ब्रह्म विद्या का अर्थ

By: May 19th, 2018 12:05 am

ओशो

ब्रह्म विद्या का अर्थ वह विद्या है, जिससे हम उसे जानते हैं, जो सब जानता है। गणित आप जिससे जानते है, फिजिक्स आप जिससे जानते हैं, केमिस्ट्री आप जिससे जानते है। उस तत्त्व को ही जान लेना ब्रह्म विद्या है। जानने वाले को जान लेना ब्रह्म विद्या है। ज्ञान के स्रोत को ही जान लेना ब्रह्म विद्या है। भीतर जहां चेतना को केंद्र है, जहां से मैं जानता हूं आपको, जहां से मैं देखता हूं आपको उसे भी देख लेना, उसे भी जान लेना, उसे भी पहचान लेना, उसकी प्रत्यभिज्ञा, उसका पुनःस्मरण ब्रह्म विद्या है। कृष्ण कहते हैं विद्याओं में मैं ब्रह्म विद्या हूं।

इसलिए भारत ने फिर बाकी विद्याओं की बहुत फिक्र नहीं की। भारत की और विद्याओं में पिछड़े जाने का बुनियादी कारण यही है। भारत ने फिर और विद्याओं की फिक्र नहीं की, ब्रह्म विद्या की फिक्र की,लेकिन उसमें अड़चन है, क्योंकि ब्रह्म विद्या जानने को कभी लाखों-करोड़ों में एक आदमी उत्सुक होता है। पूरा देश ब्रह्म विद्या जानने को उत्सुक नहीं होता और भारत के जो श्रेष्ठतम मनीषी थे, वे ब्रह्म विद्या में उत्सुक थे और भारत का जो सामान्य जन था। उसकी कोई उत्सुकता ब्रह्म विद्या में नहीं थी। उसकी उत्सुकता तो और विद्याओं में थी, लेकिन सामान्य जन और विद्याओं को विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते हैं और परम मनीषी उन विद्याओं में उत्सुक ही न थे।

इसलिए भारत ने बुद्ध को जाना, महावीर को, कृष्ण को, पतंजलि को, कपिल को, नागराजन को, वसु बंध को, शंकर को जाना। ये सारे, इनमें से कोई भी अल्बर्ट आइंस्टीन हो सकता है, इनमें से कोई भी प्लांक हो सकता है। इनमें से कोई भी किसी भी विद्या में प्रवेश कर सकता है, लेकिन भारत का जो श्रेष्ठतम मनीषी था, वह परम विद्या में उत्सुक था। भारत का जो सामान्य जन था, उसकी तो परम विद्या में कोई उत्सुकता ही नहीं थी। उसकी उत्सुकता दूसरी विद्याओं में है, लेकिन वह विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते हैं।

पश्चिम ने दूसरी विद्याओं को विकसित किया, क्योंकि पश्चिम के बड़े मनीषी और विद्याओं में उत्सुक थे। इसलिए एक अद्भुत घटना घटी। पश्चिम ने सब विद्याएं विकसित कर लीं और आज पश्चिम को लग रहा है। कि वह आत्म ज्ञान से भरा हुआ है और पूरब ने आत्म ज्ञान विकसित कर लिया और आज पूरब को लग रहा है कि हमसे ज्यादा दीन और दरिद्र और भुखमरा दुनिया में कोई नहीं है। हमने एक अति कर ली, परम विद्या पर हमने सब लगा दिया दांव पर। उन्होंने दूसरी अति कर ली, उन्होंने आत्म विद्या को छोड़कर बाकी सब विद्याओं पर दांव लगा दिया। बड़ी उल्टी बात है। वे आत्म अज्ञान से पीडि़त हैं और हम शारीरिक दीनता और दरिद्रता से पीडि़त हैं। वह जो परम विद्या है, इस परम विद्या और सारी विद्याओं का जब संतुलन होगा, तो पूर्ण संस्कृति विकसित होती है। इसलिए न तो पूरब और न पश्चिम ही पूर्ण है। फिर भी अगर चुनाव करना हो, तो परम विद्या ही चुनने जैसी है। सारी बिद्याएं छोड़ी जा सकती है। क्योंकि और सब पा कर कुछ भी पाने जैसा नहीं है। कृष्ण कहते हैं, मैं परम विद्या हूं सब विद्याओं में, लेकिन यह बात आप ध्यान रखना और विद्याओं का वे निषेध नहीं करते हैं। वे यह नहीं कह रहे है कि सिर्फ अध्यात्म विद्या को खोजना है, बाकी सब छोड़ देना है। यह भी सोचने जैसा है। कि अध्यात्म विद्या परम विद्या तभी हो सकती है, जब दूसरी बिद्याएं भी हों। नहीं तो यह परम विद्या नहीं रह जाएगी।

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