आत्म पुराण

By: Mar 17th, 2018 12:05 am

समाधान-हे जनक! यह जीवात्मा स्वप्न के लिए सुषुप्ति से बाहर आती है, यह श्रुति का कथन असगंत नहीं यथार्थ नहीं है। यहां पर स्वप्न से केवल स्वप्नावस्था का ही आशय नहीं है, किंतु इससे विपर्यय ज्ञान रूप विक्षेप का भी आशय ग्रहण करना चाहिए। पर यह विक्षेपरूपता जैसे स्वप्नावस्था में होती है, वैसी ही जाग्रत में भी होती है। अब आत्मा के असंग रूप का निरूपण करते हैं। वह आनंदरूप आत्मा सुषुप्ति से बाहर आकर विक्षेप रूप स्वप्न काल में यह आनंद स्वरूप आत्मा स्त्री संभोग से लेकर अनेक विषयों को देखता है, परंतु जैसे हम घड़ा बरतन आदि पदार्थों को देखते हुए भी उन दृश्य रूप विषयों के साथ संबंधित नहीं होते, वैसे ही स्वप्नावस्था में नाना प्रकार के विषयों को देखता हुआ भी आत्मा उनके साथ संबंधित नहीं होती। शंका-हे भगवन! स्वप्नावस्था में जैसे यह द्रष्टा पुरुष रूपादिक विषयों को देखता है, वैसे ही अहं शब्द का अर्थ जो आत्मा है, उसे भी यह द्रष्टा पुरुष जानता है।

दृश्य पदार्थों के साथ चाहे द्रष्टा पुरुष का संबंध न हो, तो भी आत्मा रूप दृश्य पदार्थ के साथ द्रष्ट पुरुष का संबंध संभव है।

समाधान-हे जनक! आत्म रूप में जो विशिष्ट तत्त्व है, उसको देखने में कोई पुरुष समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि जो धर्म (गुण) विशिष्ट पदार्थ में रहता है, वह धर्म विश्लेषण में भी अवश्य रहेगा। जैसे नीले रंग का घड़ा कहने में जो ज्ञान प्रकट होता है, वह नीलापन घड़े में भी रहता है।

शंका-हे भगवन! आत्मा में ज्ञान की विषयता मानने में क्या हानि है?

समाधान-हे जनक जैसे दाहिने हाथ से दाहिने के पंजे को नहीं पकड़ा जा सकता, वैसे ही आत्मा द्वारा आत्मा का ग्रहण कदापि संभव नहीं होता, अगर आत्मा में भी ज्ञान की विषयता स्वीकार कर ली जाए, तो जो पदार्थ ज्ञान का विषय होते हैं, वे जड़ होते हैं। वैसे आत्मा भी उस समय जड़ मानी जाएगी। तब वह भी अनात्म हो जाएगा। इसलिए स्वप्नावस्था में स्वप्न द्रष्टा पुरुष का दृश्य पदार्थों से तीन काल में कोई संबंध नहीं हो सकता।

हे जनक! इस प्रकार स्वप्नावस्था में समस्त संग से रहित जो आत्मा है, वही आत्मा स्वप्रकाश रूप में अधिकारी पुरुषों को मोक्ष प्राप्त कराता है। इस प्रकार राजा जनक के प्रथम प्रश्न का उत्तर देकर याज्ञवल्क्य मुनि उसके दूसरे प्रश्न का उत्तर देने लगे। हे जनक! जैसे द्रष्टारूप आत्मा को स्वप्न के पदार्थ प्रभावित नहीं करते, वैसे ही जाग्रत के पदार्थ भी उसे विषायमान नहीं कर सकते। इस कारण स्वप्नावस्था की तरह जाग्रत अवस्था में भी आत्मा असंग रहती है।

 हे जनक! जैसे यह स्वयं ज्योति आत्मा जाग्रत अवस्था के पदार्थों को देखकर स्वप्नावस्था में जाती है, वैसे ही यह स्वप्नावस्था में पाप-पुण्यों को देखकर जाग्रत अवस्था में आती है। इस प्रकार जाग्रत और स्वप्न दोनों समान हैं। पर स्वप्नावस्था और जाग्रत अवस्था में इतना भेद अवश्य है कि जहां जाग्रत में केवल बाह्यपन है, वहां स्वप्न में बाह्य और अंतः दोनों हैं। इस प्रकार स्वप्नावस्था जागृत और सुषुप्ति दोनों से एक-एक अधिक है और सुषुप्ति की अपेक्षा बाह्यपन अधिक है। इस प्रकार एक मूर्त पदार्थ का दूसरे मूर्त पदार्थ से जो क्रिया। जन्य संयोग-संबंध होता है, उसी को संग कहते हैं। जैसे घड़ा रूप मूर्त पदार्थ पृथ्वी रूप दूसरे मूर्त पदार्थ पर रखा है, यही क्रिया जन्य संयोग है, पर आत्मा का किसी पदार्थ के साथ ऐसा संयोग संबंध नहीं, इसी से उसे असंग कहते हैं। इस प्रकार स्वप्न की तरह जाग्रत में भी आत्मा असंग ही बना रहता है। अब तीसरे प्रश्न का उत्तर सुनो, हे जनक! जाग्रत अवस्था में यह आनंदस्वरूप आत्मा स्वप्न की तरह प्रिय स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करके और तरह-तरह के मार्गों पर चलता है और पूर्वकृत पुण्य-पाप कर्मों का फल भोगा करता है।


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