देवकीनंदन खत्री : जिन्हें पढ़ने को लोगों ने सीखी हिंदी

By: Jun 17th, 2018 12:10 am

इस माह जन्म पर विशेष

देवकीनंदन खत्री (जन्म-29 जून, 1861 ई.; बिहार; मृत्यु-1 अगस्त, 1913 ई., बनारस) हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे। उन्होंने चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, गुप्त गोंडा, कटोरा भर और भूतनाथ जैसी रचनाएं कीं। भूतनाथ को उनके पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने पूरा किया था। हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में उनके उपन्यास चंद्रकांता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस उपन्यास ने सबका मन मोह लिया था। इस किताब का रसास्वादन करने के लिए कई गैर-हिंदीभाषियों ने हिंदी भाषा सीखी। बाबू देवकीनंदन खत्री ने तिलिस्म, ऐय्यार और ऐय्यारी जैसे शब्दों को हिंदी भाषियों के बीच लोकप्रिय बना दिया।

जीवनी

देवकीनंदन खत्री जी का जन्म 29 जून, 1861 (आषाढ़ कृष्ण पक्ष सप्तमी संवत् 1918) शनिवार को पूसा, मुजफ्फरपुर, बिहार में हुआ था। उनके पिता का नाम लाला ईश्वरदास था। उनके पूर्वज पंजाब के निवासी थे और मुगलों के राज्यकाल में ऊंचे पदों पर कार्य करते थे। महाराज रणजीत सिंह के पुत्र शेरसिंह के शासन काल में लाला ईश्वरदास काशी (आधुनिक बनारस) आकर बस गए। देवकीनंदन खत्री जी की प्रारंभिक शिक्षा उर्दू-फारसी में हुई थी। बाद में उन्होंने हिंदी, संस्कृत एवं अंग्रेजी का भी अध्ययन किया।

व्यवसाय की शुरुआत

मुजफ्फरपुर देवकीनंदन खत्री के नाना-नानी का निवास स्थान था। इनके पिता लाला ईश्वरदास अपनी युवावस्था में लाहौर से काशी आए थे और यहीं रहने लगे थे। देवकीनंदन खत्री का विवाह मुजफ्फरपुर में हुआ था और गया जिले के टिकारी राज्य में अच्छा व्यवसाय था। आरंभिक शिक्षा समाप्त कर वे टेकारी इस्टेट पहुंच गए और वहां के राजा के यहां कार्य करने लगे। बाद में उन्होंने वाराणसी में एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की और 1883 में हिंदी मासिक पत्र ‘सुदर्शन’ को प्रारंभ किया।

चंद्रकांता

कुछ दिनों बाद उन्होंने महाराज बनारस से चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठेका ले लिया था। इस कारण से देवकीनंदन की युवावस्था अधिकतर उक्त जंगलों में ही बीती थी। देवकीनंदन खत्री बचपन से ही घूमने के बहुत शौकीन थे। इस ठेकेदारी के कार्य से उन्हें पर्याप्त आय होने के साथ-साथ घूमने-फिरने का शौक भी पूरा होता रहा। वह लगातार कई-कई दिनों तक चकिया एवं नौगढ़ के बीहड़ जंगलों, पहाडि़यों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की खाक छानते रहते थे। बाद में जब उनसे जंगलों के ठेके वापस ले लिए गए, तब इन्हीं जंगलों, पहाडि़यों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की पृष्ठभूमि में अपनी तिलिस्म तथा ऐय्यारी के कारनामों की कल्पनाओं को मिश्रित कर उन्होंने ‘चंद्रकांता’ उपन्यास की रचना की। इन्हीं जंगलों और उनके खंडहरों से देवकीनंदन खत्री को प्रेरणा मिली थी, जिसने चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, भूतनाथ जैसे ऐय्यारी और तिलस्मी उपन्यासों की रचना कराई। इससे वह हिंदी साहित्य में अमर हो गए। उनके सभी उपन्यासों का सारा रचना तंत्र बिलकुल मौलिक और स्वतंत्र है। इस तिलस्मी तत्त्व में उन्होंने अपने चातुर्य और बुद्धि-कौशल से ऐय्यारी वाला वह तत्त्व भी मिला दिया था, जो बहुत कुछ भारतीय ही है। यह परम प्रसिद्ध बात है कि 19वीं शताब्दी के अंत में लाखों पाठकों ने बहुत ही चाव और रुचि से उनके उपन्यास पढ़े और हजारों आदमियों ने केवल उनके उपन्यास पढ़ने के लिए हिंदी सीखी। यही कारण है कि हिंदी के सुप्रसिद्ध उपन्यास लेखक श्री वृंदावनलाल वर्मा ने इनको हिंदी का ‘शिराजी’ कहा है।

चंद्रकांता की रचना

बाबू देवकीनंदन खत्री ने जब उपन्यास लिखना प्रारंभ किया, उस समय में अधिकतर हिंदू लोग भी उर्दू भाषा ही जानते थे। इस प्रकार की परिस्थितियों में खत्री जी ने मुख्य लक्ष्य बनाया, ऐसी रचना करना जिससे देवनागरी हिंदी का प्रचार व प्रसार हो। यह इतना सरल कार्य नहीं था। किंतु उन्होंने ऐसा कर दिखाया। चंद्रकांता उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि उस समय जो लोग हिंदी लिखना-पढ़ना नहीं जानते थे या केवल उर्दू भाषा ही जानते थे, उन्होंने केवल इस उपन्यास को पढ़ने के लिए हिंदी सीखी। इसी लोकप्रियता को ध्यान में रख कर उन्होंने इसी कथा को आगे बढ़ाते हुए दूसरा उपन्यास चंद्रकांता संतति लिखा, जो चंद्रकांता की अपेक्षा अधिक रोचक था। इन उपन्यासों को पढ़ते समय पाठक खाना-पीना भी भूल जाते थे। इन उपन्यासों की भाषा इतनी सरल है कि पांचवीं कक्षा के छात्र भी इन पुस्तकों को पढ़ लेते हैं। पहले दो उपन्यासों के 2000 पृष्ठ से अधिक होने पर भी, एक भी क्षण ऐसा नहीं आता, जहां पाठक ऊब जाएं।

प्रमुख रचनाएं

चंद्रकांता (1888 -1892) : चंद्रकांता उपन्यास को पढ़ने के लिए लाखों लोगों ने हिंदी सीखी। यह उपन्यास चार भागों में विभक्त है। पहला प्रसिद्ध उपन्यास चंद्रकांता सन् 1888 ई. में काशी में प्रकाशित हुआ था। उसके चारों भागों के कुछ ही दिनों में कई संस्करण हो गए थे। चंद्रकांता संतति (1894-1904) : चंद्रकांता की अभूतपूर्व सफलता से प्रेरित होकर देवकीनंदन खत्री ने चौबीस भागों वाले विशाल उपन्यास चंद्रकांता संतति की रचना की। उनका यह उपन्यास भी अत्यधिक लोकप्रिय हुआ। भूतनाथ (1907-1913) (अपूर्ण) : चंद्रकांता संतति के एक पात्र को नायक बना कर देवकीनंदन खत्री जी ने इस उपन्यास की रचना की। किंतु असामायिक मृत्यु के कारण वह इस उपन्यास के केवल छह भाग ही लिख पाए। आगे के शेष पंद्रह भाग उनके पुत्र दुर्गाप्रसाद खत्री ने लिख कर पूरे किए। भूतनाथ भी कथावस्तु की अंतिम कड़ी नहीं है। इसके बाद बाबू दुर्गाप्रसाद खत्री लिखित ‘रोहतास मठ’ (दो खंडों में) आता है।

भूतनाथ

चंद्रकांता से उत्साहित होकर उन्होंने चंद्रकांता संतति लिखना आरंभ कर दिया जिसके कुल 24 भाग हैं। दस वर्षो में ही बहुत अधिक कीर्ति और यश संपादित कर चुकने पर और अपनी रचनाओं का इतना अधिक प्रचार देखने पर सन् 1898 ई. में उन्होंने अपने निजी प्रेस की स्थापना की। वह सदा से स्वभावतः बहुत ही लहरी अर्थात् मनमौजी और विनोदप्रिय थे। इसीलिए देवकीनंदन खत्री ने अपने प्रेस का नाम भी लहरी प्रेस रखा था। देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों में कई ऐय्यारों और पात्रों के जो नाम आए हैं वे सब उन्होंने अपनी मित्रमंडली में से ही चुने थे और इस प्रकार उन्होंने अपने अनेक घनिष्ट मित्रों और संगी साथियों को अपनी रचनाओं के द्वारा अमर बना दिया था।

हिंदी साहित्य में स्थान

देवकीनंदन खत्री की सभी कृतियों में मनोरंजन की जो इतनी अधिक कौतूहलवर्धक और रोचक सामग्री मिलती है, उसका सारा श्रेय देवकीनंदन खत्री के अनोखे और अप्रतिम बुद्धिबल का ही है। हिंदी के औपन्यासिक क्षेत्र का उन्होंने आरंभ ही नहीं किया था, उसमें उन्होंने बहुत ही उच्च, उज्ज्वल और बेजोड़ स्थान भी प्राप्त कर लिया था। भारतेंदु के उपरांत वह प्रथम और सर्वाधिक प्रकाशमान तारे के रूप में हिंदी साहित्य में आए थे।

निधन

खेद है कि देवकीनंदन खत्री ने अधिक आयु नहीं पाई और प्रायः 52 वर्ष की अवस्था में ही काशी में 1 अगस्त, 1913 को वह परलोकवासी हो गए।


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