विष्णु पुराण

By: Aug 4th, 2018 12:05 am

विस्तारः सर्वभूतस्थ विष्णोः सर्वामिदं जगत्।

नुष्टव्यमात्वत्तस्मादमेदेन विचक्षणैः।।

समुत्सृज्याचुर भाव तस्माद्ययं तथा वयम।

तथा यत्नं करिष्यामायथा प्राप्स्यांम रियृतिम।।

या नाग्निना न चार्केणा नेंदुता नैव वासुना।

्रपर्जंयवरुणभ्यां वा न सिद्धैन चराक्षसै।।

न यक्षैर्न च दैत्येन्द्रै नागैर्न च किन्नरै।

न मनुष्यैर्न पशभिर्दोवर्नवात्मसंभवैः।।

ज्वराक्षिरोगातीसाररप्लानहगुल्मादिकैस्था। वेर्यामतसराद्यै र्वा रागलोभादिभिः क्षयम।। न चान्यैनीयते कश्मिन्नित्या लात्यंतनिर्मलाः।

तामाप्नोत्यमलं न्यस्य केशवे हृदयं नरः।।

असारसंसारविवर्त तेषुमा यात तोषं प्रसभं ब्रवीमि।

सर्वत्र दैत्यास्स्मतामुपेत ममत्वमाराधनमच्युतस्य।।

तस्मिंप्रसन्ने किमिहास्त्यलभ्य धर्मार्थकामेरलमल्पकास्ते।

समाश्रिताब्रह्मतरोरंतान्निः संशयं प्राप्स्यथ वैमहत्फलम।।

इस विश्व को सर्व भूतात्मक भगवान का विस्तार ही समझो, क्योंकि विचक्षण पुरुष इनमें अभेद मानते हुए आत्म रूप ही देखते हैं। इसलिए हम तुमको भी दैत्य भाव का त्याग करके शांति लाभ करने का यत्न करना चाहिए। क्योंकि जो शांति, अग्नि, सूर्य चंद्र, वायु, मेघ, वरुण, सिद्धि, राजस, पक्ष, दैत्येंद्र, उरग, किन्नर, मनुष्य और पशुओं के अपने मन से उत्पन्न दोषों से, ज्वर, नेत्ररोग, अतिसार, प्लीहा और गुल्म दिगरोगों से तथा द्वेष, ईर्ष्या, मत्सर, रोग, लोभ और किसी भी अन्य भाव से नष्ट नहीं हो सकती, वह अत्यंत निर्मल परम शांति भगवान केशव में मन लगाने से ही प्राप्त हो सकती है। हे दैत्य पुत्रो! मेरा आग्रह है कि इस सांसारिक विषयों से कभी प्रसन्न मत होओ, तुम सबके प्रति समान दृष्टि रखो, क्योंकि सर्व समानता ही भगवान अच्युत की परम आराधना है। उन अच्युत के प्रसन्न होने पर संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है, धर्म, अर्थ और काम तो अत्यंत ही तुच्छ है, उस ब्रह्म रूप महावृक्ष के आश्रय से तो अवश्य ही तुम महाफल को प्राप्त करोगे।

तस्येतां दानवाश्चेष्टांदृष्टवा दैत्यपतेर्भयात।

आचक्षुः स चोवाच सूदानाहय सत्वरः।।

हे सूदा मम पुत्रोऽसावन्येषामपि दुर्मति।

कुमार्गदेशिको दुष्टो हन्यतामविलम्वितम।

हलाहल विषं तरस्य सर्वभक्षषु दीयताम।।

अविज्ञातमसौ पापो हन्यतां मा विचार्यताम।

ते तथैव ततश्चक्रुः प्रह्लादाय महात्मने।

विषदात यथाज्ञप्तं पित्रा तस्य महात्मनः।।

हलाहल विष घोरमनन्तोच्चारणेन सः।

अभिमंत्र्य सहान्नेन मैत्रेय वुभुजे तदा।।

अविकार सतद्भक्तवा प्रह्लादः स्वस्थमनसः। अनन्तख्यातिनिर्वीय जरयामास तद्विषम।। ततः सदा भयत्रस्या जीर्ण दृष्टवा महाद्विषम। दैत्येश्वरमुपागम्य प्रणिपत्येदमब्रुनबन।।

श्री पराशरजी ने कहा, दैत्यों ने पह्लाद की चेष्टा देखकर दैत्यराज के भय के कारण वहां जाकर सब बातें उससे कहीं और तब हिरण्यकश्यप बोला, हे रसोइयो! मेरा यह पुत्र इतना दुष्ट और दुर्मति है कि दूसरों को भी कुमार्ग का उपदेश करता है, इसलिए तुम इसका शीघ्र ही विनाश करो। तुम उसे बिना बताए सब खाद्य पदार्थों में हलाहल विष डालकर उसे बिना कुछ सोचे विचारे भक्षण करा दो, जिससे वह पापी मर जाए। श्रीपराशरजी ने कहा, दैत्यराज की आज्ञानुसार उन रसोइयों ने महात्मा प्रह्लाद को विष दे दिया। हे मैत्रेयजी! वह उस घोर विष को भगवान का नाम लेकर भक्षण कर गए। जो विष भगवान नाम के प्रभाव से तेजहीन हो गया था, उसे वह बिना विचार के पचा गए और स्वस्थ चित्त रहे। उस महान विष को निष्फल हुआ देखकर भयभीत हुए रसोइए हिरण्यकश्यप के पास गए और उसको प्रणाम करके कहने लगे।

– क्रमशः


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