जिंदगी की जंग का दस्तावेज

By: Apr 22nd, 2018 12:04 am

पुस्तक समीक्षा

* लघु उपन्यास का नाम : मौन से संवाद

* लेखक का नाम : राजेंद्र राजन

* मूल्य : 120 रुपए

* प्रकाशक : बौद्धि प्रकाशन, जयपुर

‘मौन से संवाद’ राजेंद्र राजन जी का दूसरा उपन्यास है। पहला सेलिब्रेशन भी पाठकों द्वारा बहुत पसंद किया गया था। शरद और शम्पा मुंबई से हिमाचल प्रदेश की पांगी वैली की खूबसूरत प्राकृतिक संपदा को कैमरे में कैद करने के लिए निकलते हैं। शरद प्रोडक्शन वृत्त चित्र निर्माण की संस्था है। शरद ही इस संस्था का सर्वेसर्वा है। शम्पा एक निहायत खूबसूरत एंकर होने के साथ-साथ एक संवेदनशील महिला है। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। हिमाचल प्रदेश के चंबा शहर में इन दोनों की मुलाकात ट्रांसपोर्ट महकमे के रोड इंसपेक्टर चमन से होती है। पांगी घाटी जाने में दोनों की उत्सुकता को देखकर चमन इनके साथ किलाड़ जाने के लिए राजी हो जाते हैं। चंबा से किलाड़ जाते हुए बीच में कई पड़ावों की विशेषता और समस्याओं की चर्चा करते हुए वे किलाड़ पहुंच जाते हैं।

पांगी घाटी प्रदेश का वह हिस्सा है जहां साल में आठ महीने इसका बाहरी दुनिया से संपर्क टूट जाता है। पारा शून्य से दस डिग्री कम ही रहता है। आवागमन के सभी रास्ते अवरुद्ध हो जाते हैं। केवल हेलिकाप्टर से ही एकमात्र आस है, वह भी मौसम साफ होने पर। शरद-शम्पा को किलाड़ के डाक बंगले में शरण मिलती है। घाटी की सुंदरता के अनेक दृश्यों को शरद ने शूट किया है। जी उकता गया है। वापस जाने का कोई जुगाड़ बन नहीं रहा, इसलिए काफी उदास हैं।

हेलिकाप्टर सर्विस कई दिनों से बंद है। अत्यधिक बर्फबारी और बादलों के कारण मौसम साफ नहीं है। जब भी मौसम साफ होता है, बीमारी और अत्यंत जरूरी कारणों से पात्र लोगों को प्राथमिकता दी जाती है। इस कारण शरद-शम्पा को हफ्तों वहीं रुकना पड़ सकता है। डाक बंगले का चौकीदार चंदू इनकी सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहता है। वहां के कर्मचारी इस जनपद में पोस्टिंग को कालापानी की सजा ही समझते हैं। इनकी सरकारी ड्यूटी केवल डेढ़-दो साल की होती है, लेकिन ट्रांसफर होने के बावजूद यदि इनका स्थान ग्रहण करने कोई न पहुंचे तो इनको वहीं टिके रहना पड़ता है। नए बाबू तिकड़म लगाकर या राजनीतिक दबाव से अपना तबादला रुकवा लेते हैं। यह समस्या स्थानीय कर्मचारियों को डिप्रेशन का शिकार बना देती है। शरद और शम्पा लिव इन रिलेशन में रहते हैं और जल्द ही विधिपूर्वक विवाह में बंधने वाले हैं। लेकिन दोनों की प्रकृति में असमानता भी है। शरद हर फ्रेम, हर रपट में कमर्शियल एंगल तलाश करता रहता है। लेकिन शम्पा एक क्रिएटिव राइटर है। इसने बर्फ के दरम्यान शिराओं में खून जमा देने वाली नुकीली हवाओं के बीच घाटी में खूबसूरत शब्दों और अपनी जादुई आवाज से बर्फबारी का स्वागत किया-‘किस प्रकार यह स्नोफाल घाटी के बाशिंदों की जिंदगी में तरक्की, खुशहाली और समृद्धि लेकर आता है।’ जड़ी-बूटियों के लिए कुदरत का नायाब तोहफा है यह बर्फबारी। शम्पा एक संवेदनशील राइटर है। वह चौकीदार चंदू के किरदार में ऐसा रंग भरना चाहती है कि दर्शकों को उसमें अभिरुचि जागृत हो और वे उसके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने के लिए उत्सुक हो जाएं। शम्पा बर्फबारी को कविता का रूप ही समझती है। कई बार शम्पा ऊहापोह की स्थिति में पहुंच जाती है-वह सोचती है ‘‘अगर वह परिणय सूत्र में बंध गई तो उस शरद को ताउम्र झेलना पड़ेगा। क्या वह उसके व्यक्तित्व से सामंजस्य बिठा पाएगी? यह कैसा फिल्म मेकर है जो हर चीज को बाजार की दृष्टि से देखने-परखने का आदी है? वो फिल्म ही क्या जिसमें यहां के बाशिंदों की तकलीफ बयां न हो।’’  पहाड़  और पीड़ा सगे भाई-बहन हैं। तरक्की और कुदरत का क्रूर रिश्ता। तीसा में फूलों की खेती एक नई आशा लेकर आती है। शायद यह कुछ हद तक पहाड़ की पीड़ा को मरहम लगाए। पहाड़ की सुंदरता देख लेखक विभोर हो जाता है -‘‘यह स्थल सचमुच कितना मनमोहक है।

अछूता सा। क्या इसी को वर्जिन ब्यूटी कहते हैं। धुंध के वृहदाकार छल्ले घूंघट का रूप धारण कर गोशे-गोशे को अपने आगोश में लपेटे हुए। ऐसे नयनाभिराम दृश्यों पर कौन फिदा न होगा।’’ लेखक ने पहाड़ी मौसम और वातावरण का ऐसा मनोहारी दृश्य प्रस्तुत किया है जो हरेक को आकर्षित करेगा। ‘मौन से संवाद’ इतना असाधारण उपन्यास है कि इसकी सीधी सी कथा भी अनोखी बनती जाती है। यह कृति हमारे समांतर श्वास ले रहे इसी जीवंत संसार की विश्वसनीयता के स्तर पर चलने वाली कहानी है। लेखक जिस निष्कर्ष पर पाठकों को ले जाता है, उसमें उसकी समझ और उसका अनुभव परिलक्षित होता है। पहाड़ी कष्टों को लेखक ने बहुत बारीकी से उकेरा है। इस उपन्यास के गौण चरित्र जैसे दोरजे-नरमू वगैरह भी कथानक में अपने मोड़ पर मजबूत उपस्थिति दर्ज करते हैं। ‘प्रजा’ सिस्टम भी अपने आप में विलक्षण दृश्य है। शम्पा के अनुसार प्रजा एक तुगलकी फरमान है। इसमें एक बात महत्त्वपूर्ण है कि बिरादरी से निकाले जाना पहाड़ी लोग बहुत बड़ा दंड समझते हैं।

इससे भयभीत भी रहते हैं। पूरे उपन्यास को पढ़ने से स्पष्ट है कि लेखक ने इसकी सामग्री जुटाने में पर्याप्त शोध किया है। ‘मौन से संवाद’ एक कृति के रूप में अपनी छाप यूं भी छोड़ती है कि पहाड़ की सामाजिक समस्याएं अभी तक पारंपरिक रूप से कोई खास बदल नहीं पाई हैं। भाषा रोचक और कथ्य के अनुकूल और सहज बनी हुई है। ‘प्रजा’ के अध्यक्ष के रूप में नंदू का किरदार बेतुका लगा। यदि अपने कथन में वह आंचलिक भाषा का प्रयोग करता तो अधिक प्रामाणिक लगता।

चमन ऐसा पात्र है जो पहाड़ी कष्टों को झेलता हुआ भी रिटायरमेंट तक वहीं रुकना पसंद करता है। शरद-शम्पा से भी उसका आत्मीय संबंध बन जाता है। ठंड से भिड़ते हुए कोयले की गैस से उसकी मृत्यु न केवल शम्पा और शरद को भीतर तक दहला जाती है, बल्कि अन्य कर्मचारी भी शोक में डूब जाते हैं। इस सुरुचिपूर्ण उपन्यास को इसकी रोचकता की वजह से पाठक एक बार पढ़ना शुरू करता है तो समाप्त करके ही सांस लेता है। यही इसकी खूबी है।

 -बी.डी. बजाज

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