कविता

By: Jul 16th, 2018 12:05 am

नीलम शर्मा, धमेटा, कांगड़ा

न जाने कितनी और बनेंगी निर्भया

मैं मंदसौर की निर्भया का

इनसाफ मांगने आई हूं

कवि हृदय पर चोट लगी है

यह घाव दिखाने आई हूं!

तार-तार होती है इज्जत

धरती मां की छाती पर

रोज लड़कियां निर्भया बनती

इस भारत की थाती पर!

लगता सत्ता सो गई है

अंधियारे चौबारों पर

आज इज्जत है शर्मिंदा

ऐसे पहरेदारों पर!

कानून हो गया गूंगा-बहरा

उसे जगाने आई हूं

दे दो सत्ता हमें एक दिन

या अपना आईना साफ करो!

नामर्द बनाओ इनको तुम

या चौराहों पर फांसी दो

कतरा-कतरा हुई जिंदगी का

हिसाब मांगने आई हूं!!

 


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