कैसे समाप्त हो राज्य के बोर्डों व निगमों का घाटा

By: Apr 21st, 2018 12:05 am

गुरुदत्त शर्मा

लेखक, शिमला से हैं

प्रदेश में 11 निगम व बोर्ड  घाटे में चल रहे हैं। इन बोर्डों व निगमों के विनिवेश व निजीकरण की प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए और उससे प्राप्त धन राशि का उपयोग सामाजिक क्षेत्र की जरूरतों की पूर्ति, सार्वजनिक क्षेत्र के पुनरुत्थान एवं सार्वजनिक ऋण के भुगतान के लिए किया जाना चाहिए…

हिमाचल प्रदेश में तीन दर्जन निगम व बोर्ड है। उनमें से आधा दर्जन से अधिक प्रदेश के अधिनियमों के तहत और शेष केंद्रीय अधिनियम के तहत गठित किए गए हैं। इनमें से प्रदेश में 11 निगम व बोर्ड  घाटे में चल रहे हैं। ये बोर्ड व निगम लगातार नकारात्मक लाभ अर्जित कर रहे हैं, जो कि प्रदेश सरकार के लिए चिंता का विषय है। हानि पर चल रहे निगमों एवं बोर्डों की मुख्य समस्याएं हैं-संसाधनों की कमी, ऋण का भारी बोझ, वित्तीय संस्थाओं से ऋण न मिलना, पुरानी तकनीक, कार्य का सही बटवारा न करना, निम्न क्षमता उपयोग व एक श्रमबहुल तकनीक का उपयोग करना आदि। इन बोर्ड व निगमों का घाटा कैसे कम किया जाए और कैसे घाटे को लाभ में बदला जाए, यह प्रदेश सरकार की इच्छा शक्ति व निदेशक मंडल की व्यावसायिक सोच पर निर्भर करता है। परंतु बोर्ड या निगम का घाटा कहां से प्रारंभ हुआ और अंधाधुंध निगम व बोर्ड क्यों खोले गए? जो आम आदमी की जेब के बजट से चल रहे हैं, उन्हें सरकार कब तक ढोती रहेगी। 90 के दशक में पूर्व सोवियत संघ का पतन, चीन द्वारा ताइवानी आर्थिक माडल की मौन स्वीकृति, पूर्वी यूरोप के देशों में हुए परिवर्तन आदि घटनाओं के संचयी प्रभाव के परिणामस्वरूप सरकार अपनी आर्थिक नीतियों के पुनर्गठन को मजबूर हुई और 1991 को घोषित नई आर्थिक नीति में केंद्र सरकार ने तो कड़ा रुख अख्तियार किया, परंतु राज्य सरकारों को अभी इस बारे में सख्ती करना बाकी है।

निरंतर रुग्णता की ओर अग्रसर सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रमों के संबंध में एक नई एवं निश्चित नीति प्रदेश सरकार को प्रतिपादित करनी चाहिए, जिसमें ऐसे बोर्ड या निगमों का पुनर्गठन किया जाए, जो आर्थिक रूप से स्वायत्त हो सकने की क्षमता रखते हैं। उन बोर्डों व निगमों को बंद कर देना चाहिए, जिनका पुनर्वास संभव न हो। भविष्य में गैर जरूरी समझे जाने वाले उपक्रमों में सरकारी निवेश कम किया जाए, कर्मचारियों के हितों की पूर्ण सुरक्षा की जाए तथा बोर्ड और निगमों के निदेशक मंडलों का व्यवसायीकरण करके उन्हें अधिक उत्तरदायी बनाना, हस्ताक्षरित ज्ञापनों के जरिए (एमओयू), उनके कार्य की समय-समय पर समीक्षा करना। इसके अलावा सरकारी उपक्रमों में तकनीकी सुधार व प्रशासनिक खर्चों को कम करना। राजनीतिक व सरकारी हस्तक्षेप इन सरकारी उपक्रमों में कम से कम हो तथा साथ ही उनके स्वायत्तता एवं उत्तरदायित्व के बीच संतुलन बना रहे।

इन बोर्डों व निगमों के विनिवेश व निजीकरण की प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए और उससे प्राप्त धन राशि का उपयोग सामाजिक क्षेत्र की जरूरतों की पूर्ति, सार्वजनिक क्षेत्र के पुनरुत्थान एवं सार्वजनिक ऋण के भुगतान के लिए किया जाना चाहिए। एक ही कार्य में लगे दो निगमों का आपस में विलय होना चाहिए। प्रदेश के सरकारी उपक्रमों में 11 घाटे में चल रहे सफेद हाथी साबित हो रहे हैं। हिमुडा, एचपीएमसी, हैंडलूम-हैंडीक्राफ्ट कारपोरेशन, खादी व ग्रामोद्योग बोर्ड, इलेक्ट्रानिक्स निगम व महिला विकास निगम सोलन इनमें शामिल हैं। इसके अलावा अन्य निगम व बोर्ड प्रमुख हैं, जो घाटे पर चल रहे हैं। हिमाचल प्रदेश राज्य विद्युत परिषद, हिमाचल प्रदेश पथ परिवहन निगम, हिमाचल प्रदेश उद्यान उपज विपणन तथा विधयन निगम, हिमाचल राज्य वन विकास निगम, हिमाचल प्रदेश राज्य सहकारी दुग्ध उत्पादन प्रसंघ तथा हिमाचल प्रदेश कृषि उद्योग निगम भी इनमें शामिल हैं। इनमें से एचपीएमसी का घाटा 83 करोड़ है। प्रदेश के आर्थिक विकास में सबसे बड़ी चिंता का विषय प्रदेश के ज्यादातर सार्वजनिक उपक्रम का घाटे में चलना है, जिसमें 36 बोर्ड-निगम शामिल हैं। पिछले कई वर्षों से ऐसे बोर्ड / निगमों के विलय की कवायदें चलती रही हैं। बावजूद इसके सिविल सप्लाई निगम को छोड़ दें, तो अन्य सभी निगम / बोर्ड घाटे व मुनाफे का खेल खेल रहे हैं। अच्छा होगा यदि लगातार घाटे में चल रहे निगमों को सदा के लिए पैक किया जाए और स्टाफ को कहीं और समायोजित करके करोड़ों के घाटे को दूर करने का पहला कदम उठाया जाए।

हिमाचल में न तो इन बोर्ड-निगमों की खरीद-फरोख्त व फिजूलखर्ची पर लगाम लगती है और बार-बार अफसरों के तबादले घाटे का प्रमुख कारण बनता है। दूसरे वर्क-कल्चर के अभाव में भी ये लगातार पिछड़ते जा रह हैं। घाटे में चल रहे निगम-बोर्ड के आर्थिक स्वास्थ्य को कैसे ठीक किया जाए? इसके लिए यह भी जरूरी हो सकता है कि किसी अधिकारी के समय में निगम / बोर्ड को कितना घाटा हुआ, यह भी सूचनापट्ट पर अंकित किया जाए, जिससे यह ज्ञात हो कि उक्त अधिकारी की कितनी योग्यता है। घाटे के निगमों व बोर्डों को प्रदेश सरकार कब तक चलाए, यह एक अहम प्रश्न है। हमें यह भी भली-भांति समझना होगा कि बजट का पैसा आम जनता की जेब से आता है। आज के युग में सबसे अच्छी सरकार वही है, जिसका कम से कम राजनीतिक दखल हो। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि क्यों निजी होटल मालिक व बस आपरेटर प्रति वर्ष लाभ कमा रहे हैं और निगम घाटे पर चल रहे हैं? घाटे में चल रहे इन बोर्डों व निगमों को सुधारने की सख्त जरूरत है। यदि इन निगमों को चलाए रखना है और इनमें लगे कर्मचारियों का रोजगार बरकरार रखना है, तो विनिवेश ही एक मात्रा रास्ता है। घाटे में चल रहे इन उपक्रमों में राजनीति को उच्च पद पर बिठा कर इनका घाटा समाप्त होगा, ऐसा लगता नहीं है। इसलिए प्रदेश के व्यापक हित में तो यही ठीक रहेगा कि केंद्र सरकार की तरह राज्य सरकार भी इनका निजीकरण कर दे।

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