प्रकृति को विध्वंस की ओर ले जाता मानव

By: Jun 16th, 2018 12:05 am

बचन सिंह घटवाल

लेखक, मस्सल, कांगड़ा से हैं

हालांकि अभी मानसून उत्तरी भारत की तरफ क्रियाशील हो रहा है। मानसून जब चरमसीमा पर होगा, न जाने कहां बादल फटेगा, कहां बिजली गिरेगी और बाढ़ की चपेट में कितने ही घर जमींदोज होंगे, परंतु मानव का जिम्मा प्रकृति से समन्वय बनाने का अगर हो तो हम कई घटनाओं से अपने को बचा सकते हैं…

पहाड़ों की खूबसूरती हर व्यक्ति को लालायित करती है, फिर चाहे वादियों में पहाडि़यों का दूर तक फैला सिलसिला हो या बलखाती सड़कों से पहाडि़यों का निकटतम साक्षात्कार। समीर में खुशबू प्रवाहित करती पहाडि़यां व्यक्ति को नवजीवन प्रदान कर जाती हैं। यूं तो पहाड़ों की सुंदरता का आवरण मौसम व ऋतु चक्र के अनुसार परिवर्तित होता रहता है, परंतु कभी सर्दियों में बर्फ की सफेद चादर ओढ़े पहाडि़यां सैलानियों के आकर्षण का मुख्य केंद्र बन जाती हैं, तो कभी वसंत में फूलों से महकता पूरा वातावरण पहाडि़यों को अपने रंग में रंगमय बना देता है। दृष्टिगत होती पहाडि़यों के सुंदर नजारे को आज मानव आधुनिकता के लिबास में ओढ़ने की कोशिश करता हुआ उसे बदरंग बनाने में क्रियाशील नजर आ रहा है। जी हां, हम हिमाचली पहाडि़यों पर व्यवस्थित हरित सुंदर परिदृश्य में खाक होते पेड़ों की बदरंग रंगत के आदी नहीं हैं, तब क्यों पहाडि़यों को स्वाह किया जा रहा है। इतने से भी बात का दौर थमा नहीं है, बल्कि व्यक्ति सजग प्रकृति को सहेजने की क्रिया को दोहराता, इसके बावजूद मानव निर्मित असंख्य संसाधनों के दुरुपयोग आज पृथ्वी को विनाशकारी बना रहे हैं। अब पहाडि़यों को कुरेदने का क्रम निरंतर जारी है और हरियाली की जगह नंगे पहाड़ों का चित्र दुविधा में डाल जाता है।

कई बार हम प्रकृति को ही खूबसूरती पर ग्रहण लगाने का आरोप लगा जाते हैं और ज्यादातर मौकों में हम खूबसूरती के सुंदर नजारों को अपने हाथों खाक कर जाते हैं। धरा पर पसरा कचरा, प्लास्टिक निर्मित वस्तुओं से व्यक्ति को आकर्षित करता हुआ उसे बदरंग बनाने में आमादा नजर आ रहा है, परंतु अव्यवस्थित गंदगी को हटाने की कितने लोग कोशिश करते हैं, सर्वविदित है। अभी बरसात की शुरुआत का प्रथम चरण दस्तक देने की तैयारी में है। मानसून चक्रवात का कहर समय-समय पर प्रलयकारी रूप धारण कर लेता है। बाढ़, चट्टानों का खिसकना, जमीन का धंसना इसमें आम हो जाता है। मानसून के श्रीगणेश से पहले ही रामपुर में बादल फटने की घटना ने हमें चौंका दिया है। बादल का फटना पहाड़ों को बरसाती मानसून की एक आहट भर दे गया है। गनीमत रही कि इस घटना के परिणामस्वरूप किसी मानवीय जीवन को क्षति नहीं हुई।

हालांकि अभी मानसून उत्तरी भारत की तरफ क्रियाशील हो रहा है। मानसून जब चरमसीमा पर होगा, न जाने कहां बादल फटेगा, कहां बिजली गिरेगी और बाढ़ की चपेट में कितने ही घर जमींदोज होंगे, परंतु मानव का जिम्मा प्रकृति से समन्वय बनाने का अगर हो तो हम कई घटनाओं से अपने को बचा सकते हैं। हमारा सरकारी तंत्र संग आपदा प्रबंधन की सक्रियता भी असंख्य जिंदगियां बचा सकती हैं। हमारा प्रकृति विरोधी छोटे से छोटा कदम हमें प्रताड़ना के सिवाय कुछ नहीं दे सकता। वर्षा की रिमझिम फुहार की आमद पर ज्यादातर गलियों-मोहल्लों की नालियों में प्रवाहित प्लास्टिक, कचरा नालियों को अवरुद्ध करने का काम करता है। इतना ही नहीं, पहाड़ों पर अस्त-व्यस्त फेंकी प्लास्टिक बोतलें और अन्य कचरा पहाड़ों की दास्तान अलग से बयान कर जाता है। गलती का खामियाजा कोई और भुगते हमारी बला से। जब तक तर्कपूर्ण व जागृति का संदेश कोई ठीक ढंग से अपने हृदय में उतार नहीं लेता, तब तक हम अपने जीने की लालसा में दूसरों के पांवों तले कांटे बिछाते चले जाते हैं और जब बात स्वयं पर कर गुजरती है, तब हम दूसरों को आगाह करने का संदेश देकर अपना दायित्व निभाते नजर आते हैं। मानव थर्मोकोल निर्मित प्लेटों व कपों से परिचित होते हुए भी उनका प्रयोग निरंतर जारी रखे हुए है। क्या हम नहीं देखते कि पार्टियों या विवाह शादियों में प्रयुक्त प्लास्टिक प्लेटों का कचरा किस तरह आसपास गंदगी के ढेर लगा जाता है, जो कई-कई दिनों तक यूं ही हवा के तीव्र झोंकों संग कभी यहां-कभी वहां पसरता पूरे गांव, शहर का भ्रमण कर लेता है। कहते हैं जब आंख खुले तभी सवेरा। पर्यावरण के निखार हेतु व प्लास्टिक कचरे के उन्मूलन के लिए वचनबद्ध भारत, राज्य स्तर पर अपने बलबूते कचरा निपटाने के लिए सजग हो गया है। प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने प्रदेश में प्लास्टिक कचरे को ठिकाने लगाने हेतु थर्मोकोल से बनी प्लेटों व कपों को प्रतिबंधित करने का बीड़ा उठाया है, जिसके दूरगामी परिणाम प्रदेश की खूबसूरती को निखारने हेतु एक नवीन पहल है।

शनैः शनैः बदलते जीवन परिदृश्यों में अगर प्रकृति के साथ एकाकार होकर जबरदस्ती का व्यवहार न करें तो कहानी कुछ और ही होगी। प्रकृति से खिलवाड़ के अनगिनत पहलुओं को अगर खंगाला जाए तो हम स्वयं ही अपनी सांसें रोक देने के लिए गैसों के बवंडर संग खेल रहे हैं। दूसरी तरफ पानी संग खिलवाड़ जारी है, जिससे धरती को शुष्क बनाने के क्रम में मानव आग में घी डालने का कार्य कर रहा है। दूषित जल से व्यथित मानव खुद ही समझ पाने में असमर्थ नजर आ रहा है कि आगे क्या होगा। पेड़ उगाने के प्रयत्न जितनी सक्रियता संग होते हैं, उतनी तीव्रता से पेड़ों का धराशायी होना भी निरंतर जारी है। पेड़ों को काटने के लिए तत्पर मानव अपनी कुल्हाड़ी के किनारों को और तेज व धारधार बनाने में लगा है। प्रकृति विनाशक कार्यप्रणालियों पर मानव विराम लगाने में अगर और देर करेगा, तब तक हम हाथ मलते ही रह जाएंगे और प्रकृति को अपने हाथों विध्वंस करने में जिम्मेदार केवल एक ही प्राणी होगा और वह होगा मानव।


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