अविश्वास के अंधेरों में कांगड़ा बैंक

By: Jul 28th, 2018 12:05 am

किसी भी वित्तीय संस्थान में सियासी सर्कस का होना उन सिद्धांतों के खिलाफ है, जो प्रदेश के प्रति जवाबदेही तय करते हैं। अपने भरोसे के अत्यंत कठिन दौर में कांगड़ा केंद्रीय सहकारी बैंक पर मंडरा रहा खतरा, बैंकिंग सिद्धांतों की अवहेलना सरीखा है। दरअसल सहकारी बैंकों के अखाड़े में सियासी घुसपैठ से विवाद के खाते ही सामने आ रहे हैं। सत्ता के नए अवतार के बीच कांगड़ा सहकारी बैंक, न तो किसी निर्दोष सल्तनत के खिलाफ दिखाई दे रहा है और न ही ईमानदारी के नए अक्स सजा रहा है। राजनीतिक दोहन की अनेकों बीमारियों से ग्रस्त यह बैंक वास्तव में कठपुतली नृत्य की शर्तों पर जिस तरह घूम रहा है, उससे अविश्वास के गहन अंधेरों के बीच बैंक की साख पर ही बट्टा लग रहा है। करीब साठ साल पहले जो एक छोटी सी सहकारी इकाई के रूप में सामने आया, उसकी वर्तमान स्थिति सहकारिता मूल्यों की अवनति है। सहकारिता आंदोलन में जनसहयोग के विविध आयाम वांछित हैं, फिर भी सबसे बड़ा उद्देश्य समाज को फिजूलखर्ची से बचाकर बचत से जोड़ना ही रहा है। कांगड़ा केंद्रीय सहकारी बैंक की वजह से हिमाचल की दो तिहाई आबादी सहकारिता नेटवर्क का प्रसार कर सकी है और इसके कई सफल उदाहरण गिने जा सकते हैं, लेकिन अब बैंक राशि का इस्तेमाल गैर उत्पादक साबित होने लगा है। बैलेंस शीट की अस्पष्टता में बैंक नेतृत्व की खामियां स्पष्ट हैं, फिर भी जद्दोजहद यह है कि हर बार सत्ता का नुमाइंदा ही इसका कार्यभार संभाले। अब भी पर्दे के पीछे का सारा खेल दो राजनीतिक दलों की ताकत का इजहार है और इस तरह पूरे घटनाक्रम ने बैंकिंग गुणवत्ता को ही आहत किया है। दरअसल दो दशकों से मिली बैंकिंग बिजनेस की अनुमति ने जहां कांगड़ा बैंक की हैसियत को परवान चढ़ाया, वहीं सियासी हस्तक्षेप के कारण बंदरबांट भी हुई। इस दौरान कई तरह के घोटाले सामने आए, लेकिन कार्रवाइयों के हिसाब से ढर्रा नहीं बदला। लगातार घाटे में वृद्धि तथा एनपीए में बढ़ोतरी शिकायत करती है। एक वह दौर था जब सहकारिता वास्तव में आर्थिक आजादी के आंदोलन की तरह ऐसे लोगों को आगे लेकर आया, जो ईमानदार, अनुशासित, सरोकारी तथा विजन की आदर्श तस्वीर थे। अब कांगड़ा सहकारी बैंक की चेयरमैनी एक राजनीतिक उत्कंठा है, ताकि इसके बहाने व्यक्तिगत प्रभाव की गंगा बह सके। दुर्भाग्यवश इसी भावना ने बैंक की अपनी व्यवस्था को न तो जवाबदेह और न ही पारदर्शी बने रहने में मदद की। पूर्व बैंक अध्यक्ष जिस तरह आरोपों के दायरे में आए हैं, उससे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि बैंक के भीतर सार्वजनिक धन का इस्तेमाल किस तरह होता रहा होगा। उद्देश्य किस तरह परिवर्तित होकर बैंक के अस्तित्व को ही गाली सुनाते हैं, नतीजतन अविश्वास के बादलों से घिरा यह वित्तीय संस्थान अपनी मजबूरियों और विवशता के दंश झेल रहा है। कभी बैंक के सदस्यता अभियान से जुटाई राशि के कारण समाज ने अपनी वित्तीय जरूरतों का जिसे प्रहरी बनाया, आज उन सिद्धांतों के खंडहर पर राजनीति के गिद्ध उड़ान भरते हैं। इस दौरान व्यावसायिक दृष्टि से इसका संचालन न के बराबर रहा, जबकि निदेशक मंडल की गवाही में पूरा राजनीतिक परिवार आबाद होता रहा। ऐसे में हिमाचल के इस संस्थान का व्यावसायिक दृष्टि से नेतृत्व सशक्त करना होगा तथा ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों के अनुसार इसकी शाखाओं का प्रबंधन देखना होगा। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के उपरांत जो चुनौतियां सहकारी बैंकिंग क्षेत्र को मिली हैं, उनका निराकरण केवल व्यावसायिक दक्षता से ही होगा। दुर्भाग्य यह कि बैंक के पदों पर झूलने वाली मानसिकता केवल विशेषाधिकारों, सियासी प्राथमिकताओं तथा भाई-भतीजावाद को ही प्रोत्साहित करती रही, लिहाजा हर बार नियुक्तियों को लेकर शिकायतें बढ़ती गईं। वास्तव में जिस ग्रामीण आर्थिकी के संरक्षण के लिए सहकारिता आंदोलन बैंकों तक पहुंचा, वह आज भी फरियादी है। कांगड़ा सहकारी बैंक की कमजोर व्यवस्था से राज्य का राजनीतिक दखल जिस तरह बढ़ रहा है, उसे न रोका गया तो बैंकिंग सिद्धांतों तथा आवश्यक नीतियों का हृस ही होगा। जिस तरह रिकवरी क्षीण होती जा रही है और आंतरिक नियंत्रण टूट रहा है, उससे संस्थान के बचाव के लिए विचार करना होगा। सामाजिक जवाबदेही के जिस शिखर का नाम सहकारी बैंक होता था, दुर्भाग्यवश उससे दूर कहीं  राजनीतिक अखाड़े में कांगड़ा बैंक का पतन दिखाई दे रहा है।


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