प्राचीन संस्कृति को संजोए रखना जरूरी

By: Mar 30th, 2018 12:05 am

दलीप वर्मा

लेखक, सोलन से हैं

हिमाचल एक पहाड़ी राज्य है, इसकी संस्कृति ही इसकी पहचान है। प्रदेश की प्राचीन संस्कृति को संजोए रखना है। यहां की भाषा, रीति-रिवाज, उत्सव खान-पान, पहनावा प्रदेश की विशिष्ट पहचान है, जिसे हमें बच्चों में स्थानांतरित करना है। साथ ही हमें यह कदाचित नहीं भूलना है कि प्रदेश की संस्कृति इस राष्ट्र को वीर योद्धा देने की भी रही है…

संस्कृति का सही मायनों में अर्थ विशिष्ट समूह की विशेषताएं हैं, जो किसी भाषा, धर्म, पहनावे व खानपान से घिरी होती हैं। वास्तव में यह फूलों युक्त उस पट्टे के समान होती है, जिस तरह यह पट्टा (रीद)  फूलों को बाहर नहीं आने देता उसी तरह यह हमें अपनी परिधि से बाहर नहीं निकलने देती। संस्कृति की सुगंध से हमें अपनेपन का आभास होता है। हिमाचल प्रदेश हिमालय की गोद में बसा हुआ है,  जहां पर विभिन्न जाति व समुदाय के लोग रहते हैं। इसकी संस्कृति की जब हम बात करते हैं, यह बहुत प्राचीन है, जोकि 2250 से 1750 ईसा पूर्व के बीच पनपने का इशारा करती है। 19वीं शताब्दी के मध्य में यह प्रदेश ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया था। सन 1846 में एेंग्लो-सिख युद्ध लड़ा गया। वास्तव में भारतवर्ष की आजादी से पहले यह छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ था। 15 अप्रैल 1948 को यह अस्तित्व में आया। सन् 1951 में इसे पार्ट सी दर्जा प्राप्त होने के उपरांत यह देश का 18वां राज्य बन गया। प्रदेश की संस्कृति ने हर प्रकार की विकट परिस्थितियों का सामना किया है और आज भी यह अपने प्राचीन आस्तित्व पर वैसे ही अडिग है। मुझे फ्रांस के उन अध्यापक हेमल का कथन याद आता है, जब प्रशिया ने फ्रांस के दो जिले आल्सेस और लोरेन को जीत लिया था। उस समय हेमल अपने विद्यार्थियों को कहते हैं-बेशक हम इनके अधीन हो चुके हैं, लेकिन जब तक हमारी पकड़ अपनी संस्कृति व भाषा पर होगी, दुनिया की कोई भी ताकत हमें ज्यादा दिन तक अपने अधीन नहीं रख सकती। हिमाचल एक पहाड़ी राज्य है, इसकी संस्कृति ही यहां की पहचान है। कौन भूल सकता है मंडी की सैर, रिश्तेदारों में अखरोट व फल बांट कर रिश्तों को और गूढ़ बना देती है। इसी तरह सिरमौर, किन्नौर व शिमला में जागरा, गद्दी समुदाय द्वारा मनाया जाने वाला नवाला, स्पीती में मनाया जाने वाला जिदजैद, केलांग में गोची, जुब्बल व किन्नौर में हरियाली इनका अपना ही महत्त्व है। जब हम लोहड़ी की बात करते हैं जिसे माघी या साजा भी कहा जाता है, एकदम हमें खिचड़ी और घी की याद आ जाती है।

सुबह-सुबह जल्दी उठकर स्नान करना और परिवार के सदस्यों द्वारा चावल दान करना। इसमें संयुक्त परिवार के आदर्शों का पालन करते हुए दान प्रवृत्ति का अस्तित्व बनाए रखना इसका मुख्य उद्देश्य होता है। जब हम प्रदेश के विभिन्न व्यंजनों की बात करते हैं, तो कौन भूल सकता है सिरमौर व सोलन के पूडे़, पटांडे व कंजन। कुल्लू व शिमला के सिडू, मंडी व कांगड़ा की धाम और लाहौल की अकतोरी। हिमाचल की पशमीना शाल, चंबा का रूमाल, कुल्लू की टोपी ने न केवल देश में बल्कि विश्व में तहलका मचा रखा है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भारत के राष्ट्रपति ने भी गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में हिमाचली टोपी पहन कर प्रदेश का गौरव बढ़ाया। प्रदेश में पहाड़ी भाषा बोली जाती है, जिसकी अपनी ही मिठास है। अधिकांश देखा गया है कि नई पीढ़ी अपनी भाषा बोलने में संकोच करती है। आज की 21वीं सदी में हमें अगर राष्ट्रीय व विश्वस्तर पर अपनी पहचान बनानी है, तो रचनात्मक पहलुओं पर अधिक ध्यान देना होगा। हमें सहर्ष स्वीकार करना होगा कि हमें हिंदी जो कि मातृभाषा है, उसके साथ-साथ अपनी बोली को भी उतना ही मान-सम्मान देना होगा। आजकल हम देखते हैं कि सेना में मिश्रित रेजिमेंट के साथ-साथ प्युअर रेजिमेंट के गठन को भी प्राथमिकता दी जा रही है। इसका मकसद विकट परिस्थितियों में भी अपनी भाषा व बोली का सहारा लेकर दुश्मन में जबरदस्त फतह हासिल की जा सके। इसका उदाहरण हिमाचल की डोगरा रेजिमेंट व उत्तरांचल की कुमाऊं व गढ़वाल रेजिमेंट है, ताकि सेना मेें भी अपनी संस्कृति में रहकर सैनिक कठिन से कठिन कार्य को अंजाम देने में सक्षम हो सके। राष्ट्रीय स्तर पर भी संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत 1979 में सीसीआटी का गठन किया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य भारतवर्ष की शिक्षा प्रणाली को संस्कृति के साथ आगे बढ़ाया जा सके और स्कूलों में कला उत्सव को पुनः नईं दिशा दी जा सके। अतः यह आवश्यक बन जाता है कि हमें प्रदेश की प्राचीन संस्कृति को संजोए रखना है। यहां की भाषा, रीति-रिवाज, उत्सव खान-पान पहनावा प्रदेश की विशिष्ट पहचान है, जिसे कि हमें बच्चों में स्थानांतरित करना है। साथ ही हमें यह कदाचित नहीं भूलना है कि प्रदेश की संस्कृति इस राष्ट्र को वीर योद्धा देने की भी रही है। अतः हर अभिभावक को मनन करने के लिए निश्चित तौर से जरूरी है कि वह अपने बच्चों को किस तरह शारीरिक व मानसिक रूप से फिट रख सकते हैं। मेरा मानना है कि वह अपने बच्चों को पैदल चलने के लिए भी प्रेरित करें। हर समय अनावश्यक तरीके से कम दूरी के लिए गाडि़यों में सफर करना जो कि आजकल का चलन बन चुका है, स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त नहीं होता है।


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