विषय के विशेषज्ञों के हवाले से नतीजे तक पहुंचाने की गुंजाइश देखी। दूसरी ओर सांसद अनुराग के लिए यह अपने अस्तित्व की निशानी के सवाल की तरह है। ऐसे में देखना यह होगा कि दो सांसदों के पाटों के बीच इस मुद्दे का मध्यांतर होता है या खोए हुए वजूद को चिन्हित करने की जंग में केंद्रीय विश्वविद्यालय केवल खिलौना बनकर रह जाएगा। यहां शिलान्यास से कहीं अधिक पत्थर युवाओं के भविष्य पर पड़ रहे हैं और तालियों की शौकीन राजनीति को यह भी खबर नहीं कि यह मात्र हजार करोड़ का निवेश नहीं, सैकड़ों सालों का भविष्य है। कोई भी विश्वविद्यालय केवल इमारतों का झुंड नहीं, बल्कि ज्ञान की उपासना है और जहां पढ़ने और पढ़ाने वाले, सांसदों के शैक्षणिक व वैचारिक कक्ष से कहीं ऊपर देश के भविष्य की पूंजी व कुंजी हैं। जयराम व मोदी सरकार के प्रस्तावित शिलान्यास की मुनादी अगर सियासी अधिकार की तरह होगी, तो लज्जित होने की वजह नहीं पूछी जाएगी- क्योंकि दस्तूर ही अगर सियासी अस्तित्व होगा तो चिराग भी कब तक रोशन रहेंगे। प्रश्न आज पैदा हो रहे हैं, ऐसा भी नहीं है। एक पूरी तफतीश वर्तमान सरकार के अधिकार की निगरानी करेगी कि पिछली सरकार या सरकारों ने हिमाचल के सीने में यूं ही बिना बजट के कितने शिलान्यास घोंप दिए। बिना बजटीय प्रावधान के तो सपने देखना भी जब मुनासिब नहीं, तो इन पत्थरों पर किस यथार्थ की मूर्ति लगी होगी। तोड़े गए घुमारवीं के शिलान्यास भी अपने साथ प्रश्नों की बेडि़यां पहने थे और अब जो टूटा उसकी पहचान नहीं। शिलान्यासों के तर्क में विजयी होती राजनीति यह भी समझ ले कि कब तक चबूतरे की घोषणा शरण देगी। कमोबेश यही स्थिति सांसदों के नाम पर आदर्श गांवों की घोषणा का हश्र भी है, जिसे हम प्रदेश के हर सांसद की हैसियत में देख सकते हैं। शिलान्यास करके जोड़ी गई जनभावना से कहीं अधिक क्रूरता उसे बिना बजट के लावारिस छोड़ना माना जाएगा। ऐसे में यह फैसला या भेद करना कठिन है कि जिस-जिसने बिना बजट के अधूरे शिलान्यास किए, वे गलत थे या अब उन्हें महज पत्थर समझ कर जो तोड़ रहे हैं, वे अधिक दोषी हैं।


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