लिंगतोभद्र चक्र में शिवजी का पूजन

By: Apr 28th, 2018 12:05 am

वैदिक ऋषियों ने देवताओं के महाभाग्य का प्रत्यक्ष अनुभव किया है। महा भाग्यशाली होने के कारण ही वे एक देवता के अनेक रूपों में प्रत्यक्ष अनुभव कर उनके रूपानुरूप विविध कार्यकलापों का वर्णन करते हैं…

-गतांक से आगे…

मंडल के विशिष्ट देवता इस प्रकार हैं आसितांग भैरव, रूरू भैरव, चंड भैरव, भीषण भैरव, संहार भैरव, शर्व, पशुपति, ईशान, रुद्र, उग्र, भीम, महान, अनंत, वासुकि, तक्षक, क्रलिश, कर्कोटक, शंगपाल, कंबल, अश्रतर, शूल, चंद्रमौलि, चंद्रमा, वृषमध्वज, त्रिलोचन, शक्तिधर, महेश्वर व ब्रहस्पति। इन देवताओं की स्थापना कर मंडल की प्राण-प्रतिष्ठा करके देवताओं का नाम मंत्रों अथवा वैदिक पौराणिक मंत्रों से गंध पुष्पादि उपचारों द्वारा पूजन कर हवन आदि कार्य किए जाते हैं। मूलतः लिंगतोभद्र चक्र में भगवान शिव के परिकरों, परिच्छदों, आयुधों, आभूषणों का ही पूजन किया जाता है। इससे भगवान आशुतोष प्रसन्न होते हैं और साधक के अभीष्ट की सिद्धि होती है। साथी ही उनके अनुग्रह से उपासक को शिव सायुज्य भी प्राप्त हो जाता है।

सिद्ध वैदिक मंत्रों में देवता का परिज्ञान

वैदिक ऋषियों ने देवताओं के महाभाग्य का प्रत्यक्ष अनुभव किया है। महा भाग्यशाली होने के कारण ही वे एक देवता के अनेक रूपों में प्रत्यक्ष अनुभव कर उनके रूपानुरूप विविध कार्यकलापों का वर्णन किए हैं।

(क) देवताओं का यह ऐश्वर्य ऋषियों को भली-भांति ज्ञात था, इसलिए जिस कामना से जो ऋषि मंत्र में जिस देवता की स्तुति करते हैं, उस मंत्र के वे ही देवता माने जाते हैं। तात्पर्य यह है कि अमुक देवता के प्रसार से अमुक अर्थ का स्वामी बनूंगा। इस बुद्धि के साथ जिस मंत्र में जिस देवता की स्तुति की गई है, उस मंत्र के वे देवता हुए। यह स्तुति चार प्रकार से की गई है। (1) नाम से, (2) बंधुओं से, (3) कर्म से, (4) रूप से। अर्थात जिन मंत्रों में अग्नि, इंद्र, वरुण आदि के नाम उल्लेख पूर्वक उनकी स्तुति की गई है, उन मंत्रों के अग्नि इंद्र आदि देवता हैं। जिन मंत्रों में अग्नि-इंद्र आदि के बंधुओं के नाम लेकर स्तुति की गई है, उन मंत्रों के प्राधान्यतः अग्नि, इंद्र आदि देवता होंगे। जिन मंत्रों में अग्नि आदि के क्रियाकलापों की वर्णनात्मक स्तुति की गई है, उन मंत्रों के वे ही देवता माने जाएंगे और जिन मंत्रों के भी वे ही अग्न्यादि देवता होंगे। इस प्रकार नाम बंधु कर्म और रूप इनमें किसी प्रकार से जिस मंत्र में जिनकी स्तुति की गई, उस मंत्र के वे देवता हुए। (ख) उपर्युक्त विवेचन से ये स्पष्ट होता है कि नाम बंधुकर्म और रूप से जिस मंत्र में जिस देवता का लक्षण प्रतीत होता है, उस मंत्र का वही देवता होता है। परंतु जिस मंत्र में नाम रूपादि के वर्णन नहीं होने से देवता के स्वरूप का निर्देश नहीं होता, उस मंत्र का देवता किसे माना जाए। इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए महर्षि यास्क ने बतलाया है-यद्देवतः स यज्ञो वा यज्ञंग वा तद्देवता भवति। अर्थात जिस यज्ञ का जो देवता है, उस यज्ञ में विनियुक्त होने वाले अनादिष्ट देवतालिंग मंत्रों का वही यज्ञीय देवता होगा। जैसे अग्निष्टोम यज्ञ आग्नेय-अग्नि देवताक है, वहां (अग्निष्टोम यज्ञ में) विनियुक्त होने वाले अनादिष्ट देवताक दमंत्र आग्नेय होंगे। प्रकरण से वहां देवता का निर्णय किया जाएगा। अथवा प्रातः समय में विनियुक्त होने वाले अनादिष्ट देवताक मंत्र

आग्नेय माध्यन्दिन सवन में विनियुक्त

होने वाले केंद्र तथा सायं सवन में

होने वाले मंत्र आदित्य देवताक होंगे।       

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