विभिन्न प्रयोजनों को भिन्न देवता पूजा

By: Jul 14th, 2018 12:05 am

उदार बुद्धि वाले मोक्ष इच्छुक पुरुष को चाहे वो निष्काम हो या साकाम, ध्यानपूर्वक भगवान पुरुषोत्त की साधना, उपासना करनी चाहिए। अन्य प्रकार की आकांक्षाओं की पूर्ति देवों की पूजा करने से होती है…

-गतांक से आगे…

धर्मार्थ उत्तमश्लोकं तंतु तन्वन पितृन यजेत।

रक्षाकामः पुण्यजनानोजस्कामो मरूदगणान।।

राज्यकामो मननून देवान निऋर्थ्तं त्वभिचरन यजेत।

कामकामो यजेत सोममाकामः पुरुषं परम।।

आकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः।

तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम।।

सुंदरवरण की इच्छा रखने वाले को गंधर्व देवताओं की, सर्वगुण संपन्न पत्नी की कामना रखने वाले को उर्वशी अप्सरा की और सर्वस्वामित्व के लिए ब्रह्मा की, यज्ञकामी को यज्ञपुरुष की, कोषकामी को वरुण की, विद्या प्राप्ति के लिए शिवजी की, पति व पत्नी में परस्पर प्रेम बनाए रखने के लिए पार्वती जी की, धर्म संपादनार्थ भगवान विष्णु की, वंश परंपरा के हित में पितरों की पूजा करनी चाहिए। यक्षों की उपासना बाधाओं तथा अन्य प्रकार की कठिनाइयों से निजात पाने के लिए करनी चाहिए। सर्वशक्तिमान बनने के लिए मरुद्गणों की, भोगी को चंद्रमा की तथा भगवान नारायण की उपासना से निष्कमता की प्राप्ति होती है। उदार बुद्धि वाले मोक्ष इच्छुक पुरुष को चाहे वो निष्काम हो या साकाम, ध्यानपूर्वक भगवान पुरुषोत्त की साधना, उपासना करनी चाहिए। अन्य प्रकार की आकांक्षाओं की पूर्ति देवों की पूजा करने से होती है। प्रत्येक जीव का स्वभाव व रूप अलग-अलग होने से उसके अंतःकरण में तरह-तरह के देवताओं की अलग ही इच्छा होती है तथा यह उसी से प्रेरित होता है। इसी तरह रज, सत्व आदि विभिन्न प्रकृतियों और रुचि भेद के कारण जीवों की अपने अनुरूप विभिन्न इष्टदेव की भक्ति की इच्छा होती है। इसी के अनुसार वह साधना करके सिद्धि प्राप्त करता है। श्री कृष्ण जी कहते हैं ः

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्जितुमिच्छति।

तस्य तस्याचलों श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम।।

‘जो श्रद्धालु भक्त जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूं।’ संसार का प्रत्येक जीवन परम पिता परमेश्वर का अंश है। परमेश्वर एक तरफ तो उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं की पूर्ति करता है तथा दूसरी ओर सांसारिक दुखों से मुक्ति भी दिलाता है। अतः उन्होंने गायत्री मंत्र आदि अर्ध्वलोकों में तथा अतल-वितल, सुतलादि निम्न लोकों में जीव लोक को प्रतिष्ठित किया है और अर्ध्वगामी लोक अवस्थिति से मानव को कहा गया है कि यदि वह नेक कर्म करेगा तो देवत्य को प्राप्त करेगा और अगर निंदनीय कार्य करेगा तो उर्ध्वगामी लोक को प्राप्त होगा ः

प्रतिष्ठया सार्वभौंम इतना भुवनत्रयम।

पूजा दिना ब्रह्मलोकं त्रिभिर्मत्सम्यतामियात।।

मामेव नैरपेक्ष्येण भक्तियोगेन विंदति।

भक्ति योगे स लभते एवं यः पूजयेतमाम।।

जो मनुष्य विग्रह-प्रतिष्ठा से सार्वभौम पद मंदिर आदि का निर्माण करने से त्रिभुवन का स्वामित्व पूजा-पाठ से ब्रह्मलोक तथा उपरोक्त तीन कार्यों से मेरी समता प्राप्त करता है और निष्काम भक्ति योग से मुझे प्राप्त करता है, वह भक्ति योग की प्राप्ति कर लेता है।                        -क्रमशः

 


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