मतभेदों से बचाएं राष्ट्रीयता

By: Mar 6th, 2017 12:05 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

हम लंबे वक्त से आपस में मिल-जुलकर रहते आए हैं। हालांकि हिंदुत्व के प्रभाव के बावजूद भारत के लोग इस बात को शिद्दत के साथ महसूस करने लगे हैं कि उन्हें सब मतभेद भुलाकर एक होकर रहना होगा, जैसा कि सदियों पहले के हमारे पूर्वज रहा करते थे। मौजूदा संदर्भों में देश के विकास के लिए भी यही मार्ग कल्याणकारी होगा। असल में यही भारत का विचार है और देश के बहुसंख्यक लोग अब भी इसे पकड़े हुए हैं…

शिक्षण परिसरों में छात्र राजनीति विभाजन से पहले के दौर में भी हुआ करती थी, जब हमने महाविद्यालय में अध्ययन किया था। इसके बावजूद तब राजनीति मौजूदा समय की तरह सांप्रदायिक लकीरों पर नहीं होती थी। उस दौरान दुश्मन अंग्रेजी हुकूमत थी और सब संगठित होकर उन्हें देश से खदेड़ने के लिए संघर्षरत थे। मुझे आज भी याद है कि चालीस के दशक में मोहम्मद अली जिन्ना लाहौर स्थित लॉ कालेज में आए और उन्होंने अंग्रेजों को भारत से निकालने के लिए विद्यार्थियों को एकजुट होने के लिए प्रेरित किया। आगे चलकर हालात ने इस कद्र करवट ली कि पानी के मटकों तक को हिंदू और मुस्लिम के नाम पर विभाजित कर दिया गया। हालांकि हम विद्यार्थियों की सोच में कभी इस तरह का मैलापन नहीं आया। हम हिंदू व मुस्लिम रसोईघर से बिना किसी भेदभाव या झिझक के भोजन मंगाकर किया करते थे। आज धु्रवीकरण की राजनीति ने हिंदू समुदाय को जातियों में बांटकर कुछ विकृतियां पैदा कर दी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अब तक इस चीज को महसूस नहीं कर पाए हैं और अभी हाल ही में उन्होंने कब्रिस्तान और श्मशान भूमि का जिक्र किया। प्रधानमंत्री मोदी ने गैर जरूरी रूप से उल्लेख किया कि ‘अगर गांव में कब्रिस्तान बनता है, तो गांव में श्मशान भी बनना चाहिए…भेदभाव नहीं होना चाहिए।’ आगे चलकर इस बयान पर काफी घमासान भी मचा।

हालांकि इसके बाद उस बयान को दुरुस्त करते हुए राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने स्पष्टीकरण दिया कि राज्य में विद्युत आपूर्ति सुचारू से न होने के बावजूद कब्रिस्तान और श्मशानघाट के लिए समान रूप से 24 घंटे बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित की गई है। दूसरी तरफ मुसलमानों ने शिकायत की है कि उनके इलाकों में बहुत कम एटीएम स्थापित की गई हैं। इस असुविधा के कारण वे बैंक खातों में जमा अपना पैसा निकलवाने में भी असहज महसूस करते हैं। यह सच हो सकता है, लेकिन मुसलमानों ने इसकी असल वजह नहीं बताई। जब मजहब के आधार पर पाकिस्तान को बसाया गया था, तो उसके बाद मुसलमानों के महत्त्व में लगातार गिरावट दर्ज की गई है। मौलाना अबुल कलाम आजाद ऐसे कांग्रेसी नेता थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के दौरान भी इस सोच के खिलाफ अकेले दम पर लड़ाई लड़ी थी। उनका कहना था कि यदि मुसलमान अविभाजित भारत सरीखे बड़े राष्ट्र में खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं, तो भारत के विभाजन के बावजूद उनमें असुरक्षा की यह भावना बरकरार रहेगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि हिंदू, मुस्लमानों को कहेंगे कि आप अपना हिस्सा लेने के बाद पाकिस्तान चले जाओ। अब तक जो हुआ है, उसे संक्षेप में इसी का सार माना जाएगा।

जवाहर लाल नेहरू ही वह शख्स थे, जिन्होंने उस वैमनस्यपूर्ण माहौल में कई मुस्लिमों को पाकिस्तान जाने से रोका था। उन्होंने पटेल, जो कि मुस्लिमों के हिंदोस्तान में रुकने को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं थे, के साथ मिलकर हिंदुओं से अपील की कि भारत को आजादी दिलाने वाले महात्मा गांधी की बात को ध्यान में रखें। उन्होंने कहा था कि भारत तभी एक राष्ट्र बनकर रह सकता है, जब हिंदुओं और मुसलमानों के बीच किसी तरह का भेदभाव न होगा। देश के विभाजन के बाद मुस्लिम समुदाय का सरकारी मामलों में महत्त्व लगातार घटता गया है। वर्तमान में देश में मुस्लिमों की संख्या 17 करोड़ के करीब है और नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में कोई भी मुस्लिम चेहरा किसी अहम ओहदे पर नहीं है। एमजे अकबर को राज्य मंत्री बनाने से पहले तक मुख्तार अब्बास ही एकमात्र मुस्लिम चेहरा उनके मंत्रिमंडल में देखने को मिलता था। इससे सरकार या पार्टी के हिंदुत्ववादी चेहरे पर कोई पर्दा नहीं गिरता। उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान इस संदर्भ में मोदी या उनकी पार्टी की सोच जाहिर होती है। बेशक भारत में हिंदू बहुसंख्या में हैं, लेकिन देश को संविधान द्वारा शासित किया जाता है और संविधान बिना किसी भेदभाव के हर नागरिक को समान अधिकार देता है। जब संविधान सभा में इस उपधारा पर विमर्श हो रहा था, तो सरदार वल्लभ भाई पटेल ने मुस्लिमों को आरक्षण देने की वकालत की थी। लेकिन समुदाय ने उनके इस प्रस्ताव को यह कहकर खारिज कर दिया था कि इससे अंततः एक और विभाजन की राह निकलेगी। इन तमाम बातों को एक किनारे रखकर राजनीतिक दल आज भी समाज में जाति या संप्रदाय के आधार पर वोट मांगते हुए देखे जा सकते हैं।

हालांकि चुनाव आयोग ने भी मजहब या समुदाय विशेष के नाम को संबोधित करते हुए वोट मांगना प्रतिबंधित किया हुआ है। इसके बावजूद राजनेता खुल्लम-खुल्ला ऐसा करते रहे हैं, क्योंकि वे इस बात को बड़े अच्छे से जानते हैं कि जब चुनावों की बारी आती है, तो उसमें मुस्लिमों का अच्छा खासा प्रभाव रहता है। हाल ही में उत्तर प्रदेश के चुनावी प्रचार में भी हमने साफ तौर पर देखा कि सभी दलों के नेता मुसलमानों की दशा सुधारने की बात किए बगैर उनके वोट हड़पने की कोशिशें करते रहे हैं, जिनकी स्थिति सच्चर आयोग की रिपोर्ट में दलितों से भी बदतर बताई गई थी। इस क्रम में राजनीतिक दलों द्वारा कभी बिजली की आपूर्ति, तो कभी किसानों के ऋण माफ करने के नाम पर मतदाताओं को प्रभावित करना अब एक आम बात हो चुकी है। इससे एक बार फिर साबित होता है कि मुस्लिमों को किस तरह से वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया जाता है।दुर्भाग्यवश मुस्लिमों की बात करने का यह सिलसिला चुनावों की आखिरी तारीखों के साथ ही खत्म हो जाता है। इसके बाद तमाम राजनीतिक दल अपने पुराने ढर्रे पर पहुंच जाते हैं और सरकार भी चुनावों से पूर्व मुस्लिमों की बेहतरी के वादों से आंखें मूद लेती है। इस प्रकार मुस्लिमों को अगले चुनावों तक के लिए पृष्ठभूमि में धकेल दिया जाता है। जब मैंने अपने गृह कस्बे सियालकोट को छोड़ा था, तो उस वक्त भी मैंने कुछ इसी तरह का दृश्य देखा था।

उन दिनों समाज में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं हुआ करता था और लोग हिंदू-मुसलमान के बजाय नागरिक के तौर पर रहा करते थे। मैंने अपने एक मुस्लिम मित्र से शर्त के बाद एक अर्द्ध चंद्राकार का टैटू भी अपनी बाजू पर बनवाया था। हालांकि उस दौरान उनमें से किसी ने भी मेरी शर्त स्वीकार नहीं की कि इस टैटू के बदले उन्हें भी ओम का टैटू बनवाना होगा। उन्होंने मुझे बताया कि यदि उन्होंने ऐसा कर लिया, तो इसके लिए उन्हें घर पर मार पड़ेगी।हम लंबे वक्त से आपस में मिल-जुलकर रहते आए हैं। हालांकि हिंदुत्व के प्रभाव के बावजूद भारत के लोग इस बात को शिद्दत के साथ महसूस करने लगे हैं कि उन्हें सब मतभेद भुलाकर एक होकर रहना होगा, जैसा कि सदियों पहले के हमारे पूर्वज रहा करते थे। मौजूदा संदर्भों में देश के विकास के लिए भी यही मार्ग कल्याणकारी होगा। बेशक समाज में कई स्तरों पर अभी भी चुनौतियां हैं, लेकिन इनसे मिलकर ही निपटा जा सकता है। असल में यही भारत का विचार है और देश के बहुसंख्यक लोग अब भी इसे पकड़े हुए हैं।

ई-मेलः kuldipnayar09@gmail.com


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