विष्णु पुराण

By: Jun 23rd, 2018 12:05 am

मैत्रेय श्रूयतां सम्यक् चरित धीमतः।

प्रह्लादस्य सदोदारचरितस्य महात्मनः।

दिते पुत्री महावीर्यो हिरण्यकश्पिः पुरा।

त्रैलोक्य वशमनिन्ये ब्रह्मणो वरदर्पितः।

इंद्रत्वमकरोददैव्य स चासीत्सविता स्वयम्।

वातुरग्निरपां नाथः सोमश्चाभून्महासुरः।

धनानार्माधपः सोऽभूत्स एवासीत्स्वय यमः।

यज्ञ भागाननेषांस्तु स स्वयं बुभुजेऽसुरः।

देवाः स्वर्ग परित्यज्य तत्त्रासान्मुनिसत्तम।

विचेरूरबर्ने सर्वे विम्राणा मानुषी तनुम्।

जित्वा त्रिभुवनं सर्व त्रैलोक्येदर्पितः।

उपगीयमानी गंधर्वेभुजे विषयान्प्रियान।

पानाक्तं महात्मन हिरण्यकशिपु तदा।

उपासञ्चकिरे सर्वे सिद्धगंधर्व पन्नगाः।

श्री पाराशरजी ने कहा, हे मैत्रेयजी! अब तुम उन मेधावी और उदार चेता महात्मा प्रह्लाद के चरित्र को ध्यान से सुनो। प्राचीन काल की बात है कि दिति, पुत्र हिरण्यकशिपु ने ब्रह्माजी से घर पारक अत्यंत गर्वपूर्वक तीनों लोकों को विजय किया था। वह दैव्य इंद्र पद पर बैठकर स्वयं ही सूर्य, वायु, अग्नि, वरुण और चंद्रमा बना हुआ था। वहीं कुबेर यमराज बन बैठा तथा वही संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता हो गया। हे मुनिश्रेष्ठ! उसके भय के कारण समस्त देवता स्वग्र का त्यागकर मनुष्य वेश में पृथ्वी पर घूमने लगे। इस प्रकार उसने तीनों लोको को वश में कर लिया और उस गर्व से गर्वित होकर गंधर्वों से अपनी स्तुति कराता और इच्छित भोगों का उपभोग करता था। उस समय सभी सिद्ध, गंधर्व, नाग इत्यादि उस मद्यमान आदि में आसक्त हिरण्यकशिपु की पूजा करने लगे थे।

अवादयन जगृश्चान्ये जयशब्द तथापरे।

दैत्यराजस्य तुरतश्चक्रुः सिद्धा मुदान्विता।।

तत्र प्रनृत्ताप्सरसि स्फाटिकाभ्रमयेऽसुरः।

पपौ मुदः युक्तः प्रसादे सुमनोहरे।।

तस्य पुत्रो महाभागः प्रह्लादी नाम नामतः।

पपाठ पालकाठ्यानि गुरुगेहङ्गतोऽर्भकः।।

एकदा तु स धर्मात्मा जगाम गुरुणा सह।

पानासक्तस्य पुरतः पितुदैत्यपतेस्तदा।।

पादप्रणामावनचं तमुत्थाप्य पिता सुतम्।

हिरण्यकशिपु प्राह प्रह्लादम मितौजसम।।

पठ्यतां भवता वत्स सार भूतं सुभाषितम।

कालेनैतावता यत्त सदोद्युक्तेन शिक्षितम।।

उप दैत्यराज हिरण्यकशिपु के समक्ष कोई सिद्ध बाजे बजाते और कोई सिद्ध उसका जय जयकार करते थे और वह असुर स्फटिक और अम्रशिला निर्मित सुरम्य भवन में पड़ा हुआ मद्यपान करता रहता था। उसी हिरण्यकशिपु का वह प्रह्लाद नामक अत्यंत भाग्यशाली पुत्र हुआ और वह गुरु के यहां आकर बालोचित शिक्षा ग्रहण करने लगा। एक दिन वह धर्मात्मा बालक अपने पिता दैत्यराज के पास अपने गुरु के साथ गया, जहां वह मद्यपान कर रहा था। उस समय उसका पुत्र उसके चरणों में झुक गया, जिसे उठाते हुए हिरण्यकशिपु बोले, हे पुत्र!

तुमने अध्ययन में लगे रहकर अब तक

जो कुछ शिक्षा प्राप्त की है उसे सार रूप में मुझे बताओ।

श्रूयतां तात बक्ष्यामि सराभूत तवाज्ञया।

समाहितमना भूत्वा यन्मे चेतस्यवस्थितम्।।

अनादिमध्यान्तमजबृद्धिक्षयममुच्यतम।

प्रणतीऽस्यन्तसन्तान सर्वकारणकारणम्।।

एतन्निशम्य दैत्येन्द्र सकोपी रुक्तलोचनः।

विलोक्य तद्गुरुं प्राह स्फुरिताधरपल्लवः।।

ब्रह्मबंधौ किमेतते विपक्षस्तुतिसंहितश।

असार ग्राहितो बलो मामवज्ञाय दुर्मते।।

दैत्येश्वर न कोपस्य वशमागंतुमर्हसि।

ममोपदेशजनितं नायं वदति ते सुतः।।

अनुशिष्टोऽसि केनेद्दकवत्स प्रह्लाद कथ्यताम।

मयौपदिष्टः नेत्थेष प्रवीति गुरुस्तव।।


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