कष्ट और दुख बाबा हरदेव

By: Jun 23rd, 2018 12:05 am

 ‘ज्ञानी काटे ज्ञान से, अज्ञानी काटे रोय।’ अब दुख के होने का अर्थ है कि मनुष्य जब कष्ट से अपने आप को जोड़ लेता है, तब उसे दुख होता है और अगर मनुष्य अपने आप को कष्ट से न जोड़े, तो इसे दुख नहीं होता। अपने आप को कष्ट से न जोड़ना एक क्रांतिकारी घटना है और मनुष्य के भीतर साक्षी भाव का जाग जाना है…

हम जान रहे हैं कि पांव में पीड़ा हो रही है। इस सूरत में हम केवल जानने वाले होते हैं, देखने वाले होते हैं वे साक्षी मात्र होते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि जब हम केवल साक्षी होंगे, तो पांव में कांटा चुभने की पीड़ा हमको नहीं होगी। पीड़ा और कष्ट हमको जरूर होगा, लेकिन इस सूरत में हमें दुख नहीं होगा, क्योंकि दुख तब होता है, जब हम कष्ट के साथ अपने आपको एक कर लेते हैं, जब हम कहते हैं कि हमें कांटा चुभ रहा है तब ‘दुख’ होता है। हमारे पांव को कांटा चुभ गया है और हम केवल देख रहे हैं तब हमें केवल कष्ट होता है। चुनांचे जब भगवान श्रीकृष्ण जी महाराज के पांव में किसी ने तीर मार दिया था, तो भगवान श्रीकृष्ण जी को पांव में पीड़ा, दर्द और कष्ट तो जरूर हुआ होगा, मगर ‘दुख’ नहीं हुआ। इसी प्रकार जब हजरत ईसा को सूली पर चढ़ाया, तो उनके शरीर को कष्ट हुआ, मगर दुख नहीं हुआ, क्योंकि पांव में तीर लगने और शरीर को कष्ट मिलने पर पांव के और शरीर के तंतुओं में तनाव और परेशानी तो जरूर हुई होगी और अनुभव में भी आया होगा कि परेशानी हो रही है, लेकिन इनके भीतर कोई हलचल न हुई होगी, इनकी चेतना, अलिप्त, असंग और निर्दोष ही रही होगी मानो दुख है कष्ट के साथ तादात्म्य, कष्ट के साथ एक हो जाना। इसलिए ज्ञानी जनों को दुख नहीं होता। हां! इन्हें कष्ट तो जरूर होता है, क्योंकि ज्ञानी जन तो सजग होकर बस देखते रहते हैं। इनका दिल बिलकुल दर्पण जैसा होता है। इन्हें सब साफ-साफ दिखाई पड़ता है। चुनांचे यह ‘कष्ट’ को उसकी पूर्णता में जानते हैं, जबकि अज्ञानी कष्ट को पूर्णता से नहीं जान पाता, इस वजह से इसका मन दुख रूपी धुएं में भर जाता है और यह रोना-धोना शुरू कर देता है और इस रोने-धोने में अपने आप को भुला देता है, क्योंकि दुख की छाया उसके कष्ट को ढांक लेती है। शायद इसीलिए आम आदमी ने दुख में डूब जाना ही आसान समझ लिया है। यह इसका कष्ट से बचने का एक उपाय है।

ज्ञानी काटे ज्ञान से, अज्ञानी काटे रोय।’

अब दुख के होने का अर्थ है कि मनुष्य जब कष्ट से अपने आप को जोड़ लेता है, तब उसे दुख होता है और अगर मनुष्य अपने आप को कष्ट से न जोड़े, तो इसे दुख नहीं होता। अपने आप को कष्ट से न जोड़ना एक क्रांतिकारी घटना है और मनुष्य के भीतर साक्षी भाव का जाग जाना है। अगरचे साक्षी भाव से हमारे कष्ट का छुटकारा तो नहीं होता तदापि साक्षी भाव से हम कष्टों से दूर रहेंगे। फिर दोनों के बीच एक फासला होगा और हम केवल देखने वाले ही होंगे। फिर हम भोक्ता नहीं होंगे। अंत में कहना पड़ेगा कि जब हम शरीर से अपने आप को एक समझ लेते हैं, तो फिर बहुत तरह के कष्ट हमारे दुख का कारण बन जाते हैं और इसी प्रकार मन से अपने आप को एक समझ लेते हैं, तो बहुत तरह की मानसिक व्यथाएं, चिंताएं हमको घेर लेती  हैं, हम इनसे घिर जाते हैं, बस यही एक उपाय है कि हम अपने को शरीर और मन से अलग करने की कला पूर्ण सद्गुरु द्वारा सीख लें, फिर बेशक शरीर में कष्ट आते रहें, हम दूर खड़े देखते रहेंगे।


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