दिशाओं में उलझते हम

By: Apr 22nd, 2018 12:04 am

किसी दिलासा की आस हो या किसी कथित आदर्श को पकड़े रखने का मंतव्य, दोनों दशाओं में दिशा का ज्ञान सीमित होकर रहेगा। इच्छा हो या अनिच्छुक होने का एहसास, दोनों बंधन हैं। सामाजिक सोद्देश्यता हो या धर्म की कथित पगडंडी, दोनों का पथ हमें उथले कुएं की ओर ले जाएगा। आग जंगल में लगे या कि चूल्हे में, जले और जलाए बिना संभव नहीं। बाड़ के बीच बने रहने की सुरक्षा होगी, लेकिन जिंदगी का विराट वट दृश्यमान नहीं होगा। चांद पर हजारों गीत रच डालें, यह आप की बगल में आकर मुस्कराने वाला नहीं। शब्दों की डोर से जीवन की विलक्षण अनंतता का इंद्रधनुष कभी क्षितिज में नहीं उभरता। आप जब तक भीतर की एकांतता के दर्शन नहीं कर लेते, तब तक बाहर का हर रिश्ता अबूझ पहेली बना रहेगा।

आजादी का मंत्र फिजूल है, यदि हमने अपने तंत्र को समझने का कोई प्रयास नहीं किया। खुशी के पीछे भागने से यह हमारा पीछा छोड़ देती है। मात्र समयबद्धता को अनुशासन मान लेने से वक्त अकसर हमें चिकौटी भर कर पूछ लिया करता है, कहो भाई! जीवन के विस्तार को जो भी नापने निकला, वह तब तक असफल हुआ जब तक उसने भीतर के विन्यास को खंगाला नहीं। मील के पत्थर कोई यात्रा नहीं करते, लेकिन यात्री की यात्रा को सुगम बनाने में मूर्तिवत खड़े रहते हैं। घर से भाग कर कोई संन्यासी हुआ भी है तो उसने यही कहा कि दुनिया से मत भागो।भाषाविदों और वैयाकरणों से तत्त्व ज्ञान की अपेक्षा करना हमारी मूर्खता कहलाएगी। जो अभी अपनी अहमन्यता के पाश से मुक्त नहीं, उससे अहिंसा की उम्मीद व्यर्थ है। भलाई और सेवा करने की बात करने वाला कभी सेवाभावी सिद्ध नहीं होगा। संगीत की स्वर लहरियां हमें लुभा रही हैं तो जान लीजिए कि अनहद नाद के लिए यात्रा की शुरुआत अभी नहीं हुई।

स्तब्ध होने और बद्ध होने के बैलों पर सवार होकर कोई शिवत्व तक नहीं पहुंचा। मन की आंतरिक बांसुरी को बजाए बिना कोई बनवारी नहीं हुआ। अभी तो हम नेताओं के मकड़जाल में आबद्ध हैं, मन के पार जाने की उम्मीद कैसे हो सकती है, जो कथित मन की बातें कर रहे हैं, वे अभी तन की तंग गलियों से बाहर नहीं आए। अभी तो तन से बघेरे मन के अंधेरे को फैलाने में जुटे हैं।

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