तीन तलाक बिल पर सियासत

By: Jan 6th, 2018 12:05 am

संसद का शीतकालीन सत्र पांच जनवरी को समाप्त हो गया। इस सत्र के महत्त्वपूर्ण विधायी कार्यों में तीन तलाक का बिल भी शामिल था, लेकिन इसे राजनीतिक अवसरवादिता कहें या दोगलापन अथवा मुस्लिम वोट बैंक का स्वाभाविक दबाव या भाजपा की मुस्लिम महिलाओं की लामबंदी की कोशिश कहें, नतीजतन तीन तलाक की पीडि़त महिलाएं ही वंचित रही हैं। उन्हें इनसाफ नहीं मिल सका। उन्हें वैवाहिक अधिकार भी नहीं दिया जा सका। यह बिल इसलिए जरूरी था, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ तीन तलाक को अवैध, असंवैधानिक करार दे चुकी थी। संविधान पीठ का आदेश तो नहीं था, लेकिन नसीहत थी कि सरकार छह माह के अंतराल में इस मुद्दे पर कानून बनाए। कानून संसद ही बनाएगी और उसके मद्देनजर लोकसभा और राज्यसभा में राजनीतिक सहमति अपेक्षित है। बहस होनी चाहिए। संशोधन पेश किए जाएं, लेकिन हंगामा इस स्तर पर नहीं होना चाहिए कि ऐसे समाजसुधारी, क्रांतिकारी बिल राजनीतिक गतिरोध की बलि चढ़ जाएं। संसद की स्थायी समिति या प्रवर समिति के विचारार्थ बिल भेजना भी संसदीय प्रक्रिया का एक हिस्सा है, लेकिन तब नहीं जब एक सदन उसे पारित कर चुका हो! लोकसभा में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की औकात बेहद सीमित है, लिहाजा पार्टी खामोश बैठी रही, संशोधन की बात तक नहीं की और बिल पारित होने दिया। चूंकि राज्यसभा में कांग्रेस और उसके समर्थक दलों की पुरानी ताकत अब भी 141 सांसदों की है, लिहाजा कांग्रेस ने रोड़े बिखेर दिए। दलीलें दी गईं कि यदि पति जेल चला गया, तो मुस्लिम औरत और बच्चों को कौन खिलाएगा, संरक्षण कौन देगा, बच्चों के भरण-पोषण का क्या होगा? यही दलीलें ओवैसी सरीखे मुस्लिम नेता ने दी थीं और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के मुल्लाओं, मौलानाओं और मौलवियों ने भी दी थीं। सवाल हो सकता है कि क्या कांग्रेस मुस्लिम कठमुल्लों के एक तबके के दबाव में है? तलाकशुदा औरतों और उनके बच्चों की देखभाल कौन करता है? नवजात बच्चों के साथ माताओं को सड़क पर आने को विवश किया जाता है, तो उनका भरण-पोषण क्या कांग्रेस या पर्सनल लॉ बोर्ड करते हैं अथवा मौलाना-मुफ्ती? पहली बार सैकड़ों मुस्लिम औरतें संसद में तीन तलाक की बहस सुनने और देखने गई थीं, लेकिन राज्यसभा में ऊल-जलूल हंगामा देखकर उन्हें भी निराशा हुई होगी कि क्या संसद की हकीकत यही है! करीब 3.5 फीसदी औरतों को फोन पर, करीब 7.6 फीसदी को चिट्ठी के जरिए, करीब 0.8 फीसदी महिलाओं को एसएमएस, ई-मेल, व्हाट्सऐप और फेसबुक के जरिए तीन तलाक कह दिया जाता है। करीब 66 फीसदी मामलों में मुस्लिम मर्द जुबान से ही तीन तलाक देते हैं। क्या ऐसे अनाचार, अत्याचार से मुस्लिम महिलाओं को निजात नहीं मिलना चाहिए? क्या यह मुद्दा भी सियासी है? करीब 92 फीसदी मुस्लिम औरतें तीन तलाक और चार निकाह की कुप्रथाओं पर पाबंदी की पक्षधर हैं। ये इस्लामी सिद्धांत या कुरान में वर्णित नहीं हैं। यहां तक कि करीब 72 फीसदी मुस्लिम महिलाएं 18 साल की उम्र से पहले निकाह पर रोक चाहती हैं, जबकि हकीकत यह है कि करीब 14 फीसदी लड़कियों का निकाह 15 साल या उससे भी पहले की उम्र में कर दिया जाता है। ये गलत और नापाक सिलसिले कब खत्म होंगे? मुस्लिम महिलाओं को संसद से ही उम्मीद बंधी थी, लेकिन राज्यसभा में कांग्रेस के नेतृत्व वाला विपक्ष अपनी जिद पर अड़ा रहा। अरे कांग्रेसियो! चिंता मत करो। देश की 8.5 करोड़ मुस्लिम औरतें देख और सुन रही हैं कि आखिर कौन उनके इनसाफ और अच्छे दिनों में पलीता लगा रहा है? तीन तलाक समाज सुधार की एक कोशिश भी है। आजादी के 70 सालों में कोई भी प्रधानमंत्री, सरकार और पार्टी तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम औरतों की पैरोकार नहीं बन पाए थे। मुसलमानों और उनके एक तयशुदा वोट बैंक से डर लगता था। प्रधानमंत्री मोदी ने यह ऐतिहासिक कोशिश करने का जोखिम उठाया। बेशक यह सियासत भी हो सकती है। दूसरे दल भी यह कर सकते थे। सियासत का खुला खेल उनके लिए भी मौजूद रहा है। दरअसल अब विरोध और हंगामे की बुनियादी वजह भी यही है। चूंकि लोकसभा में तीन तलाक का बिल पारित करने के बाद मुस्लिम महिलाएं सार्वजनिक तौर पर प्रधानमंत्री मोदी के समर्थन में सक्रिय हुई हैं। नारेबाजी कर रही हैं, लिहाजा कांग्रेस भयभीत है कि यदि मुस्लिम महिलाओं ने चुनाव में भाजपा को समर्थन दे दिया तो 2019 का आम चुनाव उसके लिए आसान हो सकता है। आजकल कांग्रेस 2019 के चुनाव के मद्देनजर ही अपने अभियान तय कर रही है, लेकिन तीन तलाक का बिल फंसा है, लटका नहीं है। मोदी सरकार के पास संसद के संयुक्त सत्र का विकल्प भी है। ऐसा सत्र बुलाकर मोदी सरकार बिल पारित करा सकती है। तब यह कानून बन गया, तो कांग्रेस क्या करेगी?


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