हिमाचली सुकून के हकदार

By: Apr 21st, 2018 12:05 am

हिमाचली सुकून की छांव को महसूस करना बड़ा ही अजीब संतुलन है और कमोबेश हर सरकार ने अपने दौर में ऐसी राहें चुनी हैं। लगातार कर्मचारी हितों की खुशखबर लिखते हुए जयराम सरकार भी कमोबेश यही कर रही है। पहले विद्या उपासकों का मानदेय बढ़ा और अब अनुबंध के पालने में कर्मचारियों के भुगतान में नई रंगत आ गई। बेशक सरकारी कर्मचारियों की निष्ठा और प्रतिबद्धता के बदले सरकारी खजाने का मेहरबान होना राज्य की कृतज्ञता दर्शाता है, लेकिन यहां तो परंपराओं का संतुलन है। वास्तव में इस राज्य की बजटीय व्यवस्था का भले ही कोई आर्थिक आधार सुदृढ़ नहीं हुआ है, फिर भी कर्मचारी वर्ग की तारीफ में संसाधन बिछते हैं। ऐसे में जब राज्य के सुकून की चादर फैलती है, तो अकसर इस वर्ग के पांव बाहर निकले हुए दिखाई देते हैं। यानी राज्य की उम्मीदों को ढांपने की कसरत यहीं तक सिमट कर रह जाती है। पूर्व में कांग्रेस सरकार ने बेरोजगारों  को ढांपने के लिए भत्ता खोज लिया, लेकिन संतुलन की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई दी। सरकारी पद भी अपनी विचित्र परिस्थिति से जन्म लेते रहे हैं और बाद में यही लोकलुभावन का नजराना बन जाते हैं। विद्या उपासकों के मार्फत शिक्षा में नीति या गुणवत्ता का तकाजा तो साबित नहीं हुआ, अलबत्ता नए पदों की मोमबत्तियां जल उठीं। कमोबेश हर सरकार ने परोक्ष नियुक्तियों से जो समाधान खोजे, उनमें केवल सियासत ही नहाती रही। आश्चर्य भी यही कि हर सरकार के डाल पर बैठा सुकून भी यही तराशता रहा कि जो दौलत कर्मचारी होने की है, उसे कोई राजनीतिक लुटेरा काट न ले। ऐसे में यह एहसास अब राज्य की मर्यादा सरीखा है कि सरकारों की अदला-बदली में कर्मचारी महल सुरक्षित रहे। यह बिसात सियासी खेल का तमाशा हो सकता है, लेकिन इससे सरकारी नौकरी में योग्य उम्मीदवारों के चयन की पद्धति तो विकसित नहीं हुई। जाहिर है जयराम सरकार पहले से बोए को काटने पर मजबूर है, लेकिन भविष्य को लिखने के लिए कुछ साहसिक कदम लेने होंगे। कम से कम सरकारी खजाने से मिली नौकरी यह तो साबित करे कि प्रदेश के अव्वल व्यक्ति ही सफल हुए हैं। सरकारी रोजगार को सियासत से जोड़ना या कर्मचारी राजनीति का सरकार से जुड़ना किस तरह लाभकारी हो सकता है, फिर भी यही रास्ता सत्ता की मंजिलों का मिलन करवा रहा है। इसीलिए सरकारी नौकरी के लिए नित नई रियायतें अपना हुलिया बदल कर आती हैं और चयन की पद्धति ने सियासत की हमेशा जरूरतें पूरी कीं। किसी युवा मन को पैंतालीस साल की उम्र तक सरकारी नौकरी के योग्य बनाए रखना पता नहीं किस क्षमता की परख है या जिस सफर से रोजगार जुड़ रहा है, उसे समझना कठिन है। कमोबेश हर मंत्रिमंडलीय बैठक के एजेंडे पर अगर प्रदेश को देखना है, तो वहां हमेशा कर्मचारी मुद्दे ही सूचीबद्ध रहते हैं। यानी सारा प्रदेश अगर सक्रिय है, तो सारे संसाधन या तो वेतन, भत्तों व पेंशन के जरिए समा रहे हैं या नए अवसरों की परिभाषा में रोजगार का अलंकरण हो जाता है। हिमाचल को जहां संघर्ष करना है, वहां सुकून के कालीन बिछाने की चुनौती है तो कब तक हम कर्जधारी होकर भी ऐसी महफिलें सजाएंगे। अपने चंडीगढ़ दौरे में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने पुनः पंजाब पुनर्गठन की हिमाचली हिस्सेदारी के चिराग जलाए हैं तो क्या 7.19 प्रतिशत के मायनों को हम अपने कंधों पर ढो पाए। राज्य का मूल्यांकन एक कमजोर वित्तीय स्थिति कर रही हो, सरकारी घोषणाएं सुकून कैसे दे सकती हैं। नागरिक कर न चुकाएं या राज्य कर मुक्त बजट पेश करता रहे, तो यह सुकून कभी न कभी पश्चाताप ही करेगा। नामकरण बदल-बदल कर बांटी गई शिक्षकों की उपाधियां अगर आज सुकून हैं, तो भविष्य की जिस पीढ़ी को इनके मार्फत शिक्षा मिल रही है, उसे नालायक बनाने का कसूर किसका है। आज वास्तविक प्रश्नों से किनारा करके वादों के सुकून पर दौड़ती मंशा, कल जब कलंकित करेगी तो कौन इबारत बदलने की जवाबदेही लेगा।

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