‘नकदबंदी’ के सूत्रधार कौन?

By: Apr 19th, 2018 12:05 am

दिल्ली समेत 11 राज्यों के बैंकों और एटीएम में नकदी की किल्लत है। अप्रैल के पहले 13 दिनों में ही करीब 45,000 करोड़ रुपए की निकासी हुई, जबकि औसतन मांग 8.45 हजार करोड़ रुपए की होती रही है। संकट वाले राज्यों में आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल को छोड़ कर शेष सभी राज्य भाजपा-एनडीए शासित हैं। दिल्ली-एनसीआर तक खबरें अभी पहुंची हैं, जब संकट गहरा गया है और लोग हाहाकार की स्थिति में आ गए हैं। बिल्कुल नोटबंदी के बाद वाले हालात दिखने लगे हैं। एटीएम के बाहर लंबी कतारें लगनी शुरू हो गई हैं, लेकिन एटीएम में नकदी नहीं है। पैसा कब आएगा, इसकी भी पुख्ता जानकारी नहीं है। भाजपा का एक तबका विपक्ष, खासकर कांग्रेस, की साजिश बता रहा है और विपक्ष मान रहा है कि देश में वित्तीय आपातकाल आ गया है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का मानना है कि मोदी सरकार ने बैंकिंग सिस्टम को ही बर्बाद कर दिया है। ऐसी अधकचरी राजनीति से हमारा कोई सरोकार नहीं है। यदि बीते एक अरसे से ‘नकदबंदी’ के हालात हैं, तो बेशक जिम्मेदारी भारतीय रिजर्व बैंक की है और बैंक मोदी सरकार के अधीन ही कार्य करता है। स्वायत्तता की बातें कोरी किताबी हैं। नोटों की छपाई और बैंकों तक उनका आवंटन तय करना रिजर्व बैंक का ही दायित्व है। यदि आज पांच गुना नोट छापने पड़ रहे हैं, तो पहले ही एहतियात बरता जा सकता था। यदि वित्त मंत्री अरुण जेटली के मुताबिक, नकदी की मांग अचानक बढ़ गई, अलबत्ता बाजार और बैंकों में पर्याप्त नकदी है। अचानक और अप्रत्याशित नकदी की मांग जनवरी से ही बढ़ने लगी थी। यदि संकेत ऐसे थे, तो रिजर्व बैंक को उसी के मुताबिक नोटों की आपूर्ति करनी चाहिए थी। यदि मौजूदा नकदी करीब 1.25 लाख करोड़ रुपए है, तो फिर राज्यों में संकट पैदा क्यों हुए? यदि घबराने की जरूरत नहीं है, तो फिर राजनीतिक स्तर पर ‘साजिश’ के आरोप क्यों लगाए जा रहे हैं? यदि इस मौसम में मांग 20,000 करोड़ से बढ़कर 45,000 करोड़ रुपए तक हुई है, तो इसकी आपूर्ति और जांच की जिम्मेदारी किसकी है? यदि वित्त मंत्रालय को इस बढ़ी मांग पर कोई संदेह है, तो फिर जांच कराने या कार्रवाई करने से किसने रोका है? लब्बोलुआब यह है कि मोदी सरकार ‘नकदबंदी’ के बहाने नहीं ढूंढ सकती। त्योहार, विवाह, चुनाव, फसल-भुगतान के मौसम तो हर समय ही रहते हैं। यह एक निरंतर प्रक्रिया है। इनके कारण ‘नकदबंदी’ तार्किक और संभव नहीं लगती। जमाखोरी की परंपरा हमारे बाजार में रही है, धन को लेकर भी है। केंद्र और राज्य सरकारें ‘निश्चित जमाखोरों’ को चिन्हित किए होती हैं। उनके आवास और कार्यस्थलों पर सरकारी एजेंसियों के छापे क्यों नहीं मारे गए। दरअसल अब हमारी अर्थव्यवस्था और विकास-दर विश्वस्तरीय है। ऐसा ‘सूखापन’ हमें लज्जित करता है। रिजर्व बैंक के मुताबिक 6 अप्रैल को 18.2 लाख करोड़ रुपए की मुद्रा चलन में थी। वित्त राज्य मंत्री एसपी शुक्ला के मुताबिक 1,25,000 करोड़ रुपए की नकदी मौजूद है। 500 और 2000 के नोटों का कुल मूल्य 15,787 अरब रुपए है। नोटबंदी के बाद 2000 के नोट 5 लाख करोड़ रुपए मूल्य के जारी किए गए थे। सवाल है कि मई, 2017 के बाद 2000 के नोट छापने बंद क्यों किए गए? और अब शिफ्टों में प्रेस को चला कर नोट छापने पड़ रहे हैं। बेशक संकट तो है, क्योंकि करेंसी चेस्ट में 300 करोड़ की जगह 100 करोड़ की राशि आ रही है। बैंकों को 60 फीसदी कम राशि देने के कारण क्या हैं? बेशक कारण कुछ भी हों, उन्होंने अटकलों को जन्म दिया है। लिहाजा अटकलें ये भी हैं कि कर्नाटक और उसके बाद दो राज्यों में विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो गई हैं। उनके मद्देनजर नकदी को बाजार से किनारे कर लिया गया हो, लेकिन संकट उन राज्यों में भी हैं, जहां निकट भविष्य में कोई चुनाव नहीं होने हैं। संकट का सबसे ज्यादा प्रभाव दक्षिण के राज्यों में दिख रहा है। यह भी संभव है कि मौजूदा नकदबंदी किसी बैंकिंग कुप्रबंधन का नतीजा हो! प्रधानमंत्री मोदी जितना भी प्रचार कर लें या अपनी इच्छा को बयां कर लें, लेकिन निचले स्तर पर, छोटे दुकानदारों के लिए, मजदूरों-किसानों-रिक्शावालों के लिए और अनौपचारिक क्षेत्र के लिए नकदी ही उनकी अर्थव्यवस्था है, लिहाजा भारत अभी अमरीका और यूरोप नहीं हो सकता। बहरहाल सरकार, रिजर्व बैंक और मंत्रालय के अफसरों ने यकीन दिलाया है कि अधिकतम एक सप्ताह में यह संकट समाप्त हो जाएगा। देखते हैं….!


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