समग्रतावाद से पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान

By: Jun 28th, 2018 12:05 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालयन नीति अभियान

उद्योगों के लिए नीति बनाएंगे, तो औद्योगिक कचरे के निपटारे की चिंता किए बिना एकांगी योजना बना लेंगे और बाद में फिर उसके दुष्परिणामों को दूर करने के लिए नदियों के जल के शुद्धिकरण और मिट्टी प्रदूषण को उपचारित करने के लिए अलग से योजना बनाएंगे। यानी पहले बिगाड़ लेंगे, फिर सुधारने चलेंगे। इसी वजह से हमारी अधिकतर नदियां प्रदूषित हो चुकी  हैं…

वर्तमान वैज्ञानिक चिंतन मूलतः एकांगितावाद से ही परिचालित होता है। हम हर एक पदार्थ, प्रक्रिया और जीवन प्रणाली को समझने के लिए उसके अलग-अलग विभाग करके उन्हें सूक्ष्मता से समझने का प्रयास करते हैं। इसे रिडक्शनिस्ट पद्धति कहा जाता है। यानी हम एक समग्रता को टुकड़ों में बांटकर समझने का प्रयास करते हैं। इस प्रणाली से ही हमने विज्ञान में महान उपलब्धियां प्राप्त की हैं। विभिन्न प्रकार की विशेषज्ञताएं हासिल की हैं, किंतु इस पद्धति की सीमाएं भी अब समझ आ रही हैं। इसे हम चिकित्सा विज्ञान के माध्यम से समझने की कोशिश कर सकते हैं। मानव शरीर अपने आप में एक पूर्ण इकाई है, लेकिन यह विभिन्न अंगों के योग से बना है। इसलिए वर्तमान विज्ञान ने शरीर को समझने के लिए इसके अंगों को समझ कर संपूर्णता का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया है। परिणामस्वरूप हमने शरीर के हर अंग के उपचार के लिए विशेषज्ञों की जमात खड़ी कर ली है। हृदय का डाक्टर, गुर्दे का डाक्टर, दिमाग का डाक्टर, हड्डियों का डाक्टर, आंखों का डाक्टर, मुंह का डाक्टर आदि। ये सभी अपने-अपने कार्य के दक्ष लोग होते हैं और बखूबी अपना कार्य करते हैं, किंतु शरीर एक समग्र इकाई भी है यह बात कहीं ओझल हो जाती है, जिस कारण शरीर के समग्र स्वास्थ्य की समझ को उतना महत्त्व नहीं मिल पाता। हमारी दृष्टि मैकेनिकल ज्यादा हो जाती है। परिणामस्वरूप एक बीमारी को दूर करते-करते दूसरी लग जाती है।

यही हाल प्रकृति का भी होता है। हम मानव विकास की जल्दबाजी में ऐसे तरीकों को अपना लेते हैं कि प्रकृति के ही एक घटक मानव को विकसित करते-करते विकास के मौलिक उपादानों हवा, पानी और मिट्टी की ही अनदेखी करने लग जाते हैं। जब प्रकृति संरक्षण की योजना बनाने बैठते हैं, तो एकांगी पद्धति के चलते प्रकृति की समग्रता को समझने का प्रयास किए बिना खेती, पशु-पालन, भू-संरक्षण, वन रोपण और संरक्षण, जल संरक्षण, उद्योगों के लिए इन संसाधनों के दोहन और फिर वायु प्रदूषण नियंत्रण, जल प्रदूषण नियंत्रण आदि के लिए योजनाएं बनाते हैं। इन गतिविधियों की निर्भरता उसी प्रकृति पर है और प्रभाव भी उसी प्रकृति पर पड़ने वाला है। इसलिए इनके एक-दूसरे के साथ और प्रकृति के साथ अंतर्संबंधों को समझने की जरूरत होती है। मान लो हम वन रोपण की योजना बना रहे हैं।

यदि हमने इसमें पशु-पालन की जरूरतों का ध्यान नहीं रखा, तो हम ऐसे पेड़ लगाने की सोचेंगे जो जल्दी बढ़ें, किंतु ऐसे पेड़ पशुओं को घास नहीं देंगे। कुछ जल संरक्षण के लिए घातक होंगे, जैसे कि सफेदा के पेड़ या हम चीड़ जैसे पेड़ों को फैलाने की योजना बना डालेंगे, जो लगातार आग लगने के कारण भू-कटाव का कारण बनने के साथ-साथ पशु चारे को भी नष्ट कर देंगे, जैव-विविधता को नष्ट कर देंगे। इससे पशुपालन नष्ट होगा, कृषि के लिए जैविक खाद की कमी पड़ जाएगी, तो मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को पुनर्जीवित करना भी कठिन होगा। इसी तरह उद्योगों के लिए नीति बनाएंगे, तो औद्योगिक कचरे के निपटारे की चिंता किए बिना एकांगी योजना बना लेंगे और बाद में फिर उसके दुष्परिणामों को दूर करने के लिए नदियों के जल के शुद्धिकरण और मिट्टी प्रदूषण को उपचारित करने के लिए अलग से योजना बनाएंगे। यानी पहले बिगाड़ लेंगे, फिर सुधारने चलेंगे। यह पद्धति कितनी अव्यावहारिक है, यह बात इसी से सिद्ध हो जाती है कि आज हमारी अधिकांश नदियां खतरनाक हद तक प्रदूषित हो चुकी हैं और उनके उपचार में अरबों रुपए झोंकने के बाद भी वांछित परिणाम नहीं मिल रहे हैं। खेती की उपज बढ़ाने के चक्कर में हम भूल गए कि मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बचाना खेती के लिए सबसे जरूरी काम है। सबके विकास के लिए भोजन की उपलब्धता पहली जरूरत है, किंतु हम भोजन पैदा करने वाले किसान को लाभकारी कमाई की व्यवस्था करना भूल जाते हैं। मानव विकास का हमारा लक्ष्य 60 फीसदी किसान आबादी को बाहर रख कर कैसे पूरा हो सकता है। इसी एकांगी सोच के प्रचलन का शिकार वे लोग भी हो जाते  हैं, जो एकांगी सोच के कारण ही मुसीबत में फंसे हैं। जैसे पटेल, जाट, गुर्जर समाज, किसान-पशुपालक समाज के पिछड़ने के कारणों को समग्रता की सोच के अभाव में देखने के बजाय अपने लिए एकांगी समाधान की तलाश के चलते ऐसे आंदोलनों में लगे हैं, जो किसान की समस्या का समाधान आरक्षण में ढूंढने का प्रयास कर रहे हैं। सरकारी नौकरी तो केवल 3 फीसदी लोगों से जुड़ा मामला है। उसमें आरक्षण मिल भी जाए, तो बाकि 97 फीसदी का क्या होगा? कृषि व्यवसाय एक समृद्ध व्यवसाय बन जाए, तो ये सभी जातियां जो मूलतः किसान हैं, अपने आप ही सामान्य समाज से नौकरियों में भी प्रतिस्पर्धा में कहीं भी पीछे नहीं रहेंगी।

मानव तो स्वयं भी प्रकृति का हिस्सा है, अतः मानव विकास और विकास के लिए प्रकृति के दोहन को समग्रतावादी दृष्टि से देखना होगा, ताकि ऐसा न हो कि भले के लिए किए जाने वाले काम भी बाद में पता चले कि गलत दिशा में ले जाने वाले और समाज के लिए हानिकारक साबित हो रहे हैं। प्रकृति सदा संतुलन साधने का कार्य करती है और संतुलन स्थापित करने के लिए जो भी जरूरी हो वह करती है। हम यदि विकास को ऐसी दिशा देंगे कि प्रकृति का संतुलन न हिले और जहां हमारे कारण संतुलन हिल रहा है वहां हम उसके पुनः स्थापन की व्यवस्था करते जाएं, तो प्रकृति हमारी सबसे बड़ी सहयोगी बनेगी। वरना प्रकृति अपने तरीके से संतुलन स्थापित करने की कार्यवाही करती है और प्रकृति की कार्यवाही आमतौर पर क्रूरतापूर्ण होती है। मौसम परिवर्तन के रूप में आ रही चुनौती इसकी वर्तमान चेतावनी है। अब यह जरूरी हो गया है कि हम संभलें और समग्रतावादी सोच से विकास का रास्ता चुनें। जहां भी गलतियां हैं उन्हें ईमानदारी से संशोधित करें और अंतरराष्ट्रीय चिंतन और मंथन में इस मुद्दे को लाएं, ताकि प्रकृति का संतुलन विकास का मार्गदर्शक सिद्धांत बन सके।


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