भाजपा पर भारी गुजरात

By: Oct 5th, 2017 12:05 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

पीके खुरानामोदी के प्रधानमंत्री बनने में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका रही है और मोदी ने कभी भी सोशल मीडिया का दामन नहीं छोड़ा। लेकिन अब सोशल मीडिया ही भाजपा के जी का जंजाल बन गया है। सोशल मीडिया पर ‘विकास पगला गया है’ के जोर ने भाजपा की नींद उड़ा रखी है। कभी गुजरात मॉडल को आदर्श व्यवस्था के रूप में पेश किया गया था, लेकिन आज गुजरात ही भाजपा पर भारी पड़ रहा है…

जब कोई दल सत्ता में होता है, तो अनायास ही उसे कई लाभ मिलने लगते हैं। सत्तासीन दल जनता के लाभ की नीतियां लागू करके जनसमर्थन बढ़ा सकता है और सरकारी संसाधनों का उपयोग अपने हक में कर सकता है। यहां तक कि वह सरकार की ओर से धन खर्च करके सरकार के प्रचार के नाम पर पार्टी का प्रचार कर सकता है। यूं भी जब कोई दल सत्ता में होता है, तो उसके समर्थकों की संख्या बढ़ जाती है या वे ज्यादा मुखर हो जाते हैं। सौराष्ट्र, गुजरात की राजनीति में हमेशा अहम रहा है। गुजरात की कुल 182 में से 58 सीटें इस क्षेत्र से हैं। यह इलाका किसानों का है। पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल ने बड़ी मेहनत से इस इलाके में भाजपा को मजबूत बनाया था। इसी दौरान विहिप ने शहरों से लेकर गांवों तक एक नेटवर्क फैला दिया था, जिसे पगपाड़ा संघ यानी पैदल चलकर जाना कहा जाता था। किसी धार्मिक कार्यक्रम में लोग पैदल ही निकल पड़ते हैं। गुजरात के सामाजिक ताने-बाने में धर्म शामिल है और हर अच्छे काम की शुरुआत धार्मिक स्थान से की जाती है। कोई भी राजनीतिक दल इस परंपरा को नजरअंदाज नहीं कर सकता। हिंदू ही नहीं, गुजरात में मुसलमान भी सशक्त वोट बैंक हैं और उनकी काफी अहमियत है। केवल नरेंद्र मोदी ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में चुनावों के समय स्पष्ट रूप से हिंदू ध्रुवीकरण की नीति अपनाई। हालांकि सन् 2007 के गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद उन्होंने भरसक कोशिश की कि 2002 के दंगों का दाग उनके दामन से साफ हो जाए।

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने 2014 के आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को जोरदार जीत दिलाई। इसके बाद से इन दोनों की पकड़ देश पर लगातार मजबूत होती दिखी है। हर गुजरते दिन के साथ इसकी धमक महसूस की जा सकती है। भाजपा की इस मजबूत जोड़ी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कांग्रेस मुक्त भारत के सपने को काफी हद तक पूरा कर दिखाया है और देश को भगवा झंडे से रंग डाला है। भारत के 13 राज्यों में भाजपा की सरकार है, जबकि पांच अन्य राज्यों में वह सहयोगी दलों के साथ सत्ता में है। पार्टी ने उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी अपनी जड़ों को मजबूत किया है। इस लिहाज से देखें तो अमित शाह भाजपा के सबसे कामयाब अध्यक्ष हैं और मोदी सबसे कामयाब प्रधानमंत्री। शाह और मोदी की रणनीति ने पार्टी को असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में जीत दिलाई है, वहीं गोवा में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को पछाड़कर भाजपा अपनी सरकार बनाने में कामयाब रही। इतना ही नहीं भाजपा, पीडीपी के साझेदार के तौर पर पहली बार जम्मू-कश्मीर में सत्ता में आई। इसके बाद भाजपा को उत्तर प्रदेश में शानदार जीत मिली। दिल्ली और बिहार में जरूर भाजपा की हार हुई, लेकिन बाद में नीतीश कुमार को अपने खेमे में लाकर भाजपा ने बिहार की हारी हुई बाजी को जीत में पलट दिया। अमित शाह को जितनी ताकत नरेंद्र मोदी से मिली है, उसी हिसाब से वह मोदी के भरोसे पर भी खरे उतरे हैं। अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए दोनों कोई भी तरीका अपनाने से नहीं हिचकते। उनका इरादा केवल लक्ष्य को हासिल करना होता है। मसलन, अरुणाचल प्रदेश में 43 विधायकों में 33 विधायकों को साथ लाकर उन्होंने सरकार बना ली थी।

जब 2001 में मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया, तब शाह का सुनहरा दौर शुरू हुआ। खासकर तब, जब 2002 के गोधरा ट्रेन नरसंहार और पूरे प्रदेश में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी की धमाकेदार जीत हुई। मोदी सरकार बनने पर शाह पोर्टफोलियो में गृह, कानून और न्याय, जेल, सीमा सुरक्षा, आवास और संसदीय कार्य शामिल थे। शाह ने जल्द ही पार्टी की पहुंच राज्य के विशाल को-ऑपरेटिव सेक्टर और खेल संस्थाओं तक बना दी। खुद भी वह चुनाव में प्रभावशाली ढंग से जीतते रहे। उन्होंने गुजरात क्रिकेट एसोसिएशन का नियंत्रण कांग्रेस नेता नरहरी अमीन से लिया और मोदी को अध्यक्ष चुनवाया। 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले उन्होंने नरहरी को भी बीजेपी में शामिल करवा दिया। शाह ने न सिर्फ राज्य के ज्यादातर को-ऑपरेटिव बैंकों को बीजेपी के पक्ष में करने जैसा काम किया, बल्कि जिलों की मिल्क डेयरियों को पार्टी के करीब लाने में भी उनकी अहम भूमिका रही। इन सब बातों से मोदी को उन इलाकों में पकड़ बनाने में मदद मिली, जहां गुजरात के एक तिहाई मतदाता बसते हैं। मोदी और शाह दोनों बड़ी गहराई से काम करते हैं। जहां पर उन्हें सेंध लगानी होती है, वहां पूरी स्टडी करते हैं, कोई दरार तलाशते हैं और फिर हथौड़े की तरह वार करके उसे और चौड़ी कर देते हैं। इस तरह वे विरोधियों को या तो ढहा देते हैं या फिर अपने पक्ष में कर लेते हैं। मोदी और शाह में एक ही फर्क है कि मोदी वाकपटु हैं, जबकि शाह चारदीवारी के भीतर सियासी चक्रव्यूह रचने में माहिर हैं। वह सियासी भीड़ से दूर रहना पसंद करते हैं और अपने बॉस को समझते हैं। यही कारण है कि वह प्रधानमंत्री के सबसे विश्वसनीय सलाहकार बन सके हैं। अमित शाह और नरेंद्र मोदी की इस मजबूत जोड़ी के बावजूद और दोनों के गुजराती होने के बावजूद आज गुजरात में किसानों, दलितों और पाटीदारों में असंतोष का माहौल है।

भाजपा किसानों के असंतोष से इस हद तक डरी हुई है कि राहुल गांधी की यात्रा से ठीक एक दिन पहले गुजरात सरकार ने मूंगफली की खरीद की कीमत 600 रुपए से बढ़ाकर 900 रुपए प्रति क्विंटल करने का ऐलान कर दिया। उल्लेखनीय है कि इस वर्ष के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव होने होंगे। गुजरात में भाजपा का शासन है, जबकि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सत्ता में है। यह रुचिकर तथ्य है कि गुजरात में भाजपा के खिलाफ एंटी-इनकंबेंसी फैक्टर की आहट सुनाई दे रही है। राज्य में निराशा का वातावरण है और भाजपा बैकफुट पर नजर आ रही है। अरुण जेटली और अमित शाह की अपीलों के बावजूद निराशा के वातावरण में सुधार नहीं हुआ है। साढ़े तीन साल पहले का गुजरात अब बदला-बदला सा नजर आ रहा है। शंकर सिंह वाघेला भाजपा के सिरदर्द का एक और कारण हो सकते हैं। राहुल गांधी ने सौराष्ट्र का दौरा खत्म किया ही है और इस दौरान वह किसानों और व्यावसायियों से मिले। गुजरात विधानसभा चुनावों के मद्देनजर इन सबकी अहमियत बढ़ गई है। नोटबंदी और जीएसटी के कारण उपजे असंतोष का असर गुजरात में देखने को मिल रहा है। व्यापारी वर्ग भाजपा से नाराज है। सोशल मीडिया भाजपा का बड़ा हथियार था। मोदी के प्रधानमंत्री बनने में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका रही है और मोदी ने कभी भी सोशल मीडिया का दामन नहीं छोड़ा। लेकिन अब सोशल मीडिया ही भाजपा के जी का जंजाल बन गया है। सोशल मीडिया पर ‘विकास पगला गया है’ के जोर ने भाजपा की नींद उड़ा रखी है। कभी गुजरात मॉडल को आदर्श व्यवस्था के रूप में पेश किया गया था, लेकिन आज गुजरात ही भाजपा पर भारी पड़ रहा है। चुनाव में अभी कुछ समय बाकी है। यह देखना रुचिकर होगा कि मोदी और शाह इस स्थिति से कैसे निपटते हैं।

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