वन प्रबंधन का मार्ग प्रशस्त करे बजट

By: Feb 26th, 2018 12:05 am

कुलभूषण उपमन्यु

लेखक, हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं

1927 के वन अधिनियम के अध्याय तीन की धारा 28 गांव वन बनाने की व्यवस्था करती है। ऐसा करने की शक्ति भी राज्य सरकार में ही निहित है। अतः इस धारा को वर्तमान संदर्भ में परिभाषित करके ज्यादा व्यापक अर्थ दे कर आगे बढ़ा जा सकता है…

हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था में वन बहुआयामी एवं महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है। प्रदेश का करीब 67 फीसदी भाग वन क्षेत्र है। इसमें से 23 फीसदी से 27 फीसदी के बीच वास्तविक जंगल है। पारिस्थितिकीय संतुलन, जल संरक्षण, जैव विविधता, मिट्टी निर्माण, भू-दृश्य सौंदर्य और जलवायु नियंत्रणके रूप में वन ऐसी भूमिका निभा रहे हैं, जिसके बिना न जीवन संभव है और न विकास। दुर्भाग्य से इस संसाधन का प्रबंधन ब्रिटिश काल से वनों की उपरोक्त भूमिकाओं को ध्यान में रखे बिना केवल व्यापारिक दृष्टि से ही किया गया। व्यापारिक प्रजातियोंके एकल रोपण को ही प्रोत्साहित किया गया। इसके लिए प्राकृतिक वनों के विनाश का कार्य सुधार वानिकी के नाम से किया जाता रहा। यह क्रम 1850 से 1981 तक निर्बाध गति से चलता रहा। इसके बाद वैश्विक चेतना और चिपको जैसे सामाजिक आंदोलनों से दृष्टिकोण में कुछ बदलाव धीरे-धीरे आया है। सामाजिक वानिकी और साझा वन प्रबंधन जैसे प्रयोग हुए। मिश्रित प्राकृतिक वानिकी की दिशा में भी कुछ प्रगति आरंभ हुई। वनों में यदि फल, चारा, ईंधन, खाद, रेशा और दवाई देने वाले वृक्षों, झाडि़यों और घासों का रोपण और संवर्द्धन हो, तो वन बिना वृक्ष काटे  ही सतत आय और रोजगार का स्रोत बन सकते हैं। इस बात को समाज और सरकार जितनी जल्दी समझ लें उतना ही अच्छा है।

वन उल्लेखित योगदानों द्वारा अर्थव्यवस्था में जल संरक्षण आधारित आर्थिक एवं जीवनदायी गतिविधियों, पशुओं के लिए सस्ता चारा उपलब्ध कराने, फलों-दवाइयों पर आधारित आर्थिक गतिविधियों, भू-सौंदर्य से विभिन्न प्रकार के पर्यटन को विकसित और आकर्षित करके अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन सकते हैं। प्रदेश के अलावा देश भर के लिए विशेषकर यहां की नदियों के जलागम के मैदानी भागों तक वनों के पर्यावरणीय लाभ पहुंचते हैं, परंतु वृक्षों को अभी तक भी लकड़ी की दृष्टि से ही देखने की मानसिकता से हम बाहर नहीं निकल सके हैं। लकड़ी तो वृक्ष की मृत पैदावार है। वनों के घनत्व को यदि बनाकर रखा जाए तो गिरे पड़े और प्राकृतिक रूप से सूखे या टूटे-फूटे पेड़ों से ही लकड़ी की अधिकांश जरूरतें पूरी हो सकती हैं, जबकी 50 टन भार वाला एक पेड़ अपने औसत 50 वर्ष के जीवनकाल में (डा. तारकमोहन दास के अनुसार 1980 के दशक की कीमतों के स्तर पर) 15 लाख 70 हजार रुपए की सेवा वायु शुद्धिकरण, जलवायु नियंत्रण, जल संरक्षण, मिट्टी निर्माण, फल-फूल और छाया आदि के रूप में देता है। इस अद्भुत एवं अमूल्य संपदा को जिस गंभीरता से संरक्षित और संवर्द्धित करने की जरूरत है, उसके अनुरूप उपयुक्त व्यवस्थाएं हमारे पास नहीं हैं। खासकर समुदाय, सरकार और विभाग के बीच वांछित तालमेल का अभाव एक बड़ी बाधा है। बहुत से जरूरी व्यावहारिक निर्णय केंद्रीकरण के चलते नहीं हो पाते।

वन विभाग की स्थापना अंग्रेजों के शासन के दौरान एक पुलिस फोर्स की तर्ज पर हुई थी, इसलिए आज भी उसकी मूल मानसिकता समाज से कटे रहने की है। यह वनों को बचाने के लिए समाज के कुशल सहायक की भूमिका में रहने के बजाय वनों के मालिक की भूमिका में बना रहता है। समाज स्वयं वनों के जिम्मेदार मालिक जैसा व्यवहार करने के बजाय वनों के चोर की भूमिका में आकर अपने ही भविष्य और संपदा के प्रति लापरवाह या विनाशक बना बैठा है। इन दोनों परिस्थितियों से बाहर निकलना जरूरी है। वन विभाग सामुदायिक वन प्रबंधन को सशक्त करने की भूमिका में आए, तभी बड़े बदलाव की संभावना बन सकती है। नई परिस्थिति में समुदाय और वन विभाग की भूमिकाओं को भी पुनः परिभाषित करना पड़ेगा। इसे मुख्यधारा वन व्यवस्था बना कर ही इस दुविधा से बाहर निकला जा सकता है। 1927 के वन अधिनियम के अध्याय तीन की धारा 28 गांव वन बनाने की व्यवस्था करती है। ऐसा करने की शक्ति भी राज्य सरकार में ही निहित है। अतः इस धारा को वर्तमान संदर्भ में परिभाषित करके ज्यादा व्यापक अर्थ दे कर आगे बढ़ा जा सकता है। वन अधिकार अधिनियम, 2006 इस कार्य के लिए और भी सशक्त प्रावधान धारा तीन (अध्याय-2) में उपलब्ध करवाता है, क्योंकि यह एक विशेष अधिनियम है, जिसके प्रावधान अन्य उपलब्ध कानूनों पर सर्वोपरि हैं।

इसका निर्माण ही ब्रिटिश काल की गलतियों से उबरने के लिए किया गया है, जिसे इस कानून की प्रस्तावना में ही कहा गया है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि क्या हम कानूनी सकारात्मकता का सदुपयोग करना चाहते हैं या उनसे बचकर निकलना चाहते हैं। यदि हम सकारात्मक संभावनाओं का सदुपयोग करना चाहते हैं तो उपरोक्त दोनों अधिनियम पर्याप्त अवसर प्रदान करते हैं। इनका प्रयोग करके हम यदि हर गांव के वन क्षेत्र के कुछ भाग को गांव वन बना कर स्थायी वन प्रबंधन समितियां बना कर उनके साथ वन प्रबंधन का कार्य आरंभ करें, तो वनों के प्रति समुदायों की दृष्टि, सामुदायिक उत्तरदायित्व की भावना और समुदायों और वन विभाग के रिश्तों में गुणात्मक सकारात्मक परिवर्तन संभव है। इस कार्य की शुरुआत राज्य स्तर पर पर्याप्त बजट आबंटन से की जानी चाहिए, क्योंकि इससे रोजगार के कई क्षेत्र सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। केंद्र सरकार भी पर्वतीय राज्यों को ग्रीन बोनस दे कर इस कार्य में योगदान करे तो वनों की स्थिति में पर्यावरणीय दृष्टि से लाभकारी और रोजगार सृजक बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। वन विभाग का सिर तो भारी होता जा रहा है, परंतु टांगें कमजोर हो गई हैं। इस स्थिति को भी बदलना जरूरी हो गया है।


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