राष्ट्रीय सुरक्षा को स्पष्ट नीति बनाई जाए

By: May 24th, 2018 12:05 am

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक, बिलासपुर से हैं

इन आतंकी और पत्थरबाजों को ‘भटके नौजवान, पोस्टर ब्वाय’ जैसी उपाधियां दे दी जाती हैं। इनके प्रति नरम रुख की हिमायत की जाती है, जिसका उदाहरण वहां की सरकार द्वारा 2008 से लेकर 2017 तक 9730 पत्थरबाजों के केस वापस लेना है। इन्हीं फैसलों से पत्थरबाजों के हौसले और भी बुलंद हुए हैं…

22 अक्तूबर, 1947 यानी आजादी के दो महीने बाद पाकिस्तान ने कश्मीर में परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए अचानक अपनी सेना और रेंजरों को कबायलियों के भेस में घुसपैठ कराकर कश्मीर को हथियाने के अपने घातक इरादे जाहिर कर दिए थे, जिसे हमारे तत्कालीन हुक्मरान भांपने में भी विफल रहे, बल्कि इस हमले से निपटने के लिए न कोई तत्परता दिखाई और न ही इस मसले को गंभीरता से लिया। यदि इस समस्या का सिर उस समय ही कुचल दिया जाता तो आज सात दशकों बाद कश्मीर समस्या इतनी गंभीर न होती और न ही हजारों की संख्या में निर्दोष सैनिक शहीद होते, क्योंकि इसी कश्मीर के पहले आपरेशन से घाटी से पलायन की समस्या की शुरुआत हुई थी, जो कि सरकारों की ढुलमुल नीतियों के कारण 90 के दशक तक पलायन का सिलसिला अपने अंजाम तक पहुंच गया, मगर हमें नाज है, अपनी सेना के उन रणबांकुरों पर जिन्होंने आजादी के बाद पहले ही युद्ध में सीमित संसाधनों के बावजूद अपने बुलंद हौसलों से पाक सेना के हमले और अत्याचारों से कश्मीरियों को बचाने में निर्भीक सैन्य निष्ठा का परिचय दिया। 1947-48 में चले इस युद्ध में श्रीनगर और बड़ग्राम को पाकिस्तानी हमले से बचाने में मेजर सोमनाथ शर्मा (परमवीर चक्र मरणोपरांत) का अहम रोल रहा था। साथ ही कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाने के लिए देवभूमि के 43 और सैनिकों की शहादत हुई थी, बल्कि पाकिस्तान कश्मीर में जो इतिहास लिखना चाहता था, उसे भी विफल कर दिया, मगर कश्मीर की जद्दोजहद के लिए वीरभूमि के रणबांकुरों का योगदान आजादी से पहले का रहा है, जिसमें हिमाचली नायक जोरावर सिंह कहलुरियां के बलिदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और आज तक कश्मीर समस्या का खामियाजा देश के सैनिकों और उनके परिवारों को ही भुगतना पड़ा है, क्योंकि देश के हर राज्य का कश्मीर को बचाने में योगदान रहा है। एक विडंबना है कि हमारे नीतिकारों को कई बड़े मंचों पर अपने भाषणों में अकसर कहते सुना जाता है कि आतंकियों का कोई धर्म नहीं होता, यहां तक कि दूसरे देशों में जाकर इस बात की दुहाई दी जाती है कि हम आतंक से ग्रसित हैं, मगर रमजान के महीने में इन आतंकियों के खिलाफ सेना की तरफ से सीजफायर चाहिए, तो कभी घाटी से ‘अफस्पा’ को हटाने की मांग उठती है। इससे साफ जाहिर होता है कि हमारे नीतिकार आतंक को लेकर कितने सजग हैं, ऐसे फैसलों से सरकारें देश को क्या संदेश देना चाहती हैं। ऐसे फैसले हमारी सेना के मनोबल पर असर डालते हैं।

हमारी सेना विश्व की सर्वोत्तम सेनाओं में से एक है, जिसने अपने शौर्य व पराक्रम से नए इतिहास लिखे हैं। हमारी सेना का प्रशिक्षण भी कमजोर नहीं है और न ही इसमें साहस की कमी है। आज हमारी सेना की शक्ति का एहसास चीन जैसे देशों को भी होने लगा है। जहां तक सीजफायर का सवाल है, एक बार स्पष्ट कर दें कि चाहे नियंत्रण रेखा का मामला हो या आतंरिक सुरक्षा, भारतीय सुरक्षा बलों की तरफ से पहली गोली कभी नहीं चली, मगर आज सेना को घाटी के जिन नाजुक हालात में कठिन परिस्थितियों का सामना करके आतंक से दूषित हो चुके माहौल में आतंकियों से जूझना पड़ता है। साथ ही नियंत्रण रेखा पर पड़ोसी देश द्वारा सीजफायर का उल्लंघन करके माहौल को अशांत व तनावग्रस्त किया जाता है। निर्दोष सैनिकों का देश के लिए खून बह रहा है। इस पर मंथन होना चाहिए, इस पर कठोर फैसले और ठोस नीति की जरूरत है। सीजफायर जैसे दिशाहीन निर्णय का असर अब सबके सामने है। घाटी में कई सालों से भारतीय सेना द्वारा ‘आपरेशन सद्भावना’ चलाया जा रहा है, जिसके अंतर्गत शिक्षा क्षेत्र के साथ कई प्रशासनिक कार्य भी किए जाते हैं, ताकि कश्मीरी अवाम के साथ अच्छे संबंध स्थापित हो सकें। इसी आपरेशन सद्भावना के तहत हर साल हजारों की संख्या में कश्मीरी स्कूली छात्रों को करोड़ों रुपए खर्च करके भारत भ्रमण पर भारत के कई राज्यों में भेजा जाता है, मगर भ्रमण से लौटने के बाद जब यही छात्र वापस घाटी में प्रवेश करते हैं, दुर्भाग्य से वहां के अलगाववादी संगठनों के बहकावे में आकर सेना के ऊपर पत्थरबाजी करनी शुरू कर देते हैं। इससे आतंकियों के खिलाफ सैन्य कार्रवाइयों में बाधा तो पड़ती ही है, साथ ही कई सैनिक घायल भी हो चुके हैं।

ऊपर से वहां के स्थानीय लोगों और नेताओं द्वारा इन आतंकी और पत्थरबाजों को ‘भटके नौजवान, पोस्टर ब्वाय’ जैसी उपाधियां दे दी जाती हैं। इसके अलावा इनके प्रति नरम रुख की हिमायत की जाती है, जिसका उदाहरण वहां की सरकार द्वारा 2008 से लेकर 2017 तक 9730 पत्थरबाजों के केस वापस लेना है। इन्हीं फैसलों से पत्थरबाजों के हौसले और भी बुलंद हुए हैं। इसी कारण देश में और सैन्य समाज में आक्रोश का माहौल फैलता है। जो लोग लोकतंत्र को छोड़कर पत्थरतंत्र पर विश्वास रखते हों, उनके लिए रमजान या कोई भी उत्सव कोई मायने नहीं रखता, ये लोग हिंसात्मक वारदातों को अंजाम देने में लगे रहते हैं। इसलिए हुक्मरानों से आग्रह रहेगा कि देश की रक्षा के लिए वे स्पष्ट नीति निर्धारित करें। यह राजनीतिक गरिमा की लड़ाई है, इसलिए राष्ट्र रक्षा से किसी भी कीमत पर समझौता नहीं होना चाहिए।

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