हिमाचली भाषा का स्वरूप एवं दिशाएं
अमरदेव आंगिरस
-गतांक से आगे…
लोअर महासू या शिमला से निचली बोलियों में बाघल (अर्की) रियासत की बाघली बोली का क्षेत्र क्योंथली की तरह ही या कहें इससे अधिक ही व्यापक क्षेत्र है। 36 वर्गमील ऐतिहासिक रियासत बघाट का क्षेत्र ही जब इतना व्यापक है तो बाघली का क्षेत्र जो 124 वर्गमील क्षेत्रफल की रियासत रही है, स्वाभाविक रूप से बघाटी से अधिक रहा है।
बाघल की सीमाएं अर्की से पूर्व की तरफ जतोग तक फैली थी, जो बाद में मायली क्षेत्र तक सिमट गई थी। दक्षिण में कुनिहार (आठ वर्गमील) की ‘कुहणी’ नदी इसकी सीमा बनाती थी। पश्चिम में ‘काली सेली’ तक विस्तृत थी, जो बाद में बाड़ीधार का क्षेत्र कहलूर रियासत में सम्मिलित हो गया था। दक्षिण-पश्चिम में यह दिग्गल-रामशहर तक फैला था। उत्तर दिशा में बाघल मांगल रियासत की सीमा मलोखर (कठपोल शिखर) तक विस्तृत थी। क्षेत्र का विस्तार घटता-बढ़ता रहता था, जैसे पोवर परगना पहले कुनिहार का भाग था, किंतु 1795 के पश्चात यह बाघल में मिला लिया गया। बाघल के प्रमुख क्षेत्र अर्की, बातल, मांजू, धुंदन, भूमति, दाड़ला, बलेरा, जयनगर, चंडी, नवगांव, डुमहैर आदि हैं, जो पहले परगनों के अंतर्गत गिने जाते थे।
ग्रियर्सन ने यद्यपि बाघली को बघाटी की उपबोली माना है, तथापि बाघली और बघाटी बहन बोलियां हैं,जो मालवा-उज्जैन के परमार वंश के राजकुमारों द्वारा 13वीं सदी के अंत या 14वीं सदी के प्रारंभ में बघाट और बाघल में रियासतें स्थापित करने के साथ अस्तित्व में आई हैं। इन पर राजस्थानी, जयपुरी, मेवाती आदि बोलियों का प्रचुर प्रभाव इसीलिए दृष्टिगोचर होता है। बाघल के शासक बाघली बोली में ही राजकार्य करते थे।
बाघली को प्राचीन दस्तावेजों में ‘बघल्याणी’ भी लिखा मिलता है। प्राचीन महासू के क्षेत्रों में इनका व्यापक प्रसार मिलता है, जिसके ऐतिहासिक एवं सामाजिक कारण रहे हैं। विक्रमादित्य-भोजवंश की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में ये रियासतें पनपीं-विकसित हुईं। दोनों का क्षेत्रफल उस समय 200 वर्गमील में फैला था तथा इनकी समृद्ध संस्कृति का प्रभाव अन्य रियासतों कुठार, बेजा, महलोग, कुनिहार, हंडूर आदि पर लोक साहित्य में परिलक्षित होता है। बघाटी का प्रभाव कुठार, बेजा, क्योंथल, सिरमौर के कुछ भाग तक धामी, सुन्नी आदि पर पर्याप्त रूप से दृष्टिगोचर होता है।
बाघली का प्रभाव हंडूर के पहाड़ी इलाकों तक रहा है, जबकि मैदानी भाग पर पंजाबी भाषा का प्रभाव पड़ा है। बाघली-बघाटी के मूल स्वरूप के विवेचन से स्पष्ट होता है कि इनमें राजस्थानी और हिंदी शब्दों एवं व्याकरण का विशेष प्रभाव पड़ा है, जिसके कारण ये बोलियां सहज और बोधगम्य लगती हैं।
वैसे तो पांच-सात कोस में पानी और बोलियों में ध्वनि, वर्तनी आदि का अंतर प्राकृतिक रूप से पड़ता ही है, किंतु इन बहन बोलियों का मूल एक ही है। ऐतिहासिक और प्रशासनिक कारणों से समस्त टकुराइयों के परस्पर सामाजिक संबंधों तथा आदान-प्रदान से इनकी बोलियों में पर्याप्त समानता रही है, किंतु इनका परस्पर प्रसार अंग्रेजों के प्रशासन के पश्चात देखने को मिलता है।
वे प्रशासन के लिए इन्हीं रियासतों के कुशल अधिकारियों को दूसरी रियासतों में भी नियुक्त करते थे। यह व्यवस्था इन रियासतों के भूमि-बंदोबस्त के कार्य में देखी जा सकती है। पुरानी रियासतों के पारस्परिक संबंधों की बोलियों में पर्याप्त समानता तो मिलती ही है, अन्य बड़ी रियासतों कहलूर, सिरमौर का इन रियासतों पर राजनीतिक वर्चस्व रहा है।
ये बड़ी रियासतें इन छोटी रियासतों से कर वसूली करती रही हैं। वर्ष 1805 के पश्चात अंग्रेज सरकार इनके माध्यम से ही कर वसूल करती थी। बाघल, बघाट, कहलूर, हंडूर, धामी, कोटी, क्योंथल रियासतों पर गोरखा आक्रमण और उसके प्रभावों का असर इनकी राजनीति, भाषा एवं आदान-प्रदान पर पड़ा। कहलूर के लोकगीत और लोक गाथाओं में इतनी समानता है कि ये सभी क्षेत्रों में समझे व गाए जाते रहे हैं। मंडी-सुकेत क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहा है। मंडयाली और कहलूरी लोक साहित्य और बोलियों में भी पर्याप्त समानता है। परस्पर संबंधों-संघर्षों के कारण कांगड़ा, चंबा, कुल्लू क्षेत्रों की बोलियों का पुरानी शिमला हिल्स की बोलियों से सहज-सरल समन्वय हो सका है। चूंकि ये सभी बोलियां शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित हुई हैं, अतः स्वाभाविक रूप से इनमें समानता पाई जाती है।
-क्रमशः
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