अंततः ‘भगवा ताजपोशी’!

By: May 18th, 2018 12:05 am

कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला ने संविधान के अनुच्छेद 167 के तहत अपनी विशेष विवेकाधीन शक्तियों का इस्तेमाल किया, नतीजतन भाजपा नेता येदियुरप्पा कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री बने हैं। सरकारिया आयोग की रपट, जिसका सम्मान संसद और सर्वोच्च न्यायालय दोनों ही करते हैं, के मुताबिक सबसे बड़े दल के नेता को आमंत्रित किया गया और मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। इससे पहली रात में कांग्रेस ने सर्वोच्च न्यायालय की चौखट पर दस्तक दी। गरुवार सुबह 4.20 बजे तक अदालत चली। अंततः सुप्रीम कोर्ट ने भी येदियुरप्पा की ‘ताजपोशी’ पर मुहर लगा दी। लोकतंत्र की हत्या और संविधान पर हमला सरीखे कुछ भी तर्क दिए जाते रहें, लेकिन कर्नाटक एक बार फिर ‘भगवा’ हो गया है। अब परिदृश्य साफ है कि भाजपा सरकार को 15 दिनों के अंतराल में अपना बहुमत सदन में साबित करना है, लिहाजा कर्नाटक में ‘मंडी’ सज गई है। एक रिसार्ट के 120 कमरे कांग्रेस ने बुक करवाए हैं और वातानुकूलित बस के जरिए विधायकों को वहां तक ले जाकर ‘बंधक’ बना दिया गया है। लोकतंत्र का यह कोई नया रूप नहीं है। कई राज्यों और केंद्र सरकार तक में ‘मंडीबाजी’ सजती रही है। मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे हैं, प्रधानमंत्री के तौर पर पीवी नरसिंह राव को ‘अभियुक्त’ करार दिया जा चुका है और ‘विज्ञान भवन’ में एक विशेष अदालत बनाई जा चुकी है, लेकिन ‘मंडियां’ सजना नहीं थमा है। कांग्रेस-जनता दल-एस के प्रायोजित मुख्यमंत्री कुमारस्वामी ने 100 करोड़ रुपए में विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोप लगाए हैं। यह भी कहा है कि यह पैसा काले धन का ही दूसरा रूप है। हम इस ‘मंडीबाजी’ का न तो खंडन करते हैं और न ही मंडन करते हैं, क्योंकि कांग्रेसी राजनीति की यह संस्कृति पूरे देश को आदी बना चुकी है। संभावना है कि कांग्रेस और जद-एस के कुछ लिंगायती विधायक भाजपा के संपर्क में होंगे, कुछ कांग्रेस गठबंधन के खिलाफ होंगे, लेकिन जब तक अदालत में साक्ष्य पेश नहीं किए जाते, तब तक आरोप खोखले हैं। राज्यपाल के विवेकाधीन निर्णय को वैसे भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती। शीर्ष अदालत ने जिस बोम्मई केस को सदन के लोकतंत्र के लिए एक अनिवार्य मानक तय किया था, उसका पहला प्रावधान ही यही है कि खंडित जनादेश की स्थिति में सबसे बड़े दल को ही सबसे पहले न्योता दिया जाए। उसके इनकार करने या बहुमत साबित न कर पाने की स्थिति में दूसरे स्थान के दल या चुनाव बाद के गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जा सकता है। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में मेघालय और गोवा कोई भी संवैधानिक मानदंड नहीं माने जा सकते। वे भी एक राज्यपाल के निर्णय थे, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट में गैर-संवैधानिक साबित नहीं किया जा सका। अब खासकर कांग्रेस के चिल्ल-पौं करने के मायने क्या हैं? कर्नाटक का चुनावी जनादेश स्पष्ट है कि कांग्रेस को सत्ता के बाहर होने का जनमत दिया गया है। चुनाव के दौरान कांग्रेस ने जद-एस को भाजपा की ‘बी टीम’ कह-कह कर खूब कोसा था। जद-एस ने भी कांग्रेस के खिलाफ ‘जहरीला’ प्रचार किया था। अचानक जनादेश के बाद दोनों दल ‘समविचारक’ कैसे हो गए? उनका वोट प्रतिशत ‘साझा’ कैसे माना जा सकता है? यह कौन-सा चुनावी लोकतंत्र है? कांग्रेस और जद-एस दोनों ही भाजपा की राजनीतिक मिसाल देना छोड़ दें। कर्नाटक के जनादेश का सम्मान करें। यदि भाजपा अपनी ‘ताजपोशी’ को बरकरार रखने की खातिर कुछ  ‘अवैध’ करती है, तो उसे अदालत में चुनौती दें। न्यायालय सभी के लिए समान रूप से खुले हैं, लेकिन कांग्रेस लोकतंत्र और संविधान की दुहाई देना भी बंद करे। आपातकाल का ही एकमात्र उदाहरण है, जो उसे ‘असंवैधानिक’ करार देता है। उसके अलावा रोमेश भंडारी, बूटा सिंह, तपासे सरीखे ‘कांग्रेसी राज्यपालों’ की पूरी जमात देश के सामने मौजूद है, जिसने संविधान को तार-तार किया। दूसरी ओर यह देखना भी गौरतलब होगा कि येदियुरप्पा सदन में अपना बहुमत कैसे साबित करते हैं? क्या 2008 के दौर वाला ‘आपरेशन लोटस’ फिर चलाया जाएगा? क्या कांग्रेस-जद (एस) के कुछ विधायक वोटिंग के दिन अनुपस्थित रहेंगे या भाजपा के पक्ष में मतदान करेंगे? इन तमाम स्थितियों में विधायकी रद्द किए जाने के पूरे अवसर होंगे, तो क्या ऐसे विधायक भाजपा के साथ कोई ‘डील’ करेंगे और उस डील को अवैध करार दिया जा सकेगा? फिलहाल यह सवाल बना रहेगा।

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