भारत के संविधान की समीक्षा अब आवश्यक

By: Dec 13th, 2017 12:08 am

भानु धमीजा

सीएमडी, ‘दिव्य हिमाचल’

लेखक, चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं

संविधान के कार्यचालन की समीक्षा को गठित राष्ट्रीय आयोग द्वारा किया गया अंतिम पुनर्मूल्यांकन शुरुआत से ही राजनीति का शिकार हो गया था। आयोग ने कटु समीक्षाएं और दूरगामी सिफारिशें प्रस्तुत कीं, परंतु इसकी रिपोर्ट दफन कर दी गई।नेहरू ने संविधान सभा के आरंभिक दिनों में ही कहा था, ‘‘मैं यह कह सकता हूं कि जो संविधान हमने बनाया है, वह अपने आप में अंत नहीं है, परंतु यह केवल आगामी कार्य का आधार होगा।’’ पटेल ने भी स्पष्ट घोषणा की कि ‘‘यह संविधान केवल दस वर्ष के लिए है।’’ विडंबना यह है कि भारत मूल संविधान को सौ से भी अधिक बार संशोधित कर चुका है। परंतु हम इसकी सफलता की संपूर्ण समीक्षा का प्रतिरोध करते हैं…

भारत ने कभी भी गंभीरतापूर्वक अपने संविधान की परफॉर्मेंस का मूल्यांकन नहीं किया है। इसे अपनाए जाने के 67 वर्षों में की गई इसकी चार आधिकारिक समीक्षाओं में से पहली तीन दरअसल मूल संविधान को मरोड़ने की कोशिशें थीं। इनके माध्यम से लाए गए बदलावों ने मूल दस्तावेज को कमजोर ही किया।

संविधान के कार्यचालन की समीक्षा को गठित राष्ट्रीय आयोग (National Commission to Review the Working of the Constitution – NCRWC) द्वारा किया गया अंतिम पुनर्मूल्यांकन शुरुआत से ही राजनीति का शिकार हो गया था। आयोग ने कटु समीक्षाएं और दूरगामी सिफारिशें प्रस्तुत कीं, परंतु इसकी रिपोर्ट दफन कर दी गई।

हमारा संविधान आलौकिक समझा जाने वाला धार्मिक ग्रंथ नहीं है।नेहरू ने संविधान सभा के आरंभिक दिनों में ही कहा था, ‘‘मैं यह कह सकता हूं कि जो संविधान हमने बनाया है, वह अपने आप में अंत नहीं है, परंतु यह केवल आगामी कार्य का आधार होगा।’’ पटेल ने भी स्पष्ट घोषणा की कि ‘‘यह संविधान केवल दस वर्ष के लिए है।’’

विडंबना यह है कि भारत मूल संविधान को सौ से भी अधिक बार संशोधित कर चुका है। कुछ बदलावों ने तो इसे पहचान के काबिल भी नहीं छोड़ा है। परंतु हम इसकी सफलता की संपूर्ण समीक्षा का प्रतिरोध करते हैं।

पहले संशोधन ने पेश की गलत मिसाल

टुकड़ों में समीक्षाएं संविधान अपनाने के पहले वर्ष में ही आरंभ हो गई थीं। वर्ष 1951 में प्रधानमंत्री नेहरू ने संविधान पर गठित अपनी ही कैबिनेट समिति की एक बैठक की। उद्देश्य यह था कि कोर्ट द्वारा उनकी सरकार के जमींदारी उन्मूलन कार्यक्रम को अस्वीकार करने से निकलने का रास्ता तलाशा जा सके।

उन्होंने मुख्यमंत्रियों को लिखा कि न्यायपालिका की भूमिका अविवादित हैः ‘‘परंतु यदि संविधान हमारे रास्ते में आता है तो बेशक उस संविधान को बदलने का समय आ गया है।’’

परिणाम था प्रथम संशोधन, जिसने न केवल एक गलत परंपरा स्थापित की, बल्कि भविष्य में बनने वाले कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाने के लिए संविधान में एक नया अनुच्छेद भी शामिल करवा दिया। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संसद में चुटकी ली कि संविधान से ‘‘रद्दी कागज’’ की तरह व्यवहार किया जा रहा है।

चौथा संशोधनः एक और हानिकारक पुनर्निरीक्षण

दूसरा, उसी प्रकार का हानिकारक पुनर्निरीक्षण ज्यादा दूर नहीं था। वर्ष 1954 में कांग्रेस कार्यकारी समिति ने संविधान की जांच को नेहरू की अध्यक्षता में एक उपसमिति का गठन किया। इस मर्तबा एक राजनीतिक पार्टी अपनी सरकार द्वारा निजी संपत्ति के अधिग्रहण को दी जा रही क्षतिपूर्ति पर अदालत को सवाल करने से रोकने का प्रयास कर रही थी।

संसद में चौथा संशोधन पेश करते हुए नेहरू ने कहा कि ‘‘यह विरोधाभास दूर करने और मूलभूत अधिकारों को निर्देशक सिद्धांतों के अधीन लाने के लिए’’ किया जा रहा है। गृह मंत्री जीबी पंत ने अनुसरण कियाः ‘‘हम संविधान का पुनरुद्धार कर रहे हैं, इसके साथ छेड़छाड़ नहीं।’’

42वां संशोधन केंद्रीकरण का चरम

तीसरा पुनर्मूल्यांकन व्यापक और बेहद हानिकारक था। वर्ष 1976 में इंदिरा गांधी ने संविधान में संशोधनों पर सुझाव देने के लिए स्वर्ण सिंह की अध्यक्षता में एक पार्टी समिति बनाई। इंदिरा गांधी वास्तव में एक अत्यंत केंद्रीकृत प्रणाली की स्वीकार्यता का आकलन करना चाहती थीं, जिसे कांग्रेस के कुछ भीतरी व्यक्तियों ने ‘हमारे संविधान पर एक ताजा नजर’ नामक पत्रक द्वारा प्रस्तावित किया था।

सिंह की सिफारिशों का परिणाम कुख्यात 42वें संशोधन के रूप में सामने आया। इसने समस्त शक्तियां प्रधानमंत्री के हाथ में सौंप दीं। राष्ट्रपति को विवेकाधीन शक्ति यां भी नहीं दी गईं। और न्यायपालिका के समीक्षा के अधिकार में बुरी तरह कटौती कर दी गई। भारतीय संविधान के विख्यात इतिहासकार ग्रैनविल ऑस्टिन ने लिखाः ‘‘शक्तियों के संतुलन में बदलाव ने नए संविधान को पहचान के काबिल नहीं छोड़ा।’’

एनडीए-1 ने सुधार लाने को किए प्रयास

हमारे संविधान में बदलाव के इस अनौपचारिक दृष्टिकोण से केवल भारत की मुश्किलें और बढ़ी हैं। एक उदाहरण 1980 के दशक में पारित किया गया दलबदल विरोधी संशोधन है। इसने हमारे विधायकों और सांसदों को पार्टी आकाओं की कठपुतली बनाकर रख दिया है। इससे संसद के प्राथमिक उद्देश्य का उल्लंघन हुआ।

भारतीय प्रणाली पर किए गए विभिन्न अध्ययनों (चुनाव सुधार कैबिनेट उपसमितियां 1977 व 1982; केंद्र-राज्य संबंधों पर गठित सरकारिया आयोग 1983; चुनाव वित्त पोषण पर इंद्रजीत गुप्त समिति 1998, आदि) का यही निष्कर्ष था कि भारत के संविधान में व्यापक सुधारों की त्वरित आवश्यकता है।

सुधार के लिए पहला संपूर्ण व पारदर्शी प्रयास संविधान के कार्यचालन की समीक्षा को गठित राष्ट्रीय आयोग (NCRWC) ने वर्ष 2000 में किया था। वाजपेयी सरकार द्वारा पूर्व मुख्य न्यायाधीश एमएन वेंकटचलैया की अध्यक्षता में गठित यह आयोग एनडीए के चुनाव घोषणापत्र का एक भाग था।

एनडीए नेता कुछ समय से व्यापक संवैधानिक सुधारों की वकालत कर रहे थे। वाजपेयी ने 1998 के एक भाषण में कहा था कि ‘‘संसदीय लोकतंत्र की वर्तमान प्रणाली विफल रही है और हमारे शासन के ढांचे में व्यवस्थित परिवर्तन करने का समय आ गया है।’’

आयोग की नियुक्ति को लेकर विपक्षी दलों ने होहल्ला मचाया। उन्होंने कहा कि यह ‘गुप्त एजेंडा’ है। अंबेडकर के संविधान को दरकिनार करने, संसदीय लोकतंत्र खत्म करने, धर्म निरपेक्षता का परित्याग करने, आरक्षण का अंत करने, आदि का प्रयास है। गृह मंत्री एलके आडवाणी ने ‘हमें अपना संविधान बदलने की जरूरत क्यों है’ शीर्षक के एक लंबे लेख में धर्म निरपेक्षता या आरक्षण समाप्त करने से स्पष्ट इनकार किया। संसदीय बनाम राष्ट्रपति प्रणाली के मुद्दे पर, उन्होंने तर्क दिया कि ‘‘मूल संरचना सिद्धांत हमें संसदीय प्रणाली ही रखने को बाध्य नहीं करता है।’’ परंतु विपक्ष कोसता रहा।

परिणामस्वरूप वाजपेयी सरकार आयोग का विषय-क्षेत्र सीमित करने के लिए विवश हो गई। आयोग की शर्तों में इसे ‘‘संसदीय लोकतंत्र की संरचना के भीतर रहकर इसकी मूल संरचना या विशेषताओं से छेड़छाड़ किए बिना’’ संविधान में बदलावों की सिफारिश करने तक सीमित कर दिया गया।

संवैधानिक पैनल की रिपोर्ट उपेक्षित

NCRWC की रिपोर्ट तीखी थी : ‘‘यह दुखद तथ्य है कि अनावश्यक रूप से कठोर, दुखदायी, गैर-कल्पनाशील और उदासीन प्रशासन ने गरीबों को हाशिए पर धकेल दिया है। भारत की जनता देश की स्वतंत्रता के समय के मुकाबले अधिक बंटी हुई है। अगर उपचार तलाश कर शीघ्रता से लागू नहीं किए गए तो बचाने के लिए बहुत कम ही शेष रह सकता है। देश में एक व्यापक और निराशावादी विश्वास है कि कभी कुछ बदल नहीं सकता।’’

आयोग की रिपोर्ट का निचोड़ था : ‘‘संविधान का 50 वर्षों का कार्यचालन काफी हद तक गंवाए गए अवसरों की गाथा है। असफलताएं सफलताओं से अधिक हैं।’’

संसदीय प्रणाली के मूल आधार, कि यह सरकारों में स्थिरता की कीमत पर अधिक उत्तरदायित्व प्रदान करती है, पर आयोग ने तर्क दिया कि इस पर पुनर्विचार होना चाहिए। इसने कहा कि आज के संदर्भ में, ‘‘उचित मात्रा में स्थिरता’’ और ‘‘मजबूत शासन,’’ दोनों आवश्यक हैं। न्यायमूर्ति वेंकटचलैया ने बाद में लिखा कि वह इस विचार की ओर ‘‘मुड़ रहे थे’’ कि भारत को सरकार की राष्ट्रपति प्रणाली अपनानी चाहिए।

NCRWC आयोग ने 250 सिफारिशें कीं, परंतु इसकी रिपोर्ट कभी संसद के सम्मुख नहीं रखी गई।

-अग्रेजी में ‘दि क्विंट’ में प्रकाशित, (26 नवंबर, 2017)

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