साधना एवं संयम का चातुर्मास

By: Jul 21st, 2018 12:12 am

चातुर्मास, चार महीने तक चलने वाला साधनाकाल है। वस्तुतः संपूर्ण वर्षाऋतु में संयमित जीवनशैली अपनाने और आत्ममंथन की प्रक्रिया पर केंद्रित होने की प्रक्रिया ही चातुर्मास कहलाती है। चातुर्मास का प्रारंभ आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से होता है, इसे देवशयनी एकादशी कहा जा सकता है। इसे हरिशयनी एकादशी भी कहा जाता है। इस दिन से भगवान विष्णु चार मास के लिए क्षीरसागर में शयन करते हैं। इसी कारण इस एकादशी को हरिशयनी एकादशी कहा जाता है। इन चार महीनों में भगवान विष्णु के क्षीरसागर में शयन करने के कारण विवाह आदि कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता। धार्मिक दृष्टि से यह चार मास भगवान विष्णु का निद्रा काल माना जाता है। भिक्षु और संन्यासी इन चार महीनों में देशांतरण नहीं करते। किसी एक ही स्थान पर टिक संयमित आहार-निद्रा लेते हुए आध्यात्मिक साधना करते हैं। वस्तुतः चातुर्मास आध्यात्मिक विभूतियों को सामाजिक-जागरण से चार महीने के लिए विश्रांति प्रदान कर उन्हें आध्यात्मिक साधना के पथ पर और भी आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करता है। ऐसी मान्यता है कि इन दिनों केवल ब्रज की यात्रा की जा सकती है, क्योंकि इन चार महीनों में पृथ्वी के समस्त तीर्थ ब्रज में आकर निवास करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने से व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त होती है और उसकी समस्त मनोकामनाएं पूरी होती हैं। चातुर्मास को स्वास्थ्य के लिहाज से लाभदायक माना जाता है। इस दौरान संक्रमण की संभावनाएं बहुत अधिक होती हैं। आयुर्वेद के अनुसार इस काल में पाचनशक्ति भी कमजोर हो जाती है। इसी कारण, संयमित आहार और न्यूनतम यात्रा इन दिनों में जरूरी होती है। चातुर्मास व्रत में ये दोनों बिंदु सम्मिलित हैं। सभी एकादशियों को भगवान विष्णु की पूजा-आराधना की जाती है, परंतु देवशयनी एकादशी को भगवान का शयन प्रारंभ होने के कारण उनकी विशेष विधि-विधान से पूजा की जाती है। इस दिन उपवास करके भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर आसीन कर उनका षोडशोपचार सहित पूजन करके, उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म सुशोभित कर उन्हें पीतांबर, पीत वस्त्रों व पीले दुपट्टे से सजाया जाता है। पंचामृत से स्नान करवाकर, तत्पश्चात् भगवान की धूप, दीप, पुष्प आदि से पूजा कर आरती उतारी जाती है। भगवान को पान सुपारी अर्पित करने के बाद निम्न मंत्र द्वारा स्तुति की जाती है ः

सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जमत्सुप्तं भवेदिद।

विबुद्धे त्वयि बुद्धं च जगत्सर्व चराचर।।

अर्थात् हे जगन्नाथजी! आपके निद्रित हो जाने पर संपूर्ण विश्व निद्रित हो जाता है और आपके जाग जाने पर संपूर्ण विश्व तथा चराचर भी जाग्रत हो जाते हैं। इस प्रकार प्रार्थना करके भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। तत्पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन कराकर स्वयं फलाहार करना चाहिए। रात्रि में भगवान के मंदिर में ही शयन करना चाहिए तथा भगवान का भजन व स्तुति करनी चाहिए। स्वयं सोने से पूर्व भगवान को भी शयन करा देना चाहिए। इस दिन अनेक परिवारों में महिलाएं पारिवारिक परंपरानुसार देवों को सुलाती हैं। इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करें। मधुर स्वर के लिए गुड़ का, दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल का, शत्रुनाशादि के लिए कड़वे तेल का, सौभाग्य के लिए मीठे तेल का और स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों का त्याग करें। पलंग पर सोना, भार्या का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद मूली, परवल एवं बैंगन आदि शाक खाना भी त्याग देना चाहिए। जो श्रद्धालु जन इस एकादशी को पूर्ण विधि-विधानपूर्वक भगवान का पूजन करते और व्रत रखते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं। चातुर्मास के काल में सूर्य की किरणें तथा खुली हवा अन्य दिनों के समान पृथ्वी पर नहीं पहुंच पाती । विविध जंतु तथा कष्टदायी तरंगों की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे रोग फैलते हैं। आलस्य का अनुभव होता है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें, तो चातुर्मास के काल में पृथ्वी के वातावरण में तमोगुण की प्रबलता बढ़ जाती है। ऐसे में हमारी सात्त्विकता बढ़ाना आवश्यक होता है। चातुर्मास के कारण हमारा सत्त्वगुण बढ़ता है और हम सर्व स्तरों पर सक्षम बनते हैं।

चातुर्मास में व्रत रखने के लाभ

  1. कष्टदायक शक्तियों के आक्रमण की तीव्रता घट जाती है।
  2. व्यक्ति की सूर्यनाड़ी कार्यरत होकर पेशियों की प्रतिकारक्षमता बढ़ती है।
  3. पाताल से प्रक्षेपित कष्टदायी तरंगों से रक्षा होती है।
  4. देवताओं की कृपादृष्टि प्राप्त होती है।

चातुर्मास में निषिद्ध पदार्थ

कुछ अन्न घटक सत्त्वगुणयुक्त होते हैं, कुछ रजोगुणयुक्त, तो कुछ अन्नघटक तमोगुणयुक्त। चातुर्मास में वातावरण रज-तम युक्त होता है। इस अवधि में रज-तम गुणयुक्त अन्नघटकों के सेवन से कोई लाभ नहीं होता। इसलिए चातुर्मास में बैंगन, मूली, प्याज, लहसुन, इमली, मसूर, लोबिया, अचार, बहुबीज अथवा निर्बीज फल, बेर, मांस इत्यादि पदार्थ निषिद्ध बताए गए हैं।


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