भारत का सांस्कृतिक प्रदेश है हिमाचल

By: Feb 28th, 2018 12:05 am

हिमाचल प्रदेश को यदि भारत का सांस्कृतिक प्रदेश कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी और कुल्लू तो हिमाचल की देवघाटी है। अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा पर्व के बाद कुल्लू के ऐतिहासिक मैदान ढालपुर में मनाए जाने वाला दूसरा उत्सव पीपल जातर मेला (वसंतोत्सव) प्रसिद्ध है…

कुल्लू दशहरा: पूरे राज्य की भागीदारी में दशहरा उत्सव को ढालपुर मैदान में मनाया जाने लगा, जिस दिन भारत भर में आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी तिथि को दशहरा समापन होता है, उस दिन कुल्लू का दशहरा आरंभ होता है। दशहरे के प्रथम दिन भगवान रघुनाथ जी की भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है, जिसमें देवी हिडिंबा सहित सैकड़ों देवी-देवता भाग लेते हैं। उत्सव का पहला दिन ‘ठाकुर निकलने’ के नाम से जाना जाता है। छठे दिन को ‘मुहक्का’ कहते हैं। इस दिन दशहरे में उपस्थित देवी-देवता भगवान रघुनाथ जी के पास अपनी हाजिरी लगाते हैं तथा दशहरे के अंतिम दिन भगवान रघुनाथ जी का रथ खींच कर मैदान के अंतिम छोर तक लाया जाता है तथा व्यास नदी के किनारे तैयार की गई लंका में रावण, कुंभकर्ण तथा मेघनाथ के पुतले जलाए जाते हैं और पांच बलियां दी जाती हैं। हिमाचल प्रदेश में सम्मिलित होने के बाद, कुल्लू का पहला दशहरा अक्तूबर, 1967 में हुआ था। उस समय प्रदेश के विभिन्न जिलों से सांस्कृतिक दल आमंत्रित करके इस उत्सव को राज्य स्तरीय दर्जा दिया गया तथा वर्ष 1973 में रोमानियां के सांस्कृतिक दल ने दशहरे में भाग लिया और इसी के साथ ही दशहरे का अंतरराष्ट्रीय लोक नृत्य समारोह के रूप में आयोजन आरंभ हुआ। अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव न केवल समृद्ध देव परंपराओं  के संरक्षण व संवर्द्धन में अपना योगदान दे रहा है, अपितु यह उत्सव पर्यटन, मनोरंजन और व्यापार की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। कुल्लू दशहरे को अंतरराष्ट्रीय पर्व का दर्जा प्राप्त है।

पीपल जात्र मेला: हिमाचल प्रदेश को यदि भारत का सांस्कृतिक प्रदेश कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी और कुल्लू तो हिमाचल की देवघाटी है। अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा पर्व के बाद कुल्लू के ऐतिहासिक मैदान ढालपुर में मनाए जाने वाला दूसरा उत्सव पीपल जातर मेला (वसंतोत्सव) प्रसिद्ध है। वसंतोत्सव का ऐतिहासिक धार्मिक महत्त्व है। इसके अलावा यह उत्सव पुराना प्रशासनिक, लोकतांत्रिक एवं व्यापारिक महत्त्व भी रखता है। इस उत्सव को प्रजातंत्र के समय में ‘राय री जाच’ अर्थात राजा का मेला नाम से जाना जाता था, परंतु आज यह उत्सव अपना ऐतिहासिक महत्त्व खोते-खोते, पशु मेला, पीपल जातर मेला से लेकर वसंतोत्सव हो गया है। कुल्लू घाटी जो कभी घने जंगलों और बिखरे हुए गांवों की बस्ती रही है, सर्दी में अकसर आपस में कटी रहती थी, जिससे वहां के जन समुदायों का भारी हिमपात व कड़ाके की सर्दी के कारण मेल-मिलाप नहीं हो पाता था।


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