लेखक का निष्पक्ष व निर्भय होना जरूरी

By: Jun 3rd, 2018 12:10 am

साहित्य में शब्द की संभावना शाश्वत है और इसी संवेग में बहते कई लेखक मनीषी हो जाते हैं, तो कुछ अलंकृत होकर मानव चित्रण  का बोध कराते हैं। लेखक महज रचना नहीं हो सकता और न ही यथार्थ के पहियों पर दौड़ते जीवन का मुसाफिर, बल्कि युगों-युगों की शब्दाबली में तैरती सृजन की नाव पर अगर कोई विचारधारा अग्रसर है, तो उसका नाविक बनने का अवसर ही साहित्यिक जीवन की परिभाषा है, जो बनते-संवरते, टूटते-बिखरते और एकत्रित होते ज्वारभाटों के बीच सृजन की पहचान का मार्ग प्रशस्त करता है। यह शृंखला किसी ज्ञान या साहित्य की शर्तों से हटकर, केवल सृजन की अनवरत धाराओं में बहते लेखक समुदाय को छूने भर की कोशिश है। इस क्रम में जब हमने अजय पाराशर के काव्य संग्रह ‘मौन की अभिव्यक्ति’ की पड़ताल की तो साहित्य के कई पहलू सामने आए…

-गतांक से आगे…

दिहि : मीडिया कभी साहित्य के आंगन में फूलों की तरह खिलता था, लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहित्य की मौजूदगी से समाज और समय के ये आदर्श भी गुम हो गए। वास्तव में लेखक किसके साथ खड़ा है?

अजय :  कभी मीडिया और साहित्य एक-दूजे के पूरक थे। साहित्यकार गुणी, अनुभवी तथा अध्ययनशील थे और पत्रकार भी। साहित्य की विधाएं, मीडिया का अनिवार्य अंग थीं। सत्यजीत रे, खुशवंत सिंह, भीष्म साहनी, गुलजार, मंटो, सफदर हाशमी, पाश, हिमांशु जोशी, धर्मवीर भारती, नागार्जुन जैसे नाम दोनों जगह मान्य हैं। देखा जाए तो एक संवेदनशील व्यक्ति ही अच्छा साहित्यकार और मीडियाकर्मी हो सकता है, क्योंकि इन दोनों से पहले उसका अच्छा इनसान होना जरूरी है। जब आदमी मुखौटा लगाता है तो मूल्यों का पतन अवश्यंभावी है। अगर आप इतिहास में झांकें  तो हर युग इन परिस्थितियों से दो-चार हुआ है। भांड, हर युग में हुए हैं, फिर चाहे वे साहित्यकार ही क्यों न हों। वर्तमान में विगत के अवमूल्यन के अलावा बाजार के जुड़ जाने से परिस्थितियां भयावह होती जा रही हैं। लेकिन…., लेकिन हर रात की सुबह तो होती ही है। जहां तक लेखक का प्रश्न है तो मुझे लगता है कि लेखक का किसी के साथ खड़े होने की बजाय खुद के साथ खड़ा होना जरूरी है। जरूरी है उसका ईमानदार होना, अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनने के लिए। लेखक का सुकरात, गैलिलियो, फैज, पाश, हाशमी, प्रीतीश नंदी, तसलीमा या लंकेश न रहने पर व्यक्ति तो जिंदा रह जाएगा; लेकिन लेखक मर जाएगा। दुर्र्भाग्य से आज यही हो रहा है। लेखक का गंभीर, निष्पक्ष और निर्भय होना अनिवार्य है और यही गुण एक पत्रकार में ही नहीं, हर सृजनकर्ता में होने चाहिए। साहित्यकार को फलों से लदे पेड़ की तरह होना चाहिए। हमें देखना होगा कि हमारा व्यक्तित्व वास्तविक है या नहीं। कहीं हम ऐसे फल तो नहीं जो दूर से रसीले और चमकदार नजर आ रहे हों; लेकिन नजदीक पहुंचने पर पता चले कि ये फल तो कहीं खंभे पर लटके हुए हैं।

दिहि : विशिष्ट लेखन की बुनियादी जरूरतों के बीच पिछले कुछ सालों में हिमाचल की साहित्यिक यात्रा को किस मुकाम पर देखते हैं। लकीरों के आगे जिन्हें देखते हैं या जहां रचनाएं आपको पाठक बना देती हैं सिर्फ?

अजय : मुझे लगता है कि सिर्फ लिखने के लिए ही नहीं लिखा जाना चाहिए। साहित्य, स्वहित और समाज हित दोनों के लिए कहा जाना चाहिए। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ दर्शन पर आधारित साहित्य सबके लिए हितकारी होता है और कालातीत भी। पश्चिमी देशों में साहित्यकारों पर शोध का पैमाना है, उनके अवसान के सौ सालों बाद उनके सृजन की उत्तरजीविता। हमारे यहां तो खुद पर शोध के लिए साहित्यकार स्वयं ही शोधार्थियों को प्रेरित करते हैं। लेकिन ऐसा साहित्य या तो उनके जीवन काल तक ही जिंदा रहता है या फिर पुस्तकालयों में धूल चाटता है। खैर, इन सबके मध्य हिमाचल में बेहतर सृजन हो रहा है। मैं किसी नाम विशेष पर नहीं जाऊंगा; लेकिन अच्छा लिखने और करने वाले हर विधा में हर स्तर पर, अपनी आमद दर्ज करवा रहे हैं।

दिहि : लेखन का व्यक्तित्व पर असर समझना हो तो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में, साहित्यकारों के सानिध्य में देश किस कौशल में निपुण है और कहां भाषा की मर्यादा में शब्द ठहर गए या बदल गए प्रतीत होते हैं?

अजय : इस प्रश्न के पहले भाग का जवाब वास्तव में दुरूह है। जब साहित्य हाशिए पर सिमटता जा रहा हो, लोग अपना अधिकांश समय टी.वी. या सोशल मीडिया की छांव में गुजार रहे हों, उनके पास पढ़ने-लिखने का समय न हो और अगर पढ़ें भी तो लुगदी या चूड़ी साहित्य, जिसे आज बैस्ट सेलर की संज्ञा दी जा रही है, ऐसे में साहित्यकारों के सानिध्य में देश के किसी कौशल में निपुण होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अधिकांश लोग बाह्य जीवन ढो रहे हैं और जो वास्तव में जी रहे हैं, उनमें इतनी समझ है कि क्या पढ़ना है? जहां तक भाषा की मर्यादा में शब्दों के ठहरने या बदलने का प्रश्न है तो जब लोग खुद से कटकर, दोहरी जिंदगी जिएंगे, ऐसा ही होगा। साहित्यकार समाज से भिन्न नहीं। भटका हुआ व्यक्ति दूसरे को क्या राह दिखाएगा? बेहतर सृजन के लिए अनुभव, अध्ययन और चिंतन-मनन आवश्यक है। इनके अभाव में भाषा का ठहरना आश्चर्य पैदा नहीं करता। कहीं पर कोई भी शब्द डाल दो, जब मर्यादा ही नहीं तो फिर काहे का गम या फिक्र? ‘सब चलता है’, वाला रवैया अब साहित्य पर भी चोट कर रहा है। हर युग में तथ्यों और शब्दों का अपनी मर्जी से अर्थ निकालने की प्रवृत्ति से बचा जाना चाहिए, नहीं तो महाभारत घटेगा ही।

दिहि : कहानी की बुनियाद पर टिके रहना, कविता की मियाद से बंधे रहना, आपके लिए कितने मायने रखता है। मन की उपज से साहित्यिक आंदोलन में आपका आक्रोश क्या है?

अजय : किसी भी साहित्यकार का अपने साथ टिका रहना सबसे अहम है। अगर वह ऐसा करने में ईमानदार और सक्षम है तो उसे पता होता है कि दिमाग में चलने वाली सच और कल्पना के समर में कब, किस ओर रहना है। यह मुश्किल अवश्य लगता है लेकिन इतना मुश्किल भी नहीं। आपकी निष्पक्षता आपकी मदद करती है। सबसे बड़ी मानवीय दुविधा है, उसका तत्काल प्रतिक्रियावादी होना। अगर हम इस प्रवृत्ति पर काबू पा सकें तो अधिकांश समस्याएं ऐसे ही समाप्त या हल हो जाती हैं। फिर चाहे बात कहानी-कविता की हो या अन्य किसी विधा की या कुछ और। आक्रोश, प्रतिक्रिया को जन्म देता है और प्रतिक्रिया, आक्रोश को। जब ये नहीं होंगे तो साहित्य चाहे सच से उपजे या मन से, सदा हितकारी होगा।

दिहि : सही और सामयिक मूल्यांकन में आपकी कविता, आध्यात्मिक और कहानी, वक्त की चोट पर खड़ी है। ऐसे में आपकी सृजनात्मक दुनिया, सच के साथ कितनी अस्थिर मानी जाएगी?

अजय : जब हम अद्वैत-द्वैत के सिद्धांत को समझने का प्रयास करेंगे तो पाएंगे कि अगर ब्रह्म सत्य है तो यह दुनिया भी मिथ्या नहीं हो सकती। दुनियावी दलदल से होकर ही अद्वैत तक पहुंचा जा सकता है। अगर हम मोक्ष की बात करते हैं तो मोक्ष किससे और कैसे? अगर शरीर या इस दुनिया से मोक्ष पाना है तो भी साधन तो देह और जगत् ही है। फिर क्या पाना और क्या खोना। सिर्फ अनुभूति है, जिसे यह सत्य अनुभूत हो गया, वही मुक्त है। लेकिन इसके लिए संस्काररहित और निईच्छा होना जरूरी है। अगर हम ईमानदारी से प्रयास करें तो समय भले ही लगे, लेकिन अध्यात्म जीवन में उतरना आरंभ हो जाता है। फिर कहानी-कविता ही नहीं, जीवन की सारी चर्या में अध्यात्म उतर आता है। इसमें कोई दोराय नहीं कि कविता साहित्य की सबसे संतुष्टि प्रदान करने वाली विधा है। यह जरूरी नहीं कि जीवन की तल्ख हकीकत में केवल कविता ही आध्यात्मिक होगी और कहानी वक्त की चोट पर खड़ी होगी। दोनों के सृजन का उद्देश्य समझना जरूरी है। जहां तक, सृजनात्मक दुनिया के सच के साथ अस्थिर होने का प्रश्न है तो व्यक्ति के मिट्टी होते ही सब मिट्टी हो जाता है क्योंकि बंधता तो व्यक्ति ही है। अगर सृजन ईमानदारी से किया गया है तो प्रकृति स्वयं उसका निर्धारण कर लेगी।

दिहि : आपके लेखन में पत्रकारिता का योगदान। अहमियत पाने के हथकंडों में मीडिया जिस टी.आर.पी. का गुलाम है, क्या वैसे ही साहित्य भी छपास के त्वरित मजमून में गुम हो रहा है?

अजय : दो दशक से अधिक जनसंपर्क में गुजारने के बाद भी अगर मेरा पत्रकार जिंदा है तो शायद उसकी वजह लेखन है। लेकिन यह भी सत्य है कि पत्रकारिता की कामकाजी परिस्थितियां पसंद न होने के बावजूद मैं ऐसे व्यवसाय में आया, जो मेरी प्रकृति से मेल नहीं खाता। पत्रकारिता में भले ही आप अखबार के हितों के लिए विचारों से समझौता करते हों, जन संपर्क में वही करना होता है जो निर्देशित होता है; जबकि लेखन में आप विषय चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। पत्रकारिता में एक गलत तथ्य आपके पूरे काम को नुकसान पहुंचा सकता है, इसके विपरीत लेखन में एक सही तथ्य आपके काम को न्यायोचित ठहराता है। पत्रकारिता और साहित्य में केवल यही अंतर है। यह लेखकीय प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है कि आप दोनों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। पत्रकारिता, जहां आपके अनुभव को विस्तार देती है, वहीं लेखन न्याय और वैधता प्रदान करता है। मीडिया, जैसे टी.आर.पी. की कैद में है, दुर्भाग्य से साहित्य भी ऐसी ही घातक प्रवृत्तियों से दो-चार है। त्वरित छपास, बैस्ट सेलर और पुरस्कारों की चाह में प्रकाशक विजयी हो रहे हैं और साहित्य हार रहा है। चाहे कम लिखा जाए, पर गुणपरक होना चाहिए।

दिहि : साहित्यकार को आम आदमी से कितना ऊपर या नीचे रखा जाए। जहां आदमी की हैसियत बाजार तय कर रहा हो, वहां साहित्यकार की हैसियत का तकाजा?

अजय : साहित्यकार पहले आम आदमी है, फिर साहित्यकार। अगर वह आम आदमी नहीं होगा तो समाज को समझेगा कैसे, अनुभव क्या करेगा और उकेरेगा कैसे? उसे आम आदमी से अलग कर देखना न्यायोचित नहीं। अगर ऐसा हुआ तो साहित्यकार विलक्षण प्राणी हो जाएगा और ऐसी विलक्षणता कभी साहित्य का भला नहीं कर सकती। उदाहरण के लिए अगर प्रेम चंद, अमृता प्रीतम, कैफी आजमी, साहिर, फैज, हरिशंकर परसाई आदि आम आदमी की तरह अनुभूत नहीं करते तो इतना गाढ़ा कैसे लिखते? बाबर, शरद जोशी, कैलाश वाजपेयी या लीलाधर जगूड़ी को देखें तो वे पहले आम आदमी थे, फिर बादशाह, नौकरशाह या साहित्यकार।

जहां तक, बाजार का प्रश्न है तो जब विश्व के शासनाध्यक्षों को कॉरपॅरेट जगत् ही नियंत्रित कर रहा है तो साहित्यकार, बतौर आम आदमी उससे कैसे अछूता रह पाएगा। हां, यक्ष प्रश्न है बतौर साहित्यकार उसकी ईमानदारी, निर्भयता, तटस्थता और निष्पक्षता का। अगर परिस्थितिवश उसे पेरूमल मुरगन की तरह अपनी मृत्यु की घोषणा करनी पड़ती है, तो इसका अर्थ है कि अभी साहित्य में बहुत कुछ किया जाना शेष है।  अगर साहित्यकार ऐसा है तो उसकी हैसियत बाजार तय नहीं कर सकता। सुकरात, मीरा, कबीर, पाश, हाशमी और लंकेश हर युग में अनमोल हैं। उन्हें न तो बाजार खरीद सकता है और न ही सत्ता झुका सकती है।

अजय पाराशर के काव्य संग्रह की तीन चयनित कविताएं

किसके होते हैं शब्द

तुम्हें पता है

शब्द, तब भी जिंदा रहते हैं

जब प्रलय होता है

जब सृष्टि विलीन

रहती है

तब भी और

जब सृष्टि प्रकट होती है तब भी

शब्द कभी मरते नहीं

बस घूमते रहते हैं फिजाओं में

यहीं कहीं, हमारे आस-पास ही।

जब कभी, हम उन तक पहुंच पाते हैं

तो हमें लगता है

हमारे हैं ये शब्द अैर इतराते हैं

अपने प्रकटे शब्दों पर

पर समझते नहीं कि

विचारों की शक्ल में ये शब्द

नए नहीं, पुराने हैं, सदियों पुराने

जिन्हें असंख्य लोग अब तक

पहले ही कर चुके हैं प्रयोग।

केवल भाषा के रूपांतर से

हम पाल लेते हैं

अपने खोजे नए शब्दों का भ्रम।

शब्दों के अर्थ

शब्दों के अर्थ उतने गहरे

जितने उन पर लगते पहरे

जितना ऊंचा दिल का आकाश

उतना बुलंद शब्द प्रकाश

अंधेरे का मौन जाने कहीं

शब्दों की यायावरी माने नहीं

शब्द बिना गले, बिना मिटे

करता है अभिव्यक्ति की प्रतीक्षा

सबका अपना अंदाज-ए-बयां है

शब्दों का एक मुकम्मल जहां है

शब्द, सृष्टि की आत्मा हैं

कालजयी शब्द, परमात्मा हैं

जमीं-ओ-आसमां में बनकर तरंग

उठें हर पल दिल में बनकर उमंग

हर शब्द है ऐसा फैलता बरगद

जिसकी सीमा न कोई सरहद

शब्द अजर हैं, अमर हैं

शब्द खुसरो हैं, कबीर हैं

भाषा, अभिव्यक्ति चाहे अलग

भावना, अर्थ नहीं होते विलग

शब्द होते हैं बोलने के लिए

लेकिन अर्थ जीने के लिए।

मां का घर

मेरे कहने पर नहीं छोड़ती मां

अपने पति का घर, अपना गांव

जैसे मैं चाह कर भी नहीं छोड़ सकता

अपनी नौकरी और शहर।

सोचता हूं अकसर जिस मां ने

परिवार को खड़ा करने और

मुझे अपनी मंजिल तक पहुंचाने में

होम दी अपनी सारी जिंदगी

क्यों नहीं रहना चाहती अब मेरे साथ

क्या नहीं चाहती फेरना

मेरे सिर पर अपना प्यार भरा हाथ

मेरे साथ बैठना-बतियाना

क्या उसे अच्छी नहीं लगती

अपनी बगिया की बहार।

मुझे लगता है मां अब बंट गई है

अपनी जिद और मेरी इच्छाओं के बीच

शायद उसे भारी लगता है

अपना घर और गांव छोड़ना।

मां के अतीत की तरह

मैं भी तो सुलग रहा हूं वर्तमान में

रोम-दर-रोम

अपने बीवी-बच्चों की खातिर

हर रोज देखता हूं खुद को बिखरते हुए

रेत की ढूही की तरह

पर सीमा पर तैनात एक सिपाही की तरह

खुद को खोकर भी

महफूज रखना चाहता हूं उन्हें।

सोचता हूं

कल, बच्चों के कहीं और सज जाने पर

क्या मैं छोड़ पाऊंगा अपना घर

उसी स्वाभिमान की खातिर

जो मां अब जीती है अकेले गांव में

तन्हा अपने घर में

झुके हुए कंधों पर

शान से उठाए

अपना सर।

सार

अजय पाराशर जी की कविताओं में गंभीरता के साथ चिंतन की एक धारा चलती है। वे कविता में आम जन को अपनी लेखनी का आधार बनाते हैं। उनकी अभिव्यक्ति सरल व सहज भाषा में है। शब्द गहन अर्थ लिए हुए हैं। वे संवेदना के कवि हैं तथा आम जन के दुख-दर्द को अपनी लेखनी का विषय बनाते हैं। अपनी अनुभूति को इस तरह व्यक्त करते हैं कि पाठक को निर्बाध रसास्वादन होने लगता है।

-विनोद कुमार

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