साहित्य में अलग स्वर की कोकिला हैं चंद्ररेखा

By: Mar 11th, 2018 12:10 am

कवि व कथाकार चंद्ररेखा ढडवाल लंबे समय से कविता, कहानी, निबंध व लोक संस्कृति की व्याख्या-विश्लेषण से संबद्ध रचनाएं लिख रही हैं, जो राज्य व राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित व चर्चित हो रही हैं। राम लुभाया हाजिर है, सेतु कथा चौबिसी, हिंदी की कालजयी कहानियां तथा मिसिंग लिंक्स में कहानियां तथा कहानियों के अंग्रेजी अनुवाद संकलित हैं। विभिन्न कविता संकलनों तथा विशेषांकों के लिए इनकी कविताएं चयनित तथा पुरस्कृत हुई हैं। इन्होंने लोक साहित्य, विशेष रूप से कांगड़ा के लोक गीतों में नारी-चेतना का संधान करते हुए, स्त्री-विमर्श को नए आयाम दिए हैं। कांगड़ा की लोकगाथाओं में नारी तथा कांगड़ा के सुहाग गीतों में नारी चेतना पर विमर्शात्मक आलेख लिए जो प्रकाशित व चर्चित हुए। कबीर तथा विट्गेंस्टाइन के तुलनात्मक अध्ययन का अंग्रेजी अनुवाद-विटगेंस्टाइन अनसेमबल पुस्तक में प्रकाशित हुआ है।

कविताओं का धर्मशाला, शिमला तथा जम्मू आकाशवाणी से प्रसारण हुआ। आकाशवाणी शिमला से इनकी किताब की संपूर्ण कविताएं प्रसारित हुईं तथा उनकी समीक्षा भी हुई। इसके अलावा इनकी हिंदी कविताओं का संकलन ‘जरूरत भर सुविधा’ तथा पहाड़ी कविताओं का संग्रह ‘अक्खर-अक्खर जुगनू’ प्रकाशित हुआ है। हिंदी कविता संकलन की समीक्षा व चर्चा हुई है। अक्खर-अक्खर जुगनू को भी सराहना व संज्ञान मिला। लोक संस्कृति से संबंधित किताब-लोकभाव स्वरांजलि में कांगड़ा के चौरासी जन्मगीतों का भाव विश्लेषण इन्होंने किया है। यह पुस्तक एक प्रालेखन है। इसमें स्वरांकन राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान प्राप्त संगीतज्ञ जन्मेजय गुलेरिया ने किया है। लोक भाव स्वरांजलि-भाग दो प्रकाशनाधीन है। ये पुस्तकें शोधार्थियों तथा आने वाली पीढि़यों के लिए उपयोगी होंगी। इन्हें सामाजिक सरोकारों से संबद्ध ज्वलंत विषयों पर सटीक टिप्पणियों के लिए विविध संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। साइको डायजेस्ट द्वारा शीतल सृजन धर्मी सम्मान, ‘दिव्य हिमाचल’ मीडिया समूह द्वारा श्रेष्ठतम कविता पुरस्कार तथा डा. परमार सम्मान आदि इन्हें प्राप्त पुरस्कार हैं। ‘दिव्य हिमाचल’ के साहित्यिक पृष्ठ ‘प्रतिबिंब’ के तहत चली ‘साहित्य में महिला’ सीरीज (विमर्श) के अतिथि संपादक की भूमिका भी इन्होंने बखूबी निभाई। इस सीरीज को पाठकों का भरपूर समर्थन व प्रशंसा मिली थी। 15 अप्रैल, 1951 को धर्मशाला में जन्मी चंद्ररेखा ढडवाल महिला विषयों पर निरंतर लिख रही हैं। यह राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय धर्मशाला से विभागाध्यक्ष (हिंदी विभाग) के पद से सेवानिवृत्त हैं। आजकल यह धर्मशाला के श्यामनगर में रह रही हैं। रिटायरमेंट के बाद भी चंद्ररेखा ढडवाल साहित्य की सेवा में निरंतर लगी हुई हैं। हम अगर हिंदी में हिमाचल के कविता लेखन की बात करें, तो इसमें चंद्ररेखा का एक अलग स्वर है। हिमाचल की प्रकृति में अंतर्निहित संस्कृति को पहचानने का उनका उपक्रम नितांत मौलिक है। सौंदर्य, प्रकृति और सामाजिक चेतना उनकी कविता के फलक का विस्तार करती हैं। यह आश्वस्तकारी है कि भाषा और विचार के स्तर पर लगातार पैदा हो रही नई चुनौतियों से जूझते हुए भी वह इस संग्रह ‘जरूरत भर सुविधा’ की कविताओं में कुछ अलग और नया करने में सफल हुई हैं। इस  संग्रह की अंतिम कविता का नाम है : हिम्मतें। इस छोटी सी कविता में उन्होंने स्त्री के संघर्ष में अनुस्यूत करुणा को उद्घाटित किया है। यह वह विडंबना है जिसे पुरुष सत्ता और समय ने मिलकर रचा है। अपने छोटे कलेवर में यह स्त्री की जिजीविषा और विजिगीषा को काल के बड़े फलक पर उकेरने वाली कविता है। अन्य कविताएं भी सामाजिक पैगाम देती हैं। चंद्ररेखा का पूरा जीवन ही संघर्ष को समर्पित रहा है। आशा है कि वह आने वाले दिनों में हिमाचल के हिंदी साहित्य को नए कलेवर देने में कामयाब रहेंगी।                            -विनोद

भावनात्मक खालीपन को भर रहा है स्त्री लेखन

हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें। इस क्रम में जब हमने चंद्ररेखा ढडवाल के कविता संग्रह ‘जरूरत भर सुविधा’ की पड़ताल की तो साहित्य के कई पहलू सामने आए…

दिव्य हिमाचल के साथ

दिहि : मानव जीवन के संघर्ष से भिन्न क्यों ठहराया जाता है स्त्री का दर्द। क्या कोई खास वजह है, जो लेखन की अलग धुरी नारी की कलम को घुमा देती है?

चंद्ररेखा :  यद्यपि संवेदना के स्तर पर जीवन का दुख-संघर्ष एक है, परंतु स्त्री से समाज की अपेक्षाएं कुछ अलग हैं। इसलिए तकलीफ के बाद त्रस्त अकेले पड़ जाने पर दोनों को उपलब्ध विकल्प जुदा हैं। पुरुष अपनी मुक्ति के लिए जो विधान रच सकता है, स्त्री के संदर्भ में वह मान्य नहीं है…। स्त्री जो झेलती है, उसे वही बेहतर समझ सकती है। …चप्पू जानता है कि दरिया कितना गहरा है।

दिहि :  आपके लिए कविता कब सपनों को कुरेद कर यथार्थ की लकीर बन जाती है या अपने ही रहस्य से बाहर और जिल्द के भीतर कोई किताब बन जाती है?

चंद्ररेखा : स्थितियां जब सहज नहीं रह जातीं। बेचैनी बढ़ती है तो अवचेतन में छाया सा डोलता अव्यक्त सरोकार बोध, यथार्थ की जमीन तलाशते हुए शब्दों और अंततः रचना में परिणत होता है।

दिहि : अमूमन लेखन का नारी केंद्रित होना, किसी विधा का पर्दे से हटने जैसा क्यों हो जाता है या जमाने को दिखाने-समझाने का चरित्र केवल बुलंद हसरतों के आईने खड़े करना चाहता है?

चंद्ररेखा : नारी केंद्रित रचना, कविता हो या कहानी, अलग तरह से संबोधित होती है। इसमें स्वयं को साबित कर पाने का ईमानदार संघर्ष है या जोड़-तोड़ वाली कवायद, इसका फैसला पाठक कर देते हैं।

दिहि : लेखन को हम विभाजित शाखाओं की वजह से ही अलग पहचान दिला सकते हैं या हर तरह की अनुभूति से निकले शब्द की दरगाह एक सरीखी होती है। क्या कहीं अलग जगह बनाने की जिद भी शब्दों का आशियाना बना रही है?

चंद्ररेखा : विचारों की ही तरह लेखकीय संवेदनाएं भी सार्वभौमिक हैं। वे दलित, वंचित या स्त्री समूह के लिए अलग रूपाकार नहीं उकेरतीं। आप के शब्दों में, सृजनात्मक शब्द की दरगाह एक ही है, परंतु जीवन, स्थान या काल सापेक्ष नहीं, स्त्री या वंचित साक्षेप भी है। … तो भुक्तभोगी का निज, लेखन को भिन्न दिशा देते हुए अलग पहचान के सूत्र भी थमाता ही है…।

दिहि :  आपके लिए साहित्यिक पीड़ा का आंचल कब भीग जाता है या संवेदना के समुद्र में कब अभिव्यक्ति तैर जाती है?

चंद्ररेखा : जब सामान्य आदमी की मूलभूत जरूरतों पर, व्यक्ति, विचारधारा, धर्म या देवत्व को वरीयता दी जाती है और उस पीडि़त के साथ स्वयं को उसी की तरह लाचार पाती हूं तो मन आंदोलित होता है और छलक जाता है शब्दों में…।

दिहि :  सामाजिक लकीरों के बाहर अभिव्यक्ति की सादगी संपूर्ण हो सकती है या यह महिला दृष्टि ही है, जो सांसारिक रथ के घोड़ों के घाव पहचान पाती है?

चंद्ररेखा : आधुनिक बोध, भाषा पर सहज पकड़ और बुद्ध होने को लालायित हृदय यदि हो तो लेखन संपूर्ण होता है। यह गुणवत्ता लेखक मात्र की जरूरत है, परंतु सच यह भी है कि दिगदिगंतों तक पहुंचने की चाह के चाबुक सहते, सरपट भागते घोड़ों के पैरों के घाव स्त्री के दृष्टिपथ में ज्यादा आते हैं।

दिहि :  ऐसे में यह समझा जाए कि साहित्य का अधूरापन केवल महिला लेखिकाएं ही पूरा कर रही हैं या साहित्य को संबल देने से नारी लेखन की भूमिका का विस्तार हो रहा है?

चंद्ररेखा : मैं स्वीकार करना चाहूंगी कि विविध विषयों पर निर्बाध न लिखते हुए स्त्री लेखन, भावनात्मक खालीपन पर स्निग्ध हथेली रख पा रहा है। जीवन के एकाकी पथ का संगी-साथी हो रहा है। इन्हीं अपेक्षाओं पर खरा उतर रहा पुरुष लेखन भी सराहनीय है।

दिहि :  कहीं महिला लेखन अपनी सीमा का बंधक होकर, सामाजिक परिस्थितियों के अनेक आईनों को तो नहीं तोड़ रहा? कहीं स्व के निरीक्षण में, मानव इतिहास अपने पन्नों को आश्रय तो नहीं खोज रहा?

चंदरेखा : तुम मत सोचो, वे सोच रहे हैं निरंतर तुम्हारे लिए, के सूक्ति वाक्य को घुट्टी में पिलाते हुए, इसी सोचे हुए को क्रियान्वित करना उसकी नियति प्रचारित करके, सोने-चांदी के पिंजरे में उसे प्रतिष्ठित कर दिया जाता रहा है। स्वयं को समेटते हुए छिलते-कटते जाने की आदत बना ली स्त्री ने भी, परंतु इस भ्रमजाल को काटकर, इतिहास से इतर एक नया आज, समाज को दिखा पा रही है वह अब…।

दिहि :  परिवेश के साहित्यिक गठबंधन में उम्मीदों के सागर को मापना आसान नहीं, तो अकेले डूबने की नौबत में कवि होना कितने गहरे को पाना है?

चंद्ररेखा : सृजन एक ऐसा क्षेत्र है, जहां रचनाकार पूरी ईमानदारी से, नितांत अपने साथ होने की कोशिश में होता है। संपे्रषण व समर्थन की संभावना यदि रहती है तो विस्मृति के अंधेरे में गुम हो जाने का अंदेशा भी रहता ही है। गुट, विचारधारा या सत्ता विशेष के अनुरूप स्वयं को ढाल कर संज्ञान पा लेने से यह विस्मृति, लेकिन कम घातक है। … शब्द मरते नहीं, वर्तमान नहीं तो भविष्य उनके लिए निश्चित रूप से है।

दिहि :  औरत को समझने की जरूरत क्या किसी नकाब की तरह है या खामोश मूर्ति के भीतर समाए अनुपात की तरह है? क्या शब्द कभी तराश पाए, वक्त का घूंघट रोक पाया या स्त्री विमर्श की दबंगता को स्वीकार करने का सफर मुकम्मल होने लगा है?

चंद्ररेखा : दोनों ही चीजों की जरूरत है। स्त्री अपने चेहरे पर एक नकाब नहीं, पल-पल सामंजस्य बिठाने की चेष्टा में कई-कई चेहरे ओढ़ती है। अपने को झुठलाती, पत्थर की निशब्द मूर्ति हो जाती है। कभी-कभी इस निशब्दता का अनुपात शत-प्रतिशत भी हो जाता है। आवरण और मौन को भेदकर उसे जान लेने की आवश्यकता है…। स्त्री विमर्श ने मनोनीत यात्रा पथ का आकार प्रकार सुझाया है।

दिहि :  रोजमर्रा से इतर साहित्य की तलाश में मंजिलों पर खड़े दोराहे और राहों पर बिखरे सहारे से हट कर अभिव्यक्ति की मौलिकता छिन्न-भिन्न सी क्यों हो रही है?

चंद्ररेखा : साहित्य सृजन का स्रोत, पैरों तले की वह जमीन है जो ऊंचाइयों की परिकल्पना और हौसलों का आधार बनती है। जिससे विछिन्न होते ही रचनाकार अपने स्व से कट जाता है, जबकि स्व का विस्तार ही साहित्य है।

दिहि :  निजी अनुभवों के सायों से हटकर, कविता के जरिए विमर्श की गुंजाइश को कैसे देखती हैं?

चंद्ररेखा : व्यक्तिगत अनुभव सीमित होते हैं। इनसे मिली समझ के साथ, कविता की दीर्घ परंपरा में निहित मूल्यों से जीवन दृष्टि पा लेना जरूरी समझती हूं।

दिहि :  साहित्यिक किरणों के बीच जीवन के ग्रहण से आपकी अभिव्यक्ति का आंदोलन कहां से शुरू होता है?

चंद्ररेखा : मैं उस मानसिकता में पहुंच रही हूं, जहां अनिवार्य दिनचर्या के बाद, कुछ पढ़ लेना, लिख लेना या किसी कविता-कहानी का प्रारंभिक प्रारूप सुधार लेना, ऐसी खुशी दे जाता है कि कोई सूखी ऋतु मेरी हरयावल को झुलसा नहीं पाती। कोई इच्छा/आंकाक्षा चाबुक सी, पीठ पर नहीं गढ़ती।

दिहि :  जीवन के नैपथ्य से झांकते मरुस्थल को महसूस करने या मंचीय मृगतृष्णा को छूती संवेदना में शब्दों का रक्तरंजित होना स्वाभाविक हो चला है?

चंद्ररेखा : साहित्यिक आलोक में जीवन को पा लेने की कोशिश में आज भी हूं। महाविद्यालय के दिनों से क्रिया की प्रतिक्रिया में मुखर होती चेतना ने लेखन से जोड़ा। जो आज मेरा सहज धर्म है…। अंत में, असल में अपने निकट के अति सामान्य अनुभवों से सीख लेती है स्त्री… और उतने ही पारदर्शी व सरल बिंबों में अपनी बात कह देती है -‘थाली परोसती औरत/खीसे में परमेश्वर रखती है।’ और यह भी-‘जलते तवे पर पानी छिड़क देती है/रोटियां सेंकती औरत/जीने का हुनर सीख लेती है’…

* कुल पुस्तकें :      चार

* शोध गंरथ  :  एक

* कुल पुरस्कार : 11

* साहित्य सेवा : करीब 35 साल

* विशिष्ट रुचि : कविता व कहानी लेखन


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