राजनीति में नौकरशाही के शुभ संकेत

By: Sep 7th, 2017 12:05 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

पीके खुरानामोदी और शाह की सहमति से बने इस मंत्रिमंडल में नौकरशाहों का आगमन एक अच्छी शुरुआत साबित हो सकती है। प्रोफेशनल्स का राजनीति में आना अच्छा है, बशर्ते वे राजनीति की गंदगी के गुलाम न हो जाएं। मोदी और शाह का यह प्रयोग कितना सफल हो पाएगा, इसका निर्णय तो भविष्य करेगा लेकिन यदि यह प्रयोग सफल रहा तो देश की राजनीति के लिए शुभ संकेत ही होगा…

तीन साल के शासन काल में मोदी मंत्रिमंडल का यह तीसरा विस्तार है। नौ नए मंत्रियों में चार भूतपूर्व नौकरशाह हैं। मोदी ने पहली बार केजे अल्फोंस और हरदीप सिंह पुरी के रूप में दो ऐसे नौकरशाहों को मंत्रिपरिषद में शामिल किया है, जो सांसद भी नहीं हैं। रिटायर्ड डिप्लोमैट हरदीप सिंह पुरी को राज्य मंत्री के रूप में शहरी विकास मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार दिया गया है। उल्लेखनीय है कि स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट इस सरकार का महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट होने के अलावा मोदी का भी पसंदीदा प्रोजेक्ट है। पूर्व गृह सचिव राज कुमार सिंह को राज्य मंत्री के रूप में विद्युत विभाग का स्वतंत्र प्रभार दिया गया है। वह भी तब जबकि बिहार विधानसभा चुनावों में हार की समीक्षा करते हुए सिंह ने आरोप लगाया था कि वहां टिकट ‘बेचे’ गए हैं। रिटायर्ड आईएएस अधिकारी केजे अल्फोंस को राज्य मंत्री के रूप में पर्यटन मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार देने के अलावा इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय में भी राज्य मंत्री बनाया गया है, तो इसलिए भी कि वह ईसाई हैं और केरल से संबंधित हैं। मोदी और शाह केरल में ईसाई समुदाय में भाजपा की पैठ बनाने की जुगत में हैं। अल्फोंस इसके लिए उपयुक्त उम्मीदवार हैं। ये तीनों प्रशासनिक अनुभव वाले लोग हैं। यही कारण है कि इन्हें बेहद महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों में स्वतंत्र प्रभार दिया गया है। मंत्रिमंडल के इस फेरबदल की सबसे बड़ी खबर निर्मला सीतारमण को रक्षा मंत्री बनाया जाना है। निर्मला सीतारमण की योग्यता पर संदेह नहीं किया जा सकता। रक्षा मंत्री बनने के कारण अब वह सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी की सदस्य भी हो गई हैं। यह सरकार की फैसले लेने वाली शीर्ष समिति है और इसका अपना अलग रुतबा है। मोदी मंत्रिमंडल के इस विस्तार का विश्लेषण करें तो कई नतीजे सामने आते हैं। पहला तो यह कि मोदी अपनी इस शैली के मुरीद हैं कि वह हर बार कुछ ऐसा नया करें कि इतिहास में उनका नाम जाए। निर्मला सीतारमण को रक्षा मंत्री बनाना ऐसा ही निर्णय है।

दूसरा नतीजा यह है कि वे यह संदेश देने से कभी नहीं चूकते कि सत्ता का केंद्र अकेले वह हैं। मंत्रिमंडल विस्तार से संबंधित सारी अटकलों को झुठलाते हुए उन्होंने न केवल निर्मला सीतारमण को मंत्रिमंडल में बनाए रखा, बल्कि उन्हें बड़ी प्रोमोशन भी दी। उनके और अमित शाह के अलावा अंत तक किसी को खबर नहीं थी कि मंत्रिमंडल विस्तार में असल में क्या होने वाला है। तीसरा और अत्यंत महत्त्वपूर्ण नतीजा यह है कि मोदी पार्टी में किसी से कोई चुनौती नहीं चाहते। कुछ लोग कहते हैं कि भाजपा में योग्य लोगों की कमी है। यह सच है कि भाजपा में योग्य प्रशासकों की कमी खलती है, लेकिन उससे भी बड़ा सच यह है कि मोदी अच्छे जनाधार वाले योग्य लोगों को बर्दाश्त नहीं करते। उनके मंत्रिमंडल में एक भी ऐसा मंत्री नहीं है जो उन्हें चुनौती दे सके। योगी आदित्यनाथ मीडिया में छाए और मोदी के विकल्प के रूप में उनके नाम की चर्चा भर हुई तो शिव प्रसाद शुक्ल को वित्त राज्य मंत्री बनाकर योगी को संकेत देने का काम किया गया है। शिव प्रसाद शुक्ल सन् 1989 से लगातार पांच बार उत्तर प्रदेश विधानसभा में चुने गए। वह कल्याण सिंह से लेकर राजनाथ सिंह तक के मंत्रिमंडल में उच्च शिक्षा, ग्रामीण विकास और कारागार जैसे महत्त्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे हैं लेकिन 2002 में भाजपा की सरकार का कार्यकाल खत्म होने के बाद मानो शुक्ल के राजनीतिक जीवन पर भी ग्रहण लग गया।

दरअसल उनका चुनाव क्षेत्र गोरखपुर जिला में था, जहां से उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सांसद रहे हैं। जिला में शुक्ल के बढ़ते प्रभाव को योगी सहन नहीं कर पाए। सन् 2002 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने शिवप्रताप शुक्ल के खिलाफ एक निर्दलीय उम्मीदवार राधा मोहन अग्रवाल को लड़ाया और योगी के प्रभाव के सामने शुक्ल पराजित हो गए। उसके बाद से उन्होंने कोई चुनाव नहीं लड़ा। वह गुहार ही लगाते रह गए कि उन्हें कहीं तो एडजस्ट किया जाए, लेकिन मोदी और अमित शाह के उदय से पूर्व उनकी सुनवाई नहीं हुई। पिछले वर्ष उन्हें अचानक राज्यसभा भेज दिया गया और अब केंद्रीय मंत्रिपरिषद् में ले लिया गया है। योगी आदित्यनाथ राजपूत हैं और उनके उन्नयन और कामकाज के तरीके से ब्राह्मण वर्ग में बेचैनी थी। उत्तर प्रदेश से शिव प्रसाद शुक्ल और बिहार से अश्विनी कुमार चौबे को मंत्रिमंडल में शामिल करके ब्राह्मण समुदाय को खुश करने का राजनीतिक प्रयास भी किया गया है। चौथा नतीजा यह है कि नारों और जुमलों के कारण लोकप्रियता के चरम पर पहुंची इस सरकार को आखिर कुछ करके भी दिखाना जरूरी था। मोदी और शाह दोनों को इस सच का एहसास है कि रोजगार बढ़ नहीं रहे हैं। नोटबंदी और जीएसटी की वे जितनी भी प्रशंसा करें, लेकिन असल में इनसे रोजगार छिने हैं, अर्थव्यवस्था में सुस्ती आई है और व्यावसायिक संगठन बड़ी शिद्दत से महसूस करने लगे हैं कि मोदी मजबूत नेता तो हैं लेकिन उनके बहुत से निर्णय अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक साबित हुए हैं। आम आदमी अभी इस असलियत को नहीं समझ पाया है, इसलिए मोदी की लोकप्रियता बरकरार है। यदि आम आदमी तक भी यह संदेश चला गया कि मोदी के निर्णय असल में अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक साबित हुए हैं तो उनकी लोकप्रियता ही नहीं, विश्वसनीयता भी खतरे में पड़ जाएगी। ऐसे में मोदी का करिश्मा और अमित शाह की चुनावी रणनीति के बावजूद 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुमत हासिल करना बड़ी चुनौती बन सकता है। इस आशंका को भांपते हुए उन्होंने मंत्रिमंडल विस्तार में राजनीतिज्ञों के बजाय नौकरशाहों को तरजीह दी है। मंत्रिमंडल विस्तार के विश्लेषण का पांचवां नतीजा यह है कि सभी खासियतों के बावजूद मोदी की भी सीमाएं हैं और वह एकदम से संघ के विरुद्ध नहीं जा सकते। उमा भारती नरेंद्र मोदी के लिए सदैव से सिरदर्द रही हैं। वह भाजपा से बाहर गईं तो भी वह संघ की प्रिय बनी रहीं। गंगा की सफाई के मामले में फिसड्डी साबित हो चुकी उमा भारती की मंत्रिमंडल से छुट्टी की चर्चा गर्म थी, लेकिन उनका कद घटाने के बावजूद अगर उन्हें मंत्रिमंडल में रखा गया है तो इसका कारण यह है कि वह संघ की प्रिय हैं और संघ प्रमुख उन्हें मंत्रिमंडल में ही देखना चाहते थे। मोदी को इस एक मुद्दे पर संघ प्रमुख की बात माननी पड़ी है। मोदी और शाह की सहमति से बने इस मंत्रिमंडल में नौकरशाहों का आगमन एक अच्छी शुरुआत साबित हो सकती है। प्रोफेशनल्स का राजनीति में आना अच्छा है, बशर्ते वे राजनीति की गंदगी के गुलाम न हो जाएं। मोदी और शाह का यह प्रयोग कितना सफल हो पाएगा, इसका निर्णय तो भविष्य करेगा लेकिन यदि यह प्रयोग सफल रहा तो देश की राजनीति के लिए शुभ संकेत ही होगा।

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