पूर्ण सद्गुरु का मत

By: Aug 4th, 2018 12:05 am

बाबा हरदेव

फूल खिल रहा है इसे खिलने में ही आनंद है, सूर्य निकल रहा है, इसे निकलने में ही आनंद है, हवाएं चल रही हैं, चलने में ही आनंद है, आकाश है होने में ही आनंद है, इनका आनंद आगे नहीं, अभी है यहीं है और यह जो सब कुछ हो रहा है वह भीतर की ऊर्जा से अकारण बहाव है। इसे पवित्र गीता में ‘कर्म योग’ कहा गया है…

आध्यात्मिक जगत में अंतरात्मा में गहरी डुबकी लगाना ‘सहजता’ है। जब मनुष्य अपने जीवन के केंद्र को अनुभव कर लेता है, जब मनुष्य अपने भीतर जीवन के मूल को पकड़ लेता है, जब मनुष्य को पता चलता है कि सहजता क्या है, तब यह जान पाता है कि सहजता सरल है, क्योंकि  सहजता मनुष्य का स्वभाव है। उदाहरण के तौर पर गुलाब खिला है, अब कोई कहे गुलाब की झाड़ी को कठिनाई हुई होगी ऐसे सुंदर गुलाब खिलाने में और कांटों के बीच कैसे यह गुलाब खिला पाती है झाड़ी। सच तो यह है कि कोई कठिनाई नहीं होती। गुलाब की झाड़ी में फूल वैसे ही खिलते हैं, सहजता में जैसे आग जलाती है। जलाना आग की सहजता है, स्वभाव है, जैसे आग की लपटें ऊपर की ओर जाती हैं और पानी की धारा नीचे की ओर जाती है यही सहज स्वभाव है। अब तथाकथित धार्मिक नेताओं ने सहजता को जो इतनी सरल है, इसे कठिन बनाने की चेष्टा की है, लेकिन जब मनुष्य सहजता के रहस्य को समझ जाता है, तो यह तथाकथित धार्मिक नेताओं की पकड़ से निकल जाता है। इन तथाकथित धार्मिक आदमियों का वजूद तब तक है जब तक यह सहजता को कठिन बनाते रहे। यह तथाकथित धार्मिक लोग खुद अंधे हैं अभी खुद ही इनको सहजता का कोई पता नहीं और यह औरों को मार्गदर्शन दे रहे हैं मानो अंधे-अंधे को चला रहे हैं। इस तरह से अगर सारी दुनिया गड्ढे में गिर गई है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आज तक यह कभी सुनने में आया है कि अंधों ने अंधों को चलाते-चलाते मंजिल तक पहुंचा दिया? यह तथाकथित धार्मिक लोग मनुष्य को बाहर की तरफ ले जाते हैं। यह कहते हैं कि जाओ धर्म स्थानों पर वहां छिपी है ‘सहजता’। पूर्ण सद्गुरु का मत है कि बाहर की सभी प्रक्रियाओं से मुक्त हो जाओ, क्योंकि स्वयं में छिपी है सहजता। चुनांचे सहजता में कर्ता भाव चला जाता है, लेकिन कर्म परमात्मा को समर्पित होकर पूर्ण गति से प्रवाहित होता है। जैसे नदी बहती है कोई अहंकार नहीं है, हवाएं चलती हैं कोई अहंकारी नहीं है ठीक ऐसे ही सहज निरअहंकार जीवन से सब कुछ होता है। सिर्फ भीतर कर्ता का भाव संग्रहित नहीं होता है, मानो सहजता से भरा चित्त, निर विचार चित्त बांस की पोंगरी की तरह हो जाता है, गीत इससे निकलेंगे पर अपने नहीं, यह गीत परमात्मा के होंगे। विचार इससे निकलेंगे, मगर अपने नहीं परमात्मा के ही निकलेंगे, बोलेगा वही जो परमात्मा बुलाता है, करेगा वही जो परमात्मा कराता है यानी स्वयं के बीच जो (मैं) का आधार है वह बिखर जाएगा। अगर गौर से देखा जाए तो सारा जगत आगे के लिए नहीं जी रहा है, बल्कि सारा जगत भीतर से जी रहा है। फूल खिल रहा है इसे खिलने में ही आनंद है, सूर्य निकल रहा है इसे निकलने में ही आनंद है, हवाएं चल रही हैं, चलने में ही आनंद है आकाश है होने में ही आनंद है, इनका आनंद आगे नहीं, अभी है यहीं है और यह जो सब कुछ हो रहा है वह भीतर की ऊर्जा से अकारण बहाव है। इसे पवित्र गीता में ‘कर्म योग’ कहा गया है। पूर्ण सद्गुरु की कृपा से अगर काम से कामना घट जाए तो ‘कर्म योग’ हो जाता है, तो फिर कर्म साधारण कर्म नहीं रह जाता यह योग बन जाता है और जब कर्म योग बन जाए, तो न पाप है, न पुण्य है, न बंधन है, न मुक्ति है, सब ‘सहजता’ है जिस की कला पूर्ण सद्गुरु प्रदान करता है।


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