राज्यसभा चुनाव के बाद गठबंधन

By: Mar 26th, 2018 12:05 am

राज्यसभा चुनाव इतने महत्त्वपूर्ण कभी साबित नहीं हुए, जितने इस बार होंगे और 2019 की राजनीति को तय कर सकेंगे। अकसर सत्तारूढ़ पक्ष के ही सांसद चुनकर राज्यसभा में जाते रहे हैं। एकाध सांसद विपक्ष का भी जीत जाता है, क्योंकि विधायकों की संख्या इतनी होती है। इस बार भी पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, ओडिशा, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और हिमाचल आदि राज्यों में सरकार द्वारा समर्थित सांसद ही चुने गए हैं, लेकिन फिर भी राज्यसभा चुनावों के कई मायने हैं। देश की आजादी के बाद पहली बार भाजपा राज्यसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर पुख्ता हुई है और कांग्रेस की संख्या 50 सांसदों से भी कम हो गई है। राज्यसभा चुनाव से पहले भाजपा के 58 सांसद थे, जो अब बढ़कर 70 हो जाएंगे। भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए के सांसदों की संख्या भी 89 तक (पहले 77 थी) पहुंच जाएगी। कांग्रेस का वर्चस्व संसद के उच्च सदन में समाप्त हो रहा है। उसके सांसद 54 से घटकर 46 पर आ जाएंगे। यूपीए सांसद भी 60 से कम होकर 52 तक लुढ़क आएंगे। अलबत्ता अन्य सांसदों की ताकत अब भी 102 होगी, जो विभिन्न विधायी और बहस तलब मुद्दों पर निर्णायक साबित होगी। राज्यसभा में 245 सांसद होते हैं, जिनमें से 233 चुनकर आते हैं और 12 को राष्ट्रपति मनोनीत करते हैं। लिहाजा बहुमत का आंकड़ा 123 है। भाजपा-एनडीए अब भी बहुमत से बहुत दूर हैं, लेकिन फासले सिमट रहे हैं। अब राज्यसभा में जो समीकरण बन रहे हैं, उनके मद्देनजर 2019 तक भाजपा-एनडीए बहुमत के और भी करीब पहुंचेंगे। जिस तरह भूमि अधिग्रहण अध्यादेश (बाद में बिल) और तीन तलाक विधेयक पर मोदी सरकार को संसद के उच्च सदन में मुंह की खानी पड़ी थी, कमोबेश अब ऐसे मौके कम ही होंगे, लेकिन ‘अन्य सांसद’ भी वैचारिक तौर पर भाजपा-मोदी-विरोधी हैं, लिहाजा राज्यसभा में भी बहुमत का आंकड़ा छूने के मद्देनजर सत्तारूढ़ पक्ष को अन्य दलों के साथ बेहतर तालमेल बनाना होगा। राज्यसभा में भाजपा और कांग्रेस के बाद तृणमूल के सर्वाधिक सांसद हैं। अन्नाद्रमुक सांसदों की संख्या भी पर्याप्त है, जो राजनीति के तहत भाजपा के करीब है। बहरहाल राज्यसभा के भीतरी समीकरणों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण विपक्षी लामबंदी का मुद्दा है। सबसे महत्त्वपूर्ण उप्र के राज्यसभा चुनाव रहे, जिसमें अखिलेश यादव की सपा मायावती की बसपा के उम्मीदवार भीमराव अंबेडकर को जिता नहीं सकी। एक बार फिर साबित हो गया कि सपा के वोट बसपा की ओर शिफ्ट नहीं होते हैं। यह जातीय, संस्कारी, परंपरागत पूर्वाग्रह हैं। जबकि बसपा ने अपने वोट बैंक के जरिए सपा को गोरखपुर और फूलपुर सरीखी महत्त्वपूर्ण लोकसभा सीटें जितवा कर साबित किया था कि बसपा के वोट सपा की ओर शिफ्ट हो सकते हैं। राज्यसभा चुनाव में भी जमकर क्रॉस वोटिंग की गई, फिर भी अखिलेश यादव अपने भरोसेमंद विधायकों की सूची मायावती को थमा सकते थे। अब इस चुनाव के बाद सपा-बसपा गठबंधन का भविष्य कुछ अनिश्चित हो सकता है। हालांकि उप्र की ही कैराना लोकसभा सीट पर उपचुनाव के लिए दोनों दल करार घोषित कर चुके हैं। राज्यसभा चुनाव हारने के बाद बसपा अध्यक्ष मायावती ने दावा किया है कि समझौता जारी रहेगा। उन्होंने सपा-बसपा गठबंधन के बजाय ‘दोस्ती’ शब्द का इस्तेमाल किया है। दावा यह भी किया है कि अब दोनों दल नई रणनीति के जरिए भाजपा को हराएंगे। मायावती यह कहना नहीं भूलीं कि अखिलेश को अभी राजनीति का तजुर्बा कम है, लिहाजा बसपा प्रत्याशी हार गया। बहरहाल गठबंधन तभी माना जाएगा, जब वह राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका अदा करेगा, तब तक वह एक अर्द्धसत्य ही लगता रहेगा। चुनाव विशेषज्ञों के आकलन सामने आए हैं कि यदि उप्र में ही सपा-बसपा में गठबंधन हो जाए, तो भाजपा-एनडीए की कमोबेश 50 लोकसभा सीटें कम हो सकती हैं। 2014 में भाजपा-एनडीए ने उप्र की 80 में से 73 लोकसभा सीटें जीती थीं। इन आकलनों के मुताबिक, सपा-बसपा गठबंधन भाजपा-एनडीए को तगड़ा झटका देने में समर्थ है। अब सवाल यह है कि राज्यसभा चुनाव के बाद क्या यह गठबंधन होगा? यदि देश के सबसे बड़े राज्य में यह चुनावी गठबंधन नहीं होगा, तो राष्ट्र स्तर पर विपक्ष का महागठबंधन कैसे आकार लेगा? बुनियादी सवाल यह भी है कि यदि उप्र में सपा-बसपा गठबंधन नहीं होता है, तो 2019 में मोदी और भाजपा को पराजित करने की सोची भी नहीं जा सकती।


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