धर्म भाव की जागृति

By: Jun 16th, 2018 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

ऐसी अवस्था में उस चोर की क्या दशा होगी? उसे न तो नींद आएगी, न उसे खाने या अन्य कोई काम करने में रुचि रह जाएगी। उसका सारा मन इस बात में ही लगा रहेगा कि सोना किस तरह हाथ लगे। क्या तुम ऐसा समझते हो कि यह निश्चित विश्वास होते हुए भी कि परमात्मा सुख, आनंद एवं ऐश्वर्य की खान है और वह हमारे पास ही है, लोग ऐसा ही आचरण करते रहेंगे, जैसा कि आज वे कर रहे हैं और परमेश्वर प्राप्ति का तनिक भी प्रयत्न न करेंगे?’ ज्यों ही मनुष्य विश्वास करने लगता है कि परमेश्वर विद्यमान है, वह उसे पाने के लिए पागल हो जाता है। लोग अपनी राह भले ही जाएं, लेकिन जब मनुष्य को यह विश्वास हो जाता है कि जैसा जीवन वह आज व्यतीत कर रहा है, उससे कहीं ऊंचा जीवन व्यतीत कर सकता है और ज्यों ही उसे निश्चित रूप से यह अनुभव होने लगता है कि इंद्रियां ही सर्वस्व नहीं हैं, यह मर्यादित जड़ शरीर उस शाश्वत, चिरंतन और अमर आत्मनंद के सामने कुछ नहीं है, तो वह उन्मत्त हो जाता है और उस परमानंद को स्वयं ढूंढ निकालता है। यह वह पागलपन है, वह प्यास है, वह उन्माद है, जिसका नाम है धर्म भाव की जागृति और जब वह जाग्रत हो जाता है, तो मनुष्य धर्मप्रवण बनने लगता है। पर इसके लिए बहुत समय लगता है।

ये सब प्रतीक और विधियां, ये प्रार्थनाएं और ये तीर्थ यात्राएं, ये ग्रंथ, घंटियां, मोमबत्तियां और पुरोहित,ये सब पूर्व तैयारियां मात्र हैं। इनसे मन का मैल दूर हो जाता है और जब जीव शुद्ध हो जाता है, तो स्वभावतः ही वह पवित्रता स्वरूप परमात्मा की ओर जाना चाहता है। शताब्दियों की धूमल से सना लोहा जिस तरह लोह चुंबक के पास पड़े रहने से भी उसकी ओर नहीं खिंचता और जैसे धूल साफ हो जाने के बाद वही लोहा चुंबक की ओर स्वयं खिंचने लगता है, उसी प्रकार युगानुयुग की धूल से, अपवित्रता, दृष्टता और पापों से सना हुआ यह जीव जब अनेक जन्मों के बाद इन उपासनाओं और विधियों द्वारा, दूसरों की भलाई और सर्वभूतों के प्रति प्रेम द्वारा शुद्ध हो जाता है, तब उसका स्वाभाविक आध्यात्मिक आकर्षण जाग्रत हो जाता है, वह जाग उठता है और परमेश्वर की ओर जाने का यत्न करने लगता है। तो भी ये विधियां और प्रतीक केवल आरंभ के लिए उपयुक्त हैं, यह ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम नहीं है।

सर्वत्र हम प्रेम के बारे में सुना करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति कहता है, ‘ईश्वर से प्रेम करो।’ मनुष्य यह नहीं जानता कि प्रेम करने का तात्पर्य क्या है, यदि वह जानता होता, तो इस तरह बकवाद न करता। प्रत्येक मनुष्य कहता है कि वह प्यार कर सकता है और कुछ ही समय बाद उसे दिखने लगता है कि प्यार करना उसके स्वभाव में ही नहीं है। हर एक स्त्री कहती है कि वह प्यार करती है, पर शीघ्र ही उसे पता लग जाता है कि वह प्यार नहीं कर सकती। दुनिया में प्यार सिर्फ बातों में है। प्यार करना बड़ा कठिन है। प्यार है कहां? तुम कैसे जानते हो कि प्रेम का अस्तित्व है? प्रेम का पहला लक्षण यह है कि वह व्यापार नहीं जानता। जहां कहीं खरीदने और बेचने का सवाल आया, वहां प्रेम नहीं है।

– क्रमशः


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