रिपोर्टिंग में गंभीरता का खत्म होना चिंताजनक

By: Apr 8th, 2018 12:05 am

आज के वैश्विक गांव या अत्याधुनिक युग में सूचनाओं तथा समाचारों का प्रवाह बहुत तेज गति से हो रहा है। तमाम खबरों से निरंतर अपडेट रहने को ही आज जागरूकता की कसौटी माना जाता है। ये खबरें एक-दूसरे तक मौखिक रूप, रेडियो, टीवी, समाचार पत्रों, इंटरनेट और अब तो फेसबुक या व्हाट्सएप आदि सोशल मीडिया से मिलती हैं। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछले कुछ अरसे से विभिन्न संचार माध्यमों से प्रकाशित और प्रसारित होने वाली खबरों में तथ्यपरकता कम तथा दृष्टिकोणपरकता में अधिक बढ़ोतरी हो रही है। इसका सबसे बड़ा कारण गंभीर रिपोर्टिंग का उत्तरोत्तर कम होते जाना है।

ऐसी गैर जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग से जनता तक सच्चाई के स्थान पर सनसनी ही पहुंच रही है। करीब नौ माह पहले कोटखाई के पुलिस थाने में पुलिस हिरासत के दौरान चर्चित छात्रा रेप एवं हत्याकांड के कथित आरोपी की मृत्यु हुई। हिरासत में हुई मौत की जांच के दौरान केंद्रीय जांच एजेंसी ने कुछ पुलिस अधिकारियों तथा कर्मचारियों को गिरफ्तार किया था। चूंकि केस की जांच अभी जारी थी, इसलिए गिरफ्तार पुलिस कर्मियों की न्यायिक हिरासत प्रत्येक चौदह दिन के पश्चात बढ़ाई जाती रही। इस तरह न्यायिक अभिरक्षा को एक नियमित अंतराल पर बढ़ाया जाना एक सामान्य कानूनी प्रक्रिया है, लेकिन एक अंतराल पर हिरासत बढ़ाए जाने पर एक हिंदी दैनिक की खबर का शीर्षक था-‘गिरफ्तार पुलिसवालों की जेल में ही मनेगी दिवाली’। इसी तरह आकाशवाणी पर प्रसारित होने वाले प्रादेशिक समाचारों में भी एक बार मुख्य समाचार कुछ यूं पढ़े गए-‘कोटखाई छात्रा दुराचार तथा हत्या मामले में हिरासत में चल रहे पुलिसवालों की न्यायिक हिरासत बढ़ी’। गौरतलब है कि पुलिसकर्मी इस  दुराचार तथा हत्या मामले में गिरफ्तार नहीं  हैं, बल्कि एक कथित आरोपी की पुलिस हिरासत में हुई मृत्यु के मामले में गिरफ्तार हैं और ये दोनों मामले एक-दूसरे से भिन्न हैं। इसी तरह जब कस्टोडियल डेथ केस में अभियुक्त बनाए गए आईजी की जमानत याचिका को न्यायालय ने अस्वीकार किया तो एक हिंदी दैनिक की खबर का शीर्षक था-‘बेल रिजेक्ट होने पर आईजी हुए हताश, बाकी पुलिस वालों की भी टूटी आस’।

ऐसा तभी लिखा जा सकता था अगर संबंधित पत्रकार स्वयं जेल जाकर सभी पुलिस अधिकारियों-कर्मचारियों से उनकी प्रतिक्रिया लेकर आया होता, जो नियमानुसार संभव नहीं था। यहां प्रश्न उठता है कि अच्छे साहित्य तथा पत्रकारिता का उद्देश्य पाठकों की रुचियों का परिष्कार कर, उन्हें उच्चतर उदात्त जीवन-मूल्यों को जीने के लिए प्रेरित करना है या उनके विचारों को दूषित कर उनमें विकार उत्पन्न करके उन्हें किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष के प्रति दुष्प्रेरित कर, सामाजिक शांति भंग करना है। ऐसा भी नहीं हो सकता कि अधिकांश पत्रकार, संवाददाता, ब्लॉगर या लेखक जानबूझ कर किसी सोची-समझी साजिश के तहत यह कर रहे हों। हां अपवाद अवश्य हैं तो इसका कारण है कि एक-दूसरे की देखा-देखी, इस तरह से ऐसी खबरों का लिखा जाना एक प्रचलन सा बनता जा रहा है। नए पत्रकार अपने वरिष्ठों से सीखते और उनकी नकल भी करते हैं। लेकिन इस प्रकार के अंधानुकरण से पत्रकारिता के स्तर का निरंतर गिरना चिंताजनक है। इस तरह की खबरनवीसी उग्र जन प्रदर्शनों को बढ़ावा देती है जिनमें बहुमूल्य सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान होता है। यहां नाबालिग छात्रा के दुराचार तथा हत्या मामले पर चर्चा कर लेना प्रासंगिक होगा। इस केस के बारे में मीडिया तथा सोशल मीडिया में इतनी अधिक कपोल-कल्पित कहानियां और अफवाहें प्रचारित-प्रसारित हुईं कि सुनने-पढ़ने वाले उन्हें ही सच मानने लगे।

अफवाहें थीं कि दोषी प्रभावशाली परिवारों से हैं, उन्हें बचाने के लिए धन का लेन-देन हुआ है, राजनीतिक हस्तक्षेप से उन्हें बचाया जा रहा है, आदि-आदि। एक दैनिक समाचार पत्र ने तो यहां तक लिख दिया कि जिस आरोपी सूरज की कस्टोडियल डेथ हुई है, वह और उसके साथी, धन लेकर, किसी अन्य को बचाने के लिए स्वयं गिरफ्तार हुए हैं। लेकिन गहन अन्वेषण के पश्चात ये सब कल्पनाएं मिथ्या ही साबित हुईं। केस का सुराग देने वाले के लिए दस लाख का ईनाम भी घोषित किया गया, लेकिन कोई सामने नहीं आया। इससे साबित होता है कि इस संबंध में बिना पुष्टि के, जिसके मन में जो आया, वही लिख और कह मारा। इस केस के अन्वेषण के संबंध में कुछ कलमवीरों ने तो इतना विस्तृत विश्लेषण किया, मानो उन्होंने अपनी निजी प्रशिक्षित अन्वेषण एजेंसियां खोल रखी हों। एक पत्रकार तो एक कुत्तिया के पीछे ही पड़े रहे। इस मामले में अभी तक सीबीआई भी कुछ भाड़ नहीं फोड़ पाई है। वह भी तारीख के बाद तारीख मांग रही है। हां, इतनी खबर जरूर है कि शायद कुछ दिनों बाद सीबीआई सही आरोपियों तक पहुंच जाएगी। लेकिन कोटखाई तथा ठियोग की स्थानीय जनता आज भी मानती है कि इस दुराचार तथा हत्या मामले को हल करने के लिए स्थानीय पुलिस ने सीमित समय तथा संसाधनों के बावजूद संवदेनशीलता और परिश्रम के साथ सराहनीय कार्य किया। यहां तक कि जब कुछ असामाजिक तत्त्व मामले को भुनाकर विरोध प्रदर्शन करने लगे, तो इसके अन्वेषण के लिए सीबीआई को बुलाने के लिए हाईकोर्ट जाने वाली भी जिला पुलिस ही थी। इसमें कोई दो राय नहीं कि सीबीआई, हिमाचल पुलिस के मुकाबिल ज्यादा साधन संपन्न और आधुनिक है। सीबीआई के पास वे तमाम आधुनिक तरीके और साधन हैं, जो सही अपराधी तक पहुंचने में मदद कर सकते हैं। लेकिन हर बार भी ऐसा संभव नहीं होता, मिसाल के लिए आरुषि केस। आपराधिक न्याय व्यवस्था का मार्गदर्शक सिद्धांत है कि जब तक आरोप संदेह से परे सिद्ध नहीं हो जाता, तब तक व्यक्ति को निर्दोष ही माना जाता है। लेकिन गिरफ्तार पुलिस कर्मियों के मामले में तो ऐसा लगता है मानो सामान्य जनों के अलावा न्यायपालिका और शासन के कुछ अंग पूर्वाग्रहित हो गए हैं।

ऐसा होने पर निष्पक्ष एवं मुक्त चिंतन और निर्णय की धार कुंद पड़ जाती है। मीडिया और सोशल मीडिया को तमाम तरह के भ्रम तथा पूर्वाग्रह फैलाने से बचते हुए अपनी जिम्मेवारी समझनी होगी। उन्हें ‘कुछ भी सुनकर, हर कुछ छापने’ और ‘कुछ भी रिसीव और फारवर्ड करने’ वाली गैर जिम्मेदाराना प्रवृत्ति से बचना होगा।

—अजय पाराशर क्षेत्रीय निदेशक  सूचना एवं जनसंपर्क क्षेत्रीय कार्यालय, धर्मशाला


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