शक्तियों के लिए संघर्ष से उपजा संकट

By: Nov 16th, 2017 12:05 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

लोकतंत्र की सफलता में शक्तियों के तर्कसंगत बंटवारे का मूल मंत्र भुला देना लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकता है और आज नहीं तो भविष्य में कोई अन्य नेता तानाशाह बन सकता है। इसी तरह संवैधानिक संस्थाओं, खासकर न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी सवालिया निशान जनता को आंदोलित कर सकता है जो अंततः किसी बड़े आंदोलन में बदल सकता है। दोनों ही स्थितियां सुखद नहीं हैं…

हर व्यक्ति अधिक से अधिक अधिकार और शक्तियां चाहता है। हर व्यक्ति यह मानता है कि वह इस संसार का सर्वाधिक आदर्श व्यक्ति है और जो कुछ वह सोचता है, एकदम सही है। हर व्यक्ति यह मानता है कि विश्व के हर दूसरे व्यक्ति को बिलकुल वैसे ही काम करना चाहिए, जैसा कि वह सोचता है। यह बिलकुल स्वाभाविक है और यही कारण है कि हर व्यक्ति अधिक से अधिक शक्तियां चाहता है, ताकि वह शेष विश्व को ‘ठीक’ कर सके या ‘सुधार’ सके। यही नहीं, हर व्यक्ति सबसे पहले अपने बारे में सोचता है और इस कारण से वह हाथ में आई शक्तियों को छोड़ना नहीं चाहता। ये दो महत्त्वपूर्ण कारण हैं, जो सत्ता संघर्ष को जन्म देते हैं। अधिकारों व सुविधाओं पर कुंडली मार कर बैठ जाना और अधिकाधिक शक्ति संग्रहण में लिप्त होना, सत्ता की खींचतान के कारण बनते हैं। विश्व में जहां कहीं भी लोकतंत्र है और वहां संविधान लागू है, तो संविधान इस प्रकार से बनाया जाता है कि शक्तियों का तर्कसंगत बंटवारा हो और किसी एक व्यक्ति के पास इतनी अधिक शक्तियां न आ जाएं कि वह तानाशाह बन सके। भारतवर्ष में संसदीय प्रणाली का संविधान लागू है, जो संसद की सर्वोच्चता की अवधारणा के आधार पर बनाया गया था। इनमें संसद के अलावा चुनाव आयोग और न्यायपालिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं, जिन पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। लेकिन भारतीय संविधान की कुछ अंतर्निहित खामियों के कारण न केवल इन संस्थाओं का क्षरण हुआ है, बल्कि इनकी साख भी खतरे में है।

नरेंद्र मोदी एक दशक से भी अधिक समय तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे हैं। उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार गुजरात विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। मोदी के लिए गुजरात में जीत न केवल साख का सवाल है, बल्कि यह उनके दोबारा प्रधानमंत्री बनने के सपने को भी प्रभावित कर सकता है। नोटबंदी और जीएसटी के मिले-जुले प्रभाव के कारण गुजरात के व्यापारियों में मोदी के खिलाफ नाराजगी की लहर थी। राज्य से मिली फीडबैक से भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व चिंतित था। परेशानी यह थी कि साथ ही हिमाचल विधानसभा के चुनाव भी होने थे और पिछला अनुभव यह रहा है कि दोनों राज्यों के चुनाव की तिथियां एक साथ घोषित होती रही हैं। लेकिन इस बार चुनाव आयोग ने हिमाचल विधानसभा के लिए चुनाव की तिथियां घोषित करते समय गुजरात के बारे में चुप्पी साध ली और यह तर्क दिया कि हिमाचल प्रदेश में संभावित बर्फबारी के कारण चुनाव पहले करवाना आवश्यक है, जबकि गुजरात के विधानसभा चुनावों की तिथि की घोषणा हो जाए तो वहां लंबे समय के लिए आचार संहिता लागू रहेगी। इससे राज्य में चल रही विकास की गतिविधियां प्रभावित होंगी। चुनाव आयोग का यह तर्क किसी के गले नहीं उतरा और यह पहली बार हुआ है कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की नीयत पर सवाल उठाए गए। चुनाव आयोग की इस सफाई के बाद सोशल मीडिया पर चुटकुलों की बाढ़ आ गई।

एक जमाना था, जब टीएन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त थे तो चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा में चार चांद लगे थे। अब यह वक्त है कि चुनाव आयोग की नीयत पर ही सवाल उठने लगे हैं। पिछले साल आठ नवंबर को नोटबंदी की घोषणा के बाद भी रिजर्व बैंक का रवैया अतर्कसंगत रहा और यह स्पष्ट था कि बिना पूरी तैयारी के एक महत्त्वपूर्ण फैसला देश पर थोप दिया गया, जिससे आम जनता की परेशानियां बढ़ीं। ऐसा माना जाता है कि चुनाव आयोग और रिजर्व बैंक ने प्रधानमंत्री के दबाव में काम किया। इस समय सर्वोच्च न्यायालय सवालों के घेरे में है, जहां सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही एक मामले में पक्षकार हैं। इससे पहले भी कोलकाता उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की आपसी खींचतान ने न्यायालय को हंसी का पात्र बना दिया था। अब यह ताजा मामला ऐसा है, जिसने न्यायालय की निष्पक्षता पर सवालिया निशान लगा दिया है। इससे पहले न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित कोलेजियम की संरचना को लेकर सर्वोच्च न्यायालय और सरकार में खींचतान रही है।

संवैधानिक संस्थाओं की शक्तियों का क्षरण या उनकी विश्वसनीयता पर उठे सवाल बहुत घातक हैं। हमारे देश में अलग-अलग प्रधानमंत्रियों ने संवैधानिक संस्थाओं पर प्रहार करके अपनी कुर्सी बचाने या कुर्सी मजबूत करने की कोशिशें की हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित होने के बाद इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया और संविधान में कई संशोधन करके राष्ट्रपति के अधिकारों को कम कर दिया। संसद का कार्यकाल पांच वर्ष से बढ़ाकर छह वर्ष कर दिया और यह कानून पास करवा लिया कि यदि संसद में केवल एक ही सदस्य उपस्थित हो और वह किसी बिल के पक्ष में मतदान करे तो बिल को पास मान लिया जाएगा यानी संसद में कोरम की आवश्यकता को समाप्त कर दिया। यह तो अच्छा हुआ कि अपने चमचों की सलाह मानकर उन्होंने मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर दी और वह चुनाव हार गईं। उनके बाद आई जनता सरकार ने इन काले कानूनों को वापस किया, लेकिन जनता सरकार ने भी राष्ट्रपति के सभी अधिकार नहीं लौटाए। संसद की सर्वोच्चता की बात यूं भी बेमानी है, क्योंकि बहुमत के कारण सत्तासीन दल अपनी मर्जी के कानून बनाने के लिए स्वतंत्र है। विपक्ष सिर्फ शोर मचा सकता है या वाकआउट कर सकता है। वह सत्ता पक्ष के किसी बिल को न तो पास होने से रुकवा सकता है और न ही अपनी पसंद का कोई बिल पास करवा सकता है।

यही नहीं, सत्तासीन दल के साधारण सदस्य भी मोहरे भर हैं, क्योंकि उन्हें पार्टी लाइन पर चलना पड़ता है और पार्टी द्वारा जारी व्हिप के कारण वे अपनी मर्जी से मतदान तक नहीं कर सकते। बहुमत प्राप्त दल के नेता के रूप में प्रधानमंत्री यदि शक्तिशाली हो, तो वह मंत्रिमंडल की परवाह किए बिना अपनी मर्जी से शासन चलाता है, कानून पास करवाता है और उसे जनता की आवाज बता कर लोगों को भरमाता है। इंदिरा गांधी ने यही किया और अब नरेंद्र मोदी भी ऐसा ही कर रहे हैं। एक ओर जहां मोदी ने संवैधानिक संस्थाओं की शक्तियों में योजनाबद्ध तरीके से सेंध लगाई है और सरकार में शक्तियों का केंद्रीकरण किया है, दूसरी ओर सर्वोच्च न्यायालय की विश्वसनीयता का मुद्दा देश को झंझोड़ रहा है। लोकतंत्र की सफलता में शक्तियों के तर्कसंगत बंटवारे का मूल मंत्र भुला देना लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकता है और आज नहीं तो भविष्य में कोई अन्य नेता तानाशाह बन सकता है। इसी तरह संवैधानिक संस्थाओं, खासकर न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी सवालिया निशान जनता को आंदोलित कर सकता है जो अंततः किसी बड़े आंदोलन में बदल सकता है। दोनों ही स्थितियां सुखद नहीं हैं। समय की मांग है कि हम संस्थाअें की विश्वसनीयता और शक्तियों के तर्कसंगत बंटवारे के मद्देनजर संविधान में उचित परिवर्तन की ओर ध्यान दें, ताकि शासन-प्रशासन सुचारू रूप से चले और जनता को भी परेशानी न हो।

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