मोदी की विस्तारवादी महत्त्वाकांक्षा

By: Nov 23rd, 2017 12:08 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

 

भाजपा पहली बार केंद्र में अपने दम पर सत्ता में आई है। भाजपा निश्चय ही इसका लाभ उठा कर हर राज्य में अपने काडर को मजबूत करना चाहेगी, ताकि वह लंबे समय तक सत्ता में बनी रह सके। सोशल मीडिया तथा विपक्ष की सारी आलोचनाओं के बावजूद मोदी की अपनी छवि बरकरार है, क्योंकि जनता को उनकी नीयत पर विश्वास है और उनके नाम पर वोट मिलते हैं। इसलिए भाजपा और मोदी दोनों की यह मजबूरी है कि वे समय रहते ज्यादा से ज्यादा राज्यों में अपने पैर पसार कर अपनी नींव मजबूत कर लें…

लोग-बाग अकसर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करते हैं, क्योंकि वे अपने मूल उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के बजाय राज्य स्तरीय चुनावों में बहुत सा समय लगा रहे हैं। सोशल मीडिया पर इसे लेकर बहुत से चुटकुले चल रहे हैं और यह कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री का निवास स्थान वह राज्य होता है, जहां चुनाव चल रहे हों। प्रधानमंत्री मोदी के प्रति सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी कि वह भाजपा के नहीं, भारत के प्रधानमंत्री हैं, को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। चुनाव उत्तर-पूर्व में हो, दिल्ली में हो, बिहार में हो, उत्तर प्रदेश में हो या हिमाचल प्रदेश में, हर जगह मोदी प्रमुखता से नजर आते हैं। अब गुजरात के चुनावों में तो चुनाव आयोग की भूमिका पर भी अंगुलियां उठी हैं और यह कहा जाने लगा है कि मोदी ने चुनाव आयोग को प्रभावित करके चुनाव की तिथियां हिमाचल प्रदेश के साथ घोषित नहीं होने दीं। यही नहीं, गुजरात चुनावों में भाजपा की भद्द न मचे, इसलिए संसद का शीतकालीन सत्र भी नहीं बुलाया जा रहा है। बहुत से लोग समझते हैं कि चूंकि प्रधानमंत्री सहित बहुत से भाजपा नेता गुजरात चुनावों में व्यस्त हैं, इसलिए संसद का शीतकालीन सत्र टाला जा रहा है। असलियत यह है कि प्रधानमंत्री को डर है कि यदि सत्र चला तो संसद में उठने वाले मुद्दे गुजरात चुनाव के मुद्दे बन सकते हैं और मोदी इस स्थिति से हर हाल में बचना चाहते हैं। रिजर्व बैंक द्वारा नोटबंदी के आंकड़े जारी होने, जीएसटी लागू होने के बाद व्यापारियों की मुश्किलों की रिपोर्ट, जय शाह के व्यापार और राफेल सौदे का मुद्दा आदि कितने ही सवाल इस सत्र में उठ सकते हैं।

मोदी ऐसी परंपराओं की नींव डाल रहे हैं, जो लोकतंत्र के लिए सुखद नहीं हैं। प्रधानमंत्री की आलोचना तो हो ही रही थी, लेकिन अब चुनाव आयोग की नीयत पर भी संदेह होना और संसद का सत्र न बुलवाना और भी चिंताजनक है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मोदी की आलोचना के पीछे ठोस तथ्य हैं। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना करते समय हम शायद पूरी तस्वीर नहीं देख पा रहे और हम लोग अकसर एक ज्यादा गहरे तथ्य को सिरे से ही नजरअंदाज करते जा रहे हैं। हमारी वर्तमान शासन प्रणाली की मूलभूत खामियां ऐसी हैं, जो प्रधानमंत्री मोदी को उनके वर्तमान व्यवहार के लिए विवश कर रही हैं। आइए, इसे जरा विस्तार से समझने का प्रयत्न करते हैं। देश में लंबे समय तक कांग्रेस का शासन रहा है और महज साढ़े तीन साल पहले ही भाजपा पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र में सत्ता में आई है। मोदी जब सत्ता में आए तो लोकसभा में उनके पास बहुमत था, लेकिन राज्यसभा में कांग्रेस उनके छक्के छुड़वा देती थी। यही कारण था कि शुरू के कई महीने मोदी अध्यादेशों के सहारे शासन चलाते रहे। हालांकि बात-बात पर अध्यादेश जारी करने के लिए भी मोदी सरकार की कटु आलोचना हुई थी। बहुत से राज्यों में विपक्षी दलों का शासन था। केंद्र सरकार को अपने मनचाहे कानून पास करवाने के लिए संसद के दोनों सदनों में बहुमत की आवश्यकता होती है, जो कि मोदी के पास नहीं था। देश भर में अपना एजेंडा लागू करने के लिए मोदी को राज्यों में भी भाजपा की सरकार बनवाना आवश्यक था। राज्यों में भाजपा की सरकार होने का तिहरा उद्देश्य है। पहला उद्देश्य तो यही है कि हर मुख्यमंत्री मोदी की जी हजूरी करने वाला हो। दूसरा उद्देश्य यह है कि राज्यों में भी भाजपा की नीतियों का विस्तार हो और पार्टी मजबूत बने। तीसरा उद्देश्य यह है कि राज्यों से चुने जाने वाले राज्यसभा सदस्य भी भाजपा के हों। यह तभी संभव हो सकता है, यदि राज्यों में भाजपा बहुमत में हो।

सन् 2014 के लोकसभा चुनावों के समय मोदी लहर इतनी तेज और व्यापक थी कि भाजपा के बहुत से उम्मीदवार ऐसी जगहों से भी जीत गए, जहां न तो भाजपा का पार्टी संगठन था और न ही उसके नेताओं की कोई अपनी पहचान थी। भाजपा पहली बार केंद्र में अपने दम पर सत्ता में आई है। भाजपा निश्चय ही इसका लाभ उठा कर हर राज्य में अपने काडर को मजबूत करना चाहेगी, ताकि वह लंबे समय तक सत्ता में बनी रह सके। राज्यों की समस्या यह है कि भाजपा के पास स्थानीय स्तर के कद्दावर नेताओं की कमी है, जो वोट भी बटोर सकें। सोशल मीडिया तथा विपक्ष की सारी आलोचनाओं के बावजूद मोदी की अपनी छवि बरकरार है, क्योंकि जनता को उनकी नीयत पर विश्वास है और उनके नाम पर वोट मिलते हैं। इसलिए भाजपा और मोदी दोनों की यह मजबूरी है कि वे समय रहते ज्यादा से ज्यादा राज्यों में अपने पैर पसार कर अपनी नींव मजबूत कर लें।

यदि मोदी ऐसा नहीं करेंगे तो वह केंद्र में भी अपनी मर्जी के कानून न पास करवा सकेंगे और न ही उन्हें लागू कर सकेंगे। अतः केंद्र सरकार की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि ज्यादा से ज्यादा राज्यों में उसके  दल की सरकारें हों। मोदी की यही विवशता उनसे वह काम भी करवा रही है, जो या तो अनैतिक हैं या फिर संविधान और संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने वाले हैं। अगर वह ऐसा नहीं करते हैं, तो वह अंततः एक कमजोर प्रधानमंत्री माने जाएंगे, क्योंकि तब वह अपने घोषणा पत्र को लागू करने के लिए आवश्यक कानून नहीं बनवा पाएंगे।

इसी का दूसरा पहलू देखेंगे तो हमें स्पष्ट हो जाएगा कि यह सारी गड़बड़ हमारे संविधान में दिए गए प्रावधानों की वजह से हो रही है। हमारे देश में यह व्यवस्था है कि यदि सरकार द्वारा पेश किया गया कोई बिल पास न हो सके, तो सरकार गिर जाएगी। इसलिए हर प्रधानमंत्री के लिए अपना बहुमत बनाए रखना आवश्यक है। हम पहले ही कह चुके हैं कि चूंकि भाजपा पहली बार केंद्र में अपने दम पर सत्ता में आई है और फिलहाल मोदी की छवि बरकरार है, इसलिए मोदी और भाजपा इस स्थिति का अधिक से अधिक लाभ उठाकर भाजपा का विस्तार करना चाहते हैं। मोदी की जगह यदि कोई अन्य प्रधानमंत्री होता, तो उसे भी इन पैंतरों का सहारा लेना पड़ता या फिर आदर्शों में फंसे रह कर वह प्रधानमंत्री नाकामयाब हो जाता। इस विश्लेषण का मंतव्य यह है कि हम असलियत समझें, पूरी तस्वीर को देखें और यह तय करें कि खामी कहां है। व्यक्ति बदल देने से स्थिति में परिवर्तन नहीं आएगा, हमें सिस्टम बदलने की आवश्यकता है। संसदीय व्यवस्था की इन खामियों को दूर करने के लिए हमें चरणबद्ध ढंग से प्रयत्न करना होगा।

शुरुआत हम स्थानीय स्वशासन से कर सकते हैं यानी शहर के प्रशासन के लिए नगर निगम के पार्षद कानून बनाएं और महापौर (मेयर) उनको लागू करे। दोनों का काम अलग-अलग हो। बिल पास होने या न होने से मेयर की कुर्सी को खतरा न हो। मेयर का कार्यकाल चार साल का हो, जबकि पार्षदों में से एक-तिहाई हर दो साल बाद रिटायर होते रहें। इससे निगम में स्थायित्व भी आएगा और जिम्मेदारी भी तय हो सकेगी। यदि यह प्रयोग सफल रहे तो धीरे-धीरे इसे राज्य स्तर पर और फिर केंद्रीय स्तर पर लागू किया जा सकता है। हम जानते हैं कि संसदीय व्यवस्था असफल हो चुकी है और उससे देश का नुकसान हो रहा है। इसलिए अब यह आवश्यक है कि हम राष्ट्रपति प्रणाली अथवा संसदीय एवं राष्ट्रपति प्रणाली के मिले-जुले रूप को आजमा कर देखें और देश के लिए उपयुक्त शासन प्रणाली का चुनाव करें। यदि ऐसा हो सका तो फिर हमें मोदी की आलोचना की आवश्यकता नहीं रहेगी।

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