अकेला पठानिया खूब लड़ेया…

By: Nov 11th, 2017 12:02 am

(आरके भार्गव, रिटायर्ड लेक्चरर )

दुनिया भर में अलग-अलग कालखंडों में फली-फूली सभ्यताओं और संस्कृतियों में भारतीय सभ्यता का एक अनूठा महत्त्व व स्थान है। मां भारती की यह विशिष्टता व अद्वितीयता इसलिए भी है, क्योंकि इसकी संतानोें ने व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर प्रयास करते हुए इसकी गोद का सदा हरा-भरा रखा। व्यक्तिगत रूप में भारत भूमि की अनेक ऋषि-मुनियों, संतों, योगियों व महापुरुषों ने सेवा की। इन्हीं पुण्य आत्माओं में से एक थे-वजीर राम सिंह पठानिया। अंग्रेजों के दमनचक्र के खिलाफ अगर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का आंदोलन हुआ, तो उसकी पहली चिंगारी वजीर राम सिंह पठानिया के रूप में फूटी थी। क्रूर अंग्रेजी हुकूमत की ज्यादतियों के खिलाफ पहली तलवार वजीर राम सिंह पठानिया की उठी, जिन्होंने नूरपुर रियासत को अंग्रेजों से स्वतंत्र करवा लिया था। सूक्ष्म अध्ययन से पता चलता है कि वजीर वीर राम सिंह न केवल उच्च कोटि के वीर, बल्कि एक कुशल और सुलझे हुए कूटनीतिज्ञ भी थे।

वजीर राम सिंह पठानिया के व्यक्तित्व में तांत्या टोपे सी कूटनीति, महाराणा प्रताप सी वीरता और छत्रपति शिवाजी सी रणकुशलता झलकती थी। यह अलग और दुखद विषय है कि मां भारती के इस वीर सपूत को अब तक भारतीय इतिहास में उचित स्थान नहीं मिल पाया। हम अपने शैक्षणिक पाठ्यक्रम में मुगलों-अंग्रेजों के अत्याचारों के बारे में तो लंबे-लंबे पाठ पढ़ते और पढ़ाते हैं, लेकिन दुखद यह कि उसमें वजीर राम सिंह पठानिया की शूरवीरता का एक अध्याय नजर नहीं आता। इससे भी बढ़कर हैरानी यह कि हम अब भी इस दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं कर रहे हैं। राम सिंह पठानिया का जन्म नूरपुर के बासा वजीरां में वजीर शाम सिंह व इंदौरी देवी के घर 1824 में हुआ था। छोटी सी उम्र में ही उन्हें महाराणा प्रताप से मिलने का सौभाग्य हासिल हुआ। नूरपुर पहली ऐसी रियासत थी, जिसने उन्नीसवीं सदी के मध्य में सबसे पहले फिरंगियों के विरुद्ध विद्रोह किया। उस समय अंग्रेजों की ललचाई आंखें पंजाब समेत पूरे भारत पर थीं। पिता के बाद इन्होंने 1848 में वजीर का पद संभाला। उस समय रियासत के राजा वीर सिंह का देहांत हो चुका था। उनका बेटा जसवंत सिंह केवल दस साल का था।

अंग्रेजों ने जसवंत सिंह को नाबालिग बताकर राजा मानने से इनकार कर दिया तथा उसकी 20,000 रुपए वार्षिक पेंशन निर्धारित कर दी। इसके साथ उन्होंने यह शर्त भी थोप दी थी कि वह नूरपुर से बाहर जाकर रहें। राम सिंह पठानिया और उनके पिता को अंग्रेजों की ये शर्तें मंजूर नहीं थीं। इसलिए जालंधर के कमिश्नर जॉन लारेंस और हर्सकाइन ने पहाड़ी राजाओं पर सख्ती कर दी। उसके बाद जॉन लारेंस ने इतनी रियायत दे दी कि नूरपुर का राजा जहां भी रहना चाहे रह सकता है, बशर्ते वह वजीर शाम सिंह और उसके पुत्र राम सिंह को पद से हटा दे।  हालांकि लारेंस से शाम सिंह की वृद्धावस्था और स्थानीय दबाव के चलते शाम सिंह को पद से हटाने के फैसले को वापस ले लिया, लेकिन राम सिंह पर वह रोक अब भी जारी रही। अंग्रेजों की यह धूर्तता राम सिंह को पसंद नहीं आई और इसका उचित जवाब अंग्रेजों को देने का मन बना लिया। उन्होंने अंग्रेजी षड्यंत्र का जवाब देते हुए जसवंत सिंह को नूरपुर का राजा और खुद को उसका वजीर घोषित कर दिया। उनके विद्रोह की खबर जब होशियारपुर पहुंची, तो अंग्रेजों ने शाहपुर किले पर हमला कर दिया। जब अंग्रेजी सेना का दबाव बढ़ा, तो मजबूरी में राम सिंह और उनके साथियों को रात के समय में किला छोड़ना पड़ा। उन्होंने जम्मू से मन्हास, जसवां से जसरोटिए, अपने क्षेत्र से पठानिए और कटोच राजपूतों को एकत्र किया। 14 अगस्त, 1848 की रात में सबने शाहपुर कंडी दुर्ग पर हमला बोल दिया।

वह दुर्ग उस समय अंग्रेजों के अधिकार में था। भारी मारकाट के बाद 15 अगस्त को राम सिंह ने अंग्रेजी सेना को खदेड़कर दुर्ग पर अपना झंडा लहरा दिया। रामसिंह पठानिया की ‘चंडी’ नामक तलवार 25 सेर वजन की थी। पठानिया की तरह उनकी तलवार का भी अंग्रेजों में खूब खौफ था। वजीर राम सिंह पठानिया ने अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था। आमने-सामने की कई लड़ाइयों में मुंह की खाने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए। उन्हीं के एक ब्राह्मण मित्र ने अंग्रेजों के लालच में आकर उन्हें पकड़ने का भेद बता दिया कि राम सिंह पूजा के वक्त अपने पास कोई हथियार नहीं रखते। पूजा के वक्त जब उन्हें घेर लिया, तो अपने कमंडल से ही उन्होंने नौ ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला था। एक युद्ध में कई अंग्रेजों ने मिलकर षड्यंत्रपूर्वक घायल वीर रामसिंह को पकड़ लिया।

उन पर फौजी अदालत में मुकदमा चलाकर आजीवन कारावास के लिए पहले सिंगापुर और फिर रंगून भेज दिया गया। रंगून की जेल में ही 17 अगस्त, 1849 को इस वीर सपूत ने अपने प्राण त्याग दिए। राम सिंह पठानिया युवा पीढ़ी का आदर्श बनकर इसे सही मार्ग दिखा सकते हैं। दुर्भाग्य से ऐसा होता दिखता नहीं। वजीर राम सिंह पठानिया की शहादत के प्रति इससे बड़ा और अन्याय क्या हो सकता है कि वर्तमान पीढ़ी उनके बारे में अनविज्ञ हो। इसके कसूरवार वे तमाम इतिहासकार हैं, जिन्होंने अनजाने में या जानबूझ कर भारतीय इतिहास के इस पराक्रमी किरदार को पाठ्यक्रम में जगह नहीं दी। अब केंद्र सरकार पाठ्यक्रम में बदलाव की तैयारी में है। ऐसे में यही केंद्र सरकार और हम भारतीयों की वजीर राम सिंह पठानिया के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि उन्हें इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में उचित स्थान दिया जाए, ताकि हमारी आने वाली पीढि़यां भी इस सपूत के जीवन से प्रेरणा ले सकें।


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