मोह से मुक्ति

By: Feb 10th, 2018 12:05 am

बाबा हरदेव

वैराग्य का अर्थ है कि जहां न राग रहा न वैराग्य रहा, न किसी चीज का आकर्षण न विकर्षण है। जहां पक्ष और विपक्ष एक से हो गए, वहां असल वैराग्य फलित होता है। वास्तविकता में मोह रहित वो व्यक्ति है जिसके हृदय में सद्गुरु की कृपा से मोह की जो तंद्रा थी, वो खो जाती है…

अंधकार का एक लक्ष्य है कि दिखाई नहीं पड़ता, जहां देखना खो जाता है, जहां आंखों पर पर्दा पड़ जाता है। दूसरा, जहां दिखाई न पड़ने से कोई मार्ग नहीं मालूम पड़ता कि कहां जाएं क्या करें। तीसरा, जहां दिखाई न पड़ने से प्रति पल किसी भी चीज से टकरा जाने की संभावना हो जाती है। मानो अंधकार हमारी दृष्टि का खो जाना है। अब मोह में भी ऐसा ही घटित होता है, इसलिए ‘मोह’ को अंधकार कहने की सार्थकता है। मोह में जो भी मनुष्य होता है, मोह में जैसा भी मनुष्य चलता है, मोह में जो भी मनुष्य से निकलता है, वह ठीक ऐसा ही है जैसे अंधेरे में कोई टटोलता हो। मनुष्य को न ही कुछ पता होता है कि क्या हो रहा है न ही कुछ पता होता है कि कौन-सा मार्ग है। मानो ‘मोह’ में आंखें नहीं हैं और मोह का अंधापन आध्यात्मिक अंधापन है। चुनांचे मनुष्य के जीवन में मोह ही जलता है, मोह ही संताप को उपलब्ध होता है, मोह ही भटकता है, मानो मोह ही जीवन का दुख है। चुनांचे जहां मोह होगा वहां भय होगा। भय यह है कि मिट न जाएं, मोह यह है कि बचाएं अपने को, मानो भय मोह के सिक्के का दूसरा हिस्सा है। भय मोह के साथ ही आता है इसलिए अज्ञात छिपा हुआ मोह है। अज्ञान प्रकट होता है तो मोह बनता है। चुनांचे मोह सफल होता है तो दुख बनता है और अगर असफल होता है तो भी दुख होता है। मोह है अपने ही हाथों अपने ही आसपास परकोटा बनाना, अपने आप को सूर्य के प्रकाश से बंद करना, जगत के अस्तित्व से प्रभु के प्रसाद से अपने को अंधा बनाना। मनुष्य कहता है धन रहे, मकान रहे, परिवार रहे ताकि इज्जत रह सके, ठीक जी सकूं अपने को सहारा देता है बचने में, यह केवल मोह है। महात्मा बुद्ध ने मोह को तृष्णा कहा है क्योंकि मोह का गुण धर्म है कि वो जो मेरा नहीं है वो मेरा प्रतीत होने लगता है और जो असल में मेरा है, इसका कुछ पता नहीं चलता, मानो मोह में सब चीजें उल्टी हो जाती हैं। उदाहरण के तौर पर जमीन, मकान, जायदाद आदि मनुष्य की कैसे हो सकती है, क्योंकि जब मनुष्य नहीं था ये सब तब भी थीं और जब मनुष्य नहीं रहेगा तब भी ये सब रहेंगी। मनुष्य का मोह एक सम्मोहन का जाल फैला लेता है, मेरा बेटा, मेरा पति, मेरी पत्नी। मानो मेरे तेरे के आसपास एक बड़ा जाल खड़ा हो जाता है। यह जो मेरे तेरे का फैलाव है, वही मोह का अंधकार है। जितना सघन मेरा और हमारा उतना ही मोह रूपी अंधेरा चारों तरफ फैलता चला जाता है। मेरे और हमारे का भाव ही मोह रूपी अंधेरा चारों तरफ फैलता चला जाता है। मेरे और हमारे का भाव ही मोह की निशानी है। अब आध्यात्मिक जगत में जिसे वैराग्य कहते हैं वह ऐसा नहीं है कि मेरा मकान नहीं है, मेरी जायदाद नहीं है क्योंकि मेरा है या मेरा नहीं है, ये दोनों एक ही चीज के दो छोर हैं। ये तो वैराग्य का भ्रम है। वैराग्य का अर्थ है कि जहां न राग रहा न वैराग्य रहा, न किसी चीज का आकर्षण न विकर्षण है। जहां पक्ष और विपक्ष एक से हो गए, वहां असल वैराग्य फलित होता है। वास्तविकता में मोह रहित वो व्यक्ति है जिसके हृदय में सद्गुरु की कृपा से मोह की जो तंद्रा थी, वो खो जाती है। चुनांचे तत्त्व ज्ञानियों का पहला आघात मोह पर होता है। पहली चोट ‘ममत्व’ पर होती है। तत्त्व ज्ञान (हरि नाम) की प्राप्ति के बगैर मोह से मुक्ति संभव नहीं है।


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