चेतराम जी के जाने का दुख !

By: Aug 12th, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्रीअबोहर के डीएवी कालेज से बीए करने के बाद चेतराम जी ने सामान्य जीवन जीने के बजाय अपने लिए नया रास्ता खोजने का निर्णय लिया और इस निर्णय ने उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक बना दिया। प्रचारक के नाते उन्होंने अपना अधिकांश जीवन हिमाचल प्रदेश में ही व्यतीत किया। हिमाचल प्रदेश में तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शायद ही ऐसा कोई कार्यकर्ता हो, जिसका कि चेतराम जी से संपर्क न हुआ हो…

पांच अगस्त को सुबह अबोहर से शाम सुंदर का फोन आया। शाम सुंदर ने चकमोह में मेरे पास रह कर बीए की पढ़ाई की थी। बाद में एलएलबी पास कर वह वकील बन गया और अबोहर में वकालत करने लगा। लगभग दो साल पहले वह मुझे अबोहर में ही मिला था। आज सुबह-सुबह उसके फोन से मैं थोड़ा आश्चर्य चकित था। उसने बताया कि चेतराम जी का रात्रि को शिमला के अस्पताल में निधन हो गया है और आज ही सायं को अंतिम संस्कार जंडवाला हनुमंता में है। यह दाम अबोहर के पास ही है। लेकिन पंजाब से उनका संबंध केवल जन्म का और अंतिम संस्कार का ही बना। अबोहर के डीएवी कालेज से बीए करने के बाद उन्होंने सामान्य जीवन जीने के बजाय अपने लिए नया रास्ता खोजने का निर्णय लिया और इस निर्णय ने उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक बना दिया। प्रचारक के नाते उन्होंने अपना अधिकांश जीवन हिमाचल प्रदेश में ही व्यतीत किया। हिमाचल प्रदेश में तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शायद ही ऐसा कोई कार्यकर्ता हो, जिसका कि चेतराम जी से संपर्क न हुआ हो। चेतराम जी मुझसे लगभग तीन साल बड़े थे। इसलिए मैं कल्पना कर सकता हूं कि आज से लगभग पचास साल पहले जब वह आमजन का रास्ता छोड़ संघ के प्रचारक बन कर राष्ट्र साधना की धूनी रमाने लगे होंगे, तो उनके घर में कैसा कोलाहल मचा होगा। पचास साल पहले उस छोटे से गांव में एक लड़के ने बीए किया और अब न नौकरी कर रहा है और न शादी, बल्कि घर छोड़ कर जा रहा है।

यह प्रश्न इसलिए भी मेरे जहन में आ रहा था, क्योंकि इसके तीन-चार साल बाद यही कोलाहल हमारे घर में भी मचा था, जब मैंने बीएससी करने के बाद पूरा समय देकर जनसंघ का संगठन मंत्री बनने के लिए घर छोड़ दिया था। यह सवाल मैंने एक बार चेतराम जी से पूछा था। उन्होंने कहा, ‘मैंने अपने घर वालों को बताया ही नहीं था। गांव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्या है और उसका प्रचारक होना क्या है, इसे कोई क्या जानता? इसलिए मैंने अपने पिता जी को बता दिया कि अबोहर में मुझे बैंक में नौकरी मिल गई है।’ लेकिन कुछ महीने बाद उनके पिता किसी काम से अबोहर आए तो चलते-चलते बेटे को भी मिलना जरूरी था, पर जिस बैंक का नाम चेतराम जी ने बताया, उसके मैनेजर ने बता दिया कि कम से कम इस नाम का कोई कर्मचारी इस बैंक में नहीं है। कुछ दिन बाद चेतराम घर गए तो पिता-पुत्र में सवाल-जवाब होना लाजिमी था। चेतराम जी ने पिता जी को बताया कि मैं उस बैंक में नहीं जिस में आप गए थे, बल्कि दूसरे बैंक में हूं। पर वह जल्दी ही समझ गए कि कितनी बार बैंक का नाम बदलता रहूंगा, क्योंकि अबोहर और जंडवाला हनुमंता का फासला ज्यादा नहीं है। इसलिए वह अबोहर से रोपड़ आ गए। चेतराम जी का मानना था कि रोपड़ उनके घरवालों की मार से काफी दूर है। लेकिन पुत्र मोह में फंसे पिता, दूर परदेस में फंसे पुत्र के लिए एक दिन खाने का सामान लेकर रोपड़ भी पहुंच गए। चेतराम जी तो नागपुर में संघ के एक शिविर में गए हुए थे, लेकिन पिता के आगे भेद सारा खुल गया था। उसके बाद घर में जो हंगामा हुआ। लेकिन चेतराम जी अपने संकल्प के पक्के निकले। अलबत्ता वह रोपड़ से हिमाचल प्रदेश में आ गए और अंत में यहीं के होकर रह गए।

मेरा चेतराम जी से परिचय उनके रोपड़ के दिनों में ही हुआ था। मैं उन दिनों नंगल के शिवालक कालज में पढ़ाता था और नवाजी महाराज के आश्रम में रहता था। उनमें कार्यकर्ताओं की चिंता का भाव रहता था। स्वयंसेवक या कार्यकर्ता को वह अपने परिवार का अंग ही मानते थे, इसलिए उसके सुख-दुख में शरीक होते थे। अपनी व्यक्तिगत समस्याएं भी कार्यकर्ता उनके साथ साझा करते थे और वह उनके समाधान के लिए पूरी कोशिश करते थे। इसलिए उनका कार्यकर्ताओं के साथ केवल संगठनात्मक संबंध ही नहीं था, बल्कि आत्मीय संबंध था। यही कारण है कि आज हिमाचल में हजारों हजार कार्यकर्ता ऐसे हैं, चेतराम जी के जाने से उनको लगता है कि उनके अपने परिवार का कोई व्यक्ति चला गया है। स्वभाव से वे मुंहफट थे। घुमा-फिरा कर बात करने और कहने का उनका स्वभाव नहीं था। डीएवी कालेज अबोहर में अध्यापक रहे प्रो. बृजलाल किनवा जी एक किस्सा सुनाते थे। कालेज में अध्यापकों के दो गुट थे। स्वाभाविक रूप से एक प्रिंसीपल के साथ था और दूसरा विरोध में। प्रिंसीपल ने एक बार गांव के कुछ लड़कों को बुला कर अपने विरोधी गुट के अध्यापकों के खिलाफ मोर्चा लगा देने के लिए उकसाया। मोर्चा तो लगा, लेकिन भेद भी खुल गया। लेकिन प्रिंसीपल यह क्यों मानता कि इसके पीछे उसका हाथ है। लड़के बुलाए गए। बाकी लड़कों ने तो प्रिंसीपल के आतंक के चलते मानने से इनकार कर दिया, लेकिन चेतराम ने स्पष्ट कह दिया जो प्रिंसीपल ने कहा था। यह अलग बात है कि उनकी यह स्पष्टवादिता कई बार उन पर भारी भी पड़ती थी।

जब मैं भी हिमाचल प्रदेश में आ गया तो मेरा उनसे फिर संपर्क हुआ, लेकिन अब तक वह पूरी तरह हिमाचल के वातावरण में रम-खप चुके थे । रोटी छोड़कर भात पर उतर आए थे। हिमाचल प्रदेश में हमीरपुर स्थित ठाकुर जगदेव चंद शोध संस्थान चेतराम जी की ही देन है। कल्पना यह हमीरपुर के ही प्रसिद्ध इतिहासकार ठाकुर राम सिंह की थी, लेकिन इसको मूर्त रूप चेतराम जी ने ही दिया था। चेतराम जी हिमाचल में संघ के प्रतिरूप हो गए थे। वह पिछले लगभग दस साल से गंभीर रूप से बीमार थे। चेतना पूरी थी, लेकिन बोलने में तकलीफ थी। धीरे-धीरे वह क्या कहना चाह रहे हैं, यह उनका निकट सहयोगी राकेश ही समझ पाता था। चलने-फिरने में तो दिक्कत थी ही, लेकिन इसके बावजूद सुख-दुख में स्वयंसेवकों के घरों में जाते थे। स्वयं कष्ट में होते हुए भी दूसरों के कष्ट को देख कर भावुक होते थे। बिलासपुर के संघ कार्यालय में रहते थे। प्रदेश भर से कार्यकर्ता उनको मिलने के लिए आते रहते थे। दो महीने पहले मैं उनको देखने के लिए गया। क्या कह रहे हैं, समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन उनका समझाने का प्रयास भी उतना ही बढ़ता जा रहा था। न समझा पाने की खीझ भी उनके चेहरे पर स्पष्ट देखी जा सकती थी। चेतना बनी रहे और शरीर अक्षम हो जाए, इससे बड़ा कष्ट जीवन में क्या हो सकता है, यह मुझे उसी दिन समझ में आया। लेकिन अब उनका भानजा बता रहा था कि चेतराम जी इस लोक से उस लोक में चले गए हैं। मुझे कुछ कहने का प्रयास करते हुए चेतराम जी का चेहरा बार-बार मेरी आंखों के सामने आ रहा है।

जून माह के दिनों की बात है, जब मैं चकमोह महाविद्यालय में प्रिंसीपल था। उन जिनों उस कालेज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का बीस दिवसीय शिविर लगा था। तब मुझे चेतराम जी को नजदीक से समझने-बूझने का अवसर मिला था। एक दिन जब वह प्रचारक बनने के प्रारंभिक दिनों के संस्मरण सुना रहे थे, तब मैंने उनसे पूछा था कि क्या आपको प्रचारक बनने के अपने निर्णय पर पछतावा नहीं हुआ? क्या आपको कभी नहीं लगा कि एक सामान्य गृहस्थ की तरह अपना जीवन जीते तो अच्छा रहता? कुछ देर सोचने के बाद वह बोले, ‘मुझे आज तक नहीं लगा कि मैंने गलत निर्णय लिया। इसके विपरीत मुझे कई बार लगता कि मुझे  ईश्वर ने इसी काम के लिए दुनिया में भेजा था। यदि मैं सामान्य गृहस्थ का जीवन जीता तो शायद मैं सुखी न रह पाता। मुझे तो बल्कि इस बात का दुख रहता है कि संघ कार्य के लिए एक जीवन ही समर्पित कर पाऊंगा।’ प्रारंभिक सालों के बाद चेतराम जी के पिता जी ने भी उनके इस निर्णय को स्वीकार कर लिया था। बहुत कम लोगों को पता होगा कि उनके पिता जी का जब पकी उम्र में देहांत हुआ तो पता चला कि वह मरने के बाद अपनी आंखों का दान कर गए थे। चेतराम जी को मेरी श्रद्धांजलि!

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com

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