श्रीविश्वकर्मा पुराण

By: Aug 4th, 2018 12:05 am

इस प्रकार विचार कर विष्णु बोले, हे धर्मराज! हे कार्तिकेय तुम दोनों शांत हो तथा मेरी बात सुनो तुम्हारी दोनों ही बात सत्य है और इससे तुम्हारा दोनों का मान रहे, ऐसा रास्ता निकालना चाहिए। विराट प्रभु को जो मान्य हो, तो मैं कहूं। धर्मराज का दिया हुआ श्राप वापस तो नहीं हो सकता और कार्तिकेय स्वामी के मन को दुख न हो, इसलिए तीर्थों का नाश भी न होने दिया जाए। अगर धर्मराज अपने श्राप को बदले, तो दोनों की बात रहे। विष्णु के ऐसे फैसले से प्रसन्न होकर धर्मराज बोले भले ही विष्णु कहते हैं इस प्रकार स्तंभ तीर्थ का नाश न हो, परंतु कलियुग में उसका माहात्म  गुप्त होगा। उसका महात्मा कोई नहीं जानेगा। फिर भी गुप्त तीर्थ के नाम से जाना जाएगा। सूतजी बोले , हे ऋषियो! इस प्रकार से विराट श्रीविश्वकर्मा की लीलाओं का जिसमें वर्णन है ऐसे स्तंभ तीर्थ क्षेत्र का उत्तम महात्म मैंने आपको सुनाया, अब तुम्हारी जो सुनने की इच्छा हो वह कहो।

हे सूत, हे महाभाग! आप हमको भक्तियोग बताओ तथा उसके सब लक्षण भी हमको विस्तारपूर्वक बताओ सब मनुष्य जिस भक्तियोग  का आश्रय करके शाश्वत ऐसे मोक्ष को प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं, वह उत्तम भक्तियोग जानने की हमारी अति तीव्र उत्कंठा है, इसलिए आप हमको उस भक्ति योग का प्रभाव बताने की कृपा करो। ऋषियों के इस प्रकार के वचन सुनकर सूतजी बोले, हे ऋषियों! इलाचल के ऊपर दिव्य बड़ के वृक्ष के नीचे उत्तम सिंहासन के ऊपर विराजमान हुए श्रीविश्वकर्मा के पास में मन मयादी पांचों ब्रह्मर्षि दोनों हाथ जोड़कर उनकी स्तुति कर रहे थे। इस प्रकार से अपने पुत्रों की स्तुति से प्रसन्न हुए प्रभु श्रीविराट विश्वकर्मा ने कहा, हे पुत्रो तुम्हारे अंतर में कोई गहरी चिंता है। इस प्रकार मैं जानता हूं इसलिए अपनी चिंता शीघ्रता से कहो, मैं तुम्हारी उस चिंता को दूर करूंगा इसके लिए तुम निश्चित रहो।

प्रभु के ऐसे वचन सुनकर ब्रह्मर्षि बोले, हे देवादिदेव! संसार के अनेक क्षणिक विषयों के सुखरूपी अंधकार में ओत प्रोत हुए मनुष्य जब उस अंधकार से अकुलाते हैं तब उनको अंधकार से निकालने के लिए आपके सिवाय कौन समर्थ हो सकता है। आप आदि अंतर तथा मध्य में रहने वाले होकर सबके अधिष्ठाता ईश्वर हो और प्राणी  मात्र के अज्ञानरूपी अंधकार का आप ही नाश करने वाले हो इसलिए हे प्रभु हम आपके द्वारा धर्म जानने की इच्छा रखते हैं आप सर्वज्ञ हो आपसे कुछ भी छिपा नहीं फिर भी जब आपने प्रश्न किया, तो हमको उत्तर देना ही चाहिए और इससे हमने आपके सामने अपनी इच्छा प्रकट की है, तो आपको योग्य लगे तो हमारे ये धर्म जानने की इच्छा पूर्ण करने की कृपा करो। बह्मर्षि मनु के वचन सुनकर भगवान विश्वकर्मा बोले, हे पुत्रो मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्य के लिए मैं तो अध्यात्म योग को ही उत्तम मानता हूं। यह योग मनुष्य का कल्याण कर सके ऐसा है और इस अध्यात्म योग से ही सुख एवं दुख दोनों का नाश होता है, इसलिए सभी अंगों से युक्त ये अध्यात्मक योग मैं तुमको बताता हूं।

जीवात्मा किसी भी प्रकार के बंधनों से परे है फिर भी उसकी जो कुछ बंधन होते हैं, उसका कारण चित्त है। अनेक प्रकार के विषयों से हुई चित्त की अशांति जीवात्मा को बंधन में डालती है और जिस प्राणी का मन सब विषयों को छोड़कर प्रभु में स्थिर होता है, तो उससे प्राणी मोक्ष को पाता है। जब प्राणी को अहंपद होता है तथा उस अहंकार से ये मेरा है वह मैंने किया है ऐसे अभियान मैं आ जाता है तब काम मद और मदसर बगैरह छह शत्रु उस प्राणी पर झपट पड़ते हैं। परंतु जो मनुष्य अहंकार का त्याग करे और सब कुछ प्रभु के आधीन है इस प्रकार मानें तो ऊपर के छह शत्रुओं से वह बच जाता है।


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