जीवन के अनुभव कलमबद्ध करते हैं अजय पाराशर

By: May 27th, 2018 12:10 am

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिला के उपमंडल बैजनाथ के गांव सेहल में जन्मे अजय पाराशर की शिक्षा-दीक्षा, भारतीय थल सेना में सेवारत उनके स्वर्गीय पिता कैप्टन ज्योति प्रकाश पाराशर जी की विभिन्न प्रांतों में तैनाती के कारण, अलग-अलग स्थानों पर संपन्न हुई। साहित्य में विशेष दिलचस्पी के बावजूद उन्हें परिस्थितियों के चलते अपनी रुचि से इतर पहले जेबीटी और बाद में इतिहास में स्नातकोत्तर और पत्रकारिता तथा जनसंचार में स्नातकोत्तर शिक्षा के अवसर प्राप्त हुए। उन्होंने इतिहास में एमफिल तथा इतिहास और विकास पत्रकारिता विषयों में संयुक्त रूप से अनुसंधान (पीएचडी) संपन्न किया।

मां श्रीमती सुरेखा पाराशर जी की प्रेरणा से बतौर शिक्षक अपना करियर आरंभ करने वाले अजय पाराशर ने भोपाल में जबलपुर के सांध्य दैनिक ‘जबलपुर टाइम्स’ तथा नवभारत प्रकाशन समूह के अंग्रेजी समाचार-पत्र ‘द क्रॉनीकल’ में बतौर रिपोर्टर तथा उप-संपादक कार्य किया। इसके बाद अंग्रेजी अखबार ‘द ट्रिब्यून’ में स्टाफर के रूप में कार्य करने का अवसर मिलने के बावजूद उन्होंने वर्ष 1998 में हिमाचल प्रदेश सरकार के सूचना एवं जन संपर्क विभाग में बतौर जिला लोक संपर्क अधिकारी कार्य करने को प्राथमिकता दी। सूचना एवं जन संपर्क विभाग में लगभग 20 वर्षों के कार्यकाल में अजय पाराशर करीब-करीब प्रदेश के सभी जिलों में अपनी सेवाएं प्रदान कर चुके हैं।

पत्रकारिता, जन संचार और शिक्षण में कार्यानुभव प्राप्त अजय पाराशर के विभिन्न विषयों पर फीचर, लेख, कॉलम, निबंध और व्यंग्य विभिन्न दैनिक समाचार-पत्रों तथा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। वर्ष 2008-09 में दैनिक समाचार-पत्र ‘दिव्य हिमाचल’ में ‘मीडिया वॉच’ नाम के कॉलम में विभिन्न समसामयिक विषयों और इतिहास पर उनके नियमित लेख प्रकाशित होते रहे। वर्ष 2009 में उन्हें, उनके बेबाक लेखन के लिए पार्वती लेखनालय संस्था द्वारा राज्य स्तरीय सर्वश्रेष्ठ लेखक पुरस्कार से नवाजा गया। ऊना जिला के अपने सात माह के कार्यकाल के दौरान उन्होंने सूचना एवं जन संपर्क विभाग के सेवानिवृत्त संयुक्त निदेशक स्वर्गीय श्री विनोद लखनपाल के साथ मिलकर जिला प्रशासन के तत्त्वावधान में प्रकाशित ऊना जिला के प्रथम गजेटियर ‘ऊना जिला : एक परिचय’ का शोध, लेखन एवं संपादन संपन्न किया। कहानी, कविता और व्यंग्य के अतिरिक्त अजय पाराशर आजकल अंग्रेजी उपन्यास ‘द लेक’ और दोहावली पर काम कर रहे हैं। मासिक साहित्य पत्रिका ‘समाज धर्म’ में जालंधर पीठ पर उनके शोध लेखों की शृंखला प्रकाशित हो रही है।

इस वर्ष एड्सग्रस्त लोगों के जीवन पर आधारित अनुभवों पर उनका प्रथम कहानी संग्रह ‘मैं जीना सिखाता हूं’ और काव्य संग्रह ‘मौन की अभिव्यक्ति’ प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त कहानी संग्रह ‘एक पापा की मौत’ और ‘पहली दाल’ तथा निबंध संग्रह ‘कथावाचकों के देश में’ प्रकाशनाधीन हैं। हाल ही में पंजाब की त्रिवेणी साहित्य अकादमी ने उन्हें पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी कथाकार सम्मान से अलंकृत किया है। वर्तमान में अजय पाराशर सूचना एवं जन संपर्क विभाग के धर्मशाला स्थित उत्तरी क्षेत्र कार्यालय में बतौर उप निदेशक तैनात हैं।                              -विनोद कुमार

साहित्य की पैमाइश में सिकुड़ रहा है समाज

साहित्य में शब्द की संभावना शाश्वत है और इसी संवेग में बहते कई लेखक मनीषी हो जाते हैं, तो कुछ अलंकृत होकर मानव चित्रण  का बोध कराते हैं। लेखक महज रचना नहीं हो सकता और न ही यथार्थ के पहियों पर दौड़ते जीवन का मुसाफिर, बल्कि युगों-युगों की शब्दाबली में तैरती सृजन की नाव पर अगर कोई विचारधारा अग्रसर है, तो उसका नाविक बनने का अवसर ही साहित्यिक जीवन की परिभाषा है, जो बनते-संवरते, टूटते-बिखरते और एकत्रित होते ज्वारभाटों के बीच सृजन की पहचान का मार्ग प्रशस्त करता है। यह शृंखला किसी ज्ञान या साहित्य की शर्तों से हटकर, केवल सृजन की अनवरत धाराओं में बहते लेखक समुदाय को छूने भर की कोशिश है। इस क्रम में जब हमने अजय पाराशर के काव्य संग्रह ‘मौन की अभिव्यक्ति’ की पड़ताल की तो साहित्य के कई पहलू सामने आए…

दिहि : आपने जीवन में भाषाई संग्राम कब महसूस किया और शब्दों के संगम पर जो चुना, उसकी व्याख्या कैसे करेंगे? भाषा में जीवंतता स्वाभाविक है या लेखन का प्रवाह कड़ी साधना का प्रतिफल है?

अजय : मुझे लगता है कि इस सवाल के प्रथम भाग के दो जवाब हो सकते हैं। अगर व्यक्ति के जीवन में निजी तौर पर भाषाई संग्राम है तो इसका अर्थ है उसके विचारों का प्रवाह सहज, सरल और समरस नहीं है। संग्राम कभी अकेले नहीं हो सकता। अगर द्वैत भाव मौजूद है तो व्यक्ति असहज होगा। सहजता के लिए द्वैत का लोप ज़रूरी है। व्यक्तिगत स्तर पर भाषाई संग्राम दर्शाता है कि व्यक्ति कई स्तरों पर जी रहा है, ऐसे श़ख्स के विचारों में न तो तारतम्यता होती है और न ही साम्यता। जब प्रवाह सहज नहीं होगा तो व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति के लिए संघर्ष करेगा ही। हां, एक बात अवश्य है कि जरूरी नहीं कि सहज व्यक्ति भाषाई सौंदर्य में भी निपुण हो। लेकिन उसके विचारों के प्रवाह से संप्रेषणता पुष्ट होती है। ऐसा व्यक्ति थोड़े ल़फ्ज़ों में बड़ी बात कह जाता है। नानक, कबीर, मीरा, तुलसी जैसे नाम आज भी लोकप्रिय हैं जबकि भाषाई सौष्ठव तथा सौंदर्य के अधिकांश महारथी काल के गाल में समा चुके हैं। सामाजिक स्तर पर तो भाषाई संग्राम हर युग में रहा है; जो व्यक्ति अपने अंतर में स्थित होता है वह अपने समय से कई दशक आगे चलता है। आप पिछली सदी में देखें तो आचार्य रजनीश इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। उनका अपना भाषाई संग्राम तो कोई नहीं; लेकिन जब बात समाज की आती है, तो संग्राम नज़र आता है। किंतु उनकी बात सीधे दिल में उतर जाती है। यही बात जे. कृष्णामूर्ति पर लागू होती है। विचारों और भाषा की लोकप्रियता के मामले में भले ही ओशो उनसे कोसों आगे हैं,  किंतु वह विवादास्पद रहे हैं, अपने आचार-व्यवहार की वजह से। इसका मतलब है कि विचारों के साथ व्यवहार में भी साम्यता अनिवार्य है। यही बात साहित्यकारों पर भी लागू होती है, केवल दार्शनिक और धर्माचार्यों पर ही नहीं। आम आदमी भी इससे अछूता नहीं। बुद्ध, महावीर, बाबर, मंसूर, महात्मा गांधी, टॉलस्टाय, रूसो, हॉकिंस, सुकरात आदि इसके उदाहरण हैं। सामाजिक पैमानों से इतर प्रकृति अपनी भूमिका निभाती है, तभी तो गालिब, फैज़, मीर, पाश, दुष्यंत, नागार्जुन, साहिर, निदा, हर्मन हैस आदि आज भी लोकप्रिय हैं। अधिकांश साहित्यकार तो संदर्भ ग्रंथों से ही बाहर नहीं आ पाते। हां, एक बात तो है कि आजकल के परिवेश में लोकप्रियता के पैमाने बदल चुके हैं। बाज़ार हावी है, विचारों पर भी और शब्दों पर भी। जहां तक भाषाई संग्राम और शब्दों के संगम का प्रश्न है, जब विचार सधते हैं तो शब्दों का संयोजन और संगम स्वयं होता चला जाता है। जब साहित्यकार या यहां तक कि आम आदमी भी इससे अछूता नहीं तो मैं भी अपवाद नहीं हो सकता। भावों के बाद विचारों के मंथन से भाषा की जीवंतता स्वाभाविक या स्वतः स्फूर्त है। विचारों के मंथन के लिए भाव अनिवार्य है और भाव के लिए आवश्यक है, अपने भीतर गहरे उतरना और जिनके लिए यह संभव नहीं, उनके लिए ज़रूरी है, निरंतर अध्ययन और उसके बाद मंथन से विचारों को निखारना। ऐसे में लेखन का प्रवाह कड़ी साधना का ही प्रतिफल होता है, चाहे ज़रिया कोई भी हो। इन दोनों के अभाव में लुगदी साहित्य ही जन्म लेता है; जो बाज़ारवाद या व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाआें का परिणाम होता है।

दिहि : अभिव्यक्ति के पैमानों के बीच मौन का मुकुट धारण करके जो पाया?

अजय : ज़ाहिर है, अभिव्यक्ति के पैमानों के मध्य मौन के मुकुट से दिल को सुकून हासिल होता है, जिसे हम शांति या पीस ऑफ माइंड भी कह सकते हैं। लेकिन तमाम शब्द छोटे पड़ जाते हैं, इस अनुभूति के लिए। थोड़ी देर के लिए मौन का मुकुट धारने के बाद आम आदमी पुनः संघर्ष की स्थिति में आ जाता है, जो नहीं आता या जिसका यह भाव स्थायी हो जाता है, वह बुद्ध हो जाता है। ऐसे में अभिव्यक्ति हाशिए पर चली जाती है। ऐसा श़ख्स ज़िंदा किंवदंती बन जाता है। लेकिन इस तरह के आंतरिक संघर्ष का ठहराव सबके बस की बात नहीं।

दिहि : साहित्य की पैमाइश में समाज सिकुड़ रहा है या शब्दों के दायरों के बीच व़क्त फिसल रहा है। जो आपके चाहने पर भी हाथ नहीं आई, क्या उसकी खोज में कविता शून्यता से द्वंद्व है या जीवन के सि़फर होते ही सिंहासन ने आत्मानुभूति का शृंगार कर दिया?

अजय : इसमें कोई दोराय नहीं कि वर्तमान में खासकर, उत्तर भारत के साहित्य की पैमाइश में समाज सिकुड़ रहा है। कारण कई हैं, सबसे बड़ा तो बाज़ार है; उसके निर्माता तथा नियंता दोनों, जिसमें प्रकाशक भी शामिल हैं। लेकिन साहित्यकार भी कम दोषी नहीं। उसकी महत्त्वाकांक्षा उसे डुबोे रही है। शेष कार्य विभिन्न लेखक समूहों ने पूरा कर दिया है। आधुनिकतम मीडिया (जिसमें सोशल मीडिया भी शामिल है) ने साहित्य की कमर तोड़ दी है। ऐसे में शब्दों के दायरों के बीच व़क्त का फिसलना लाज़िमी है। कितने ही भाव, विचार, घटनाएं और अनुभव दज़र् नहीं हो पाते क्योंकि बाज़ार की मांग, लेखकीय महत्त्वाकांक्षा, विभिन्न दबाव और साधन, चिंतन-मनन तथा अध्ययन का अभाव साहित्य की पैमाइश और शब्दों के दायरों पर निरंतर प्रहार कर रहे हैं। जहां तक कविता की बात है तो कविता कहने की कोई उम्र नहीं होती। बात अनुभूति और स्तर की है, जो मानसिक और बौद्धिक अवस्था का परिणाम है। मुझे लगता है कि जो चाहने पर भी हाथ नहीं आता, उसकी खोज में कविता शून्यता से द्वंद्व नहीं हो सकता। कविता तो अनुभूति का नाम है, पाने का नाम है। अब आप इसे सृजन कहें या शून्य, हिरण्यगर्भ, बिग बैंग या कुन फायाकुन। अतः शून्यता से भी द्वंद्व नहीं हो सकता क्योंकि बिंदु या शून्य में समाने से लेकर अनंत तक फैलने की प्रक्रिया ही आत्मसाक्षात्कार या चेतन होना है। बुद्ध यही करते आए हैं। तुलसी बाबा ने रामचरित मानस के लिए परिपक्व होने का इंतज़ार किया। गालिब को पढ़ें तो लगता है जो अनुभूत किया, लिखा। आत्मसाक्षात्कार के लिए व्यक्ति का समाज से विलग होना ज़रूरी नहीं। हां, अनुभूति और स्तर भिन्न हो सकता है। जितनी गहरी अनुभूति, उतने ही गहरे भाव और विचार। कुछ बाह्य सत्ता या भौतिकता पर गहन विचार करते हैं तो कुछ गहरे उतरते हैं, आंतरिक सत्ता में। कुछ हल्के होने के बाद उसकी दोबारा मंजाई नहीं करते। उन्हें लगता है कि विचार उनके अपने नहीं, कहीं से उतरे हैं। बा़की मंजाई के बाद दुनिया के सामने उतरते हैं; उसमें सौंदर्य तो हो सकता है लेकिन नैसर्गिकता नहीं रहती। लेकिन साहित्य के पैमाने ऐसा करने पर मजबूर करते हैं। जहां तक, जीवन के सि़फर होने का सवाल है, तो शरीर छोड़ने तक ऐसा संभव नहीं। जब तक सांस है, तब तक स्यापा रहेगा ही। आत्मानुभूति का शृंगार तो शरीर के रहते ही हो सकता है। बात जानते-बूझते इच्छाओं के निर्मूलीकरण और अनुभूति की है।

दिहि : साहित्य की दौलत में लेखकीय मूल्यांकन, समुद्र में रेत ढूंढने सरीखा हो चुका है या नए प्रयोगों के उद्गम पर साहित्य की पवित्र धारा में कहीं प्रदूषण रहित संभावना दिखाई दे रही है?

अजय :  साहित्य की तुलना समुद्र से करना ठीक भी है और नहीं भी। साहित्य दृश्य से उपजता है, चाहे वह बाह्य हो या आंतरिक। दृश्य (कल्पना या साकार) के भाव में परिवर्तित होने से पहले भाव उत्पन्न होता है और फिर विचार। बाह्य सत्ता परिवर्तनीय है। ऐसे में भाव और विचार बदलते रहते हैं, इसीलिए साहित्य में विविधता है। आंतरिक सत्ता की अनुभूति के लिए भी नाम या मंत्र का सहारा लेना पड़ता है। नहीं तो निराकार की कल्पना कैसे होगी? कोई दृश्य या आकृति तो चाहिए ही, लेकिन जब व्यक्ति ईमानदारी के साथ भीतर प्रवेश कर जाता है तो फिर यह बातें मायने नहीं रखतीं। इसीलिए इसे गूंगे का गुड़ कहा गया है। राम, कृष्ण, बुद्ध, यीशु, नानक इसी सहजता पर बल देते हैं। जब साहित्य में सहजता नहीं होगी तो कुछ गढ़ना पड़ेगा। प्रकृति सहज है, इसीलिए शिव और सुंदर है; लेकिन सत्य कहीं और छिपा है। ऐसे में मूल्याकंन किसका? स्थान और समय की परिभाषा में गढ़ा गया साहित्य कालातीत नहीं हो सकता। वेद, उननिषद्, रामायण, महाभारत, बाइबिल आदि के कई संदर्भ इसीलिए कालातीत हैं। बाज़ार और महत्त्वाकांक्षा की आंधी में साहित्य का सही मूल्यांकन करना मुश्किल है। दिल बहलाने के लिए चाहे जो कहें या कहलवाएं। समय कभी स्थिर नहीं रहता। अतः लगता है कि तमाम प्रयोगों, बाधाओं और प्रदूषण के बावजूद साहित्य की पवित्रता ़कायम रहेगी। हां, सत्य का मूल्याकंन नहीं हो सकता, उसे केवल अनुभव किया जा सकता है। केवल व्याख्या हो सकती है, जो कभी निरपेक्ष नहीं होती। भाव के आते ही उसकी न्यायोचितता पर प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं।

दिहि : बाज़ारवाद ने हर विधा को खिलौना बना दिया है। ऐसे में प्रकाशन के परिदृश्य में सृजन के अपने धरातल और मूल्यांकन पर इसका कितना असर है?

अजय : जब पूरे विश्व की नीतियां और कार्यक्रम बाज़ार से प्रभावित, संचालित और नियंत्रित हैं तो प्रकाशन और सृजन इससे अछूता कैसे रह सकता है। अगर आप भारत के संदर्भ में देखें तो विपक्षी दल जिन बातों की दुहाई देकर, सत्ता खोंचते हैं, खुद भी वही करते हैं। इसका अर्थ है किसी भी दल की स्वायत्तता कायम नहीं रह सकती। बाज़ार की मांग पर लिखा साहित्य समय विशेष में बिक तो सकता है लेकिन कालातीत नहीं हो सकता। तथाकथित बैस्ट सेलर की सच्चाई अब लोग जानने लगे हैं। पर इतने बड़े बाज़ार में कुछ भी बेचा जा सकता है। विडंबना है कि हिंदी पट्टी का प्रकाशन तो सरकारी या अनुदानित पुस्तकालयों तक सीमित हो रहा है।

दिहि : साहित्य की पाठक से बनती दूरी के लिए मुख्य मीडिया का वर्तमान स्वरूप कितना दोषी है? क्या सोशल मीडिया इस क्षति को पूरा

कर देगा?

अजय : विगत में पत्रकारिता साहित्य का अंग माना जाता था। तमाम बड़े पत्रकार, लेखक या साहित्यकार भी थे। तिलक, अज्ञेय, कुलदीप नैयर, महात्मा गांधी, डा. अंबेडकर जैसे लोगों का दोनों विधाओं में बराबर का दखल था। बाज़ार के हावी होते ही संपादक गौण होते गए। भाषा और सामग्री बाज़ारू होती गई। पहले अ़खबार में छपना प्रतिष्ठा का प्रश्न था। साहित्य से केवल अ़खबार ही नहीं, रेडियो और टीवी के अलावा कुछ हद तक सिनेमा भी जुड़ा था। बाज़ार के साहित्य के सिर पर सवार होते ही गुणवत्ता में जो कमी आई, वह समय के साथ बढ़ती ही गई। अब बेसिर-पैर की बातों पर तो पन्ने समर्पित किए जा सकते हैं लेकिन साहित्य के नाम पर सप्ताह में एक पन्ना देना भारी लगता है। कई समाचार-पत्र तो यह  ज़हमत भी नहीं उठाते। सोशल मीडिया के आने से साहित्य को लाभ कम, नु़कसान ज़्यादा हुआ है। नया मंच मिला ज़रूर है लेकिन गुणवत्ता की ़कीमत पर क्योंकि ज़िम्मेवारी का अभाव है। बस दाद चाहिए, कुछ भी लिखो।

दिहि : साहित्यिक पुरस्कारों के आलोक में लेखन की गरिमा का मूल्यांकन कैसे करेंगे?

अजय : अपने किसी भी प्रयास की प्रशंसा करना या पाना प्रायः हर आदमी की नैसर्गिक प्रवृत्ति होती है। लेकिन चेतन रहते हुए इस प्रवृत्ति से बचा जाना चाहिए। नहीं तो व्यक्ति समझौतावादी हो जाता है। पुरस्कारों की दौड़ में साहित्यकार आत्म की लड़ाई हार जाता है। उसकी ईमानदारी और तटस्थता ठगी जाती है। आज यही हो रहा है। लेखन पूर्ण निष्पक्षता, ईमानदारी और निर्भयता के साथ किया जाना चाहिए। पुरस्कार तो स्वयं उसकी झोली में गिर सकते हैं। अगर न भी गिरें तो कम से कम उसे यह संतुष्टि तो होगी ही कि उसने अपने आपसे कोई समझौता तो नहीं किया। इसके अलावा मुझे लगता है कि सम्मान फिर भी ठीक है, लेकिन पुरस्कार वांछा से हमेशा बचा जाना चाहिए। अगर ऐसा है तो लेखन स्तरीय होगा और उसकी गरिमा भी कायम रहेगी।            -क्रमशः

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