स्वार्थरहित सेवा में प्रतिकूल शक्तियां भी साथ

By: Mar 17th, 2018 12:05 am

साधना की पराकाण पूर्ति कामना रहित हो जाने में तथा उपासना की परिणति अपने उपास्य या आराध्य के निकट आसन प्राप्त कर लेने में है। सफलता का मूल मंत्र है-स्वार्थरहित सेवा। इस कसौटी पर कसा हुआ व्यक्ति ही समाज का मार्गदर्शन करा सकता है…

-गतांक से आगे…

इससे वंग प्रदेश में साधक संप्रदाय के सक्रिय होने का पता चलता है तथा हनुमदुपासना के प्रचलन का भी पता चलता है।

हनुमान जी की साधना व सिद्धि

साधना की पराकाण पूर्ति कामना रहित हो जाने में तथा उपासना की परिणति अपने उपास्य या आराध्य के निकट आसन प्राप्त कर लेने में है। सफलता का मूल मंत्र है-स्वार्थरहित सेवा। इस कसौटी पर कसा हुआ व्यक्ति ही अपनी अभिव्यक्ति अपनी अनुभूति तथा कृति के जरिए समाज का सच्चा मार्गदर्शन करा सकता है। यही कारण है कि हनुमान सर्वत्र सम्भाव से पूजे जाते हैं तथा उनके जय-जयकार की प्रतिध्वनि चहुं ओर ध्वनित है। कठोर साधना के जरिए जिसने अपने अंग-प्रत्यंगों को वज्रांग बना लिया है, उपासना के जरिए जिसका हृदय निर्मल हो चुका है तथा सेवा के जरिए जिन्होंने समस्त ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ति कर ली है, ऐसा सदाचारी एवं सद्धिसार-सामिव्रत रामदूत ही सीता माता की खोज कर सकता है। महाबली होते हुए भी अपने बल पर अभिमान नहीं, परम ज्ञानी होने पर भी विनम्र तथा पर्वताकर होते हुए जो रामकार्य अथवा राष्ट्रकार्य करने के लिए अपने व्यक्ति को समक-समान अत्यंत छोटा बनाने में किंचित भी हिचक नहीं करता, ऐसे ही साधक का आदर्श चरित्र आज के दानवीय समाज का दमन कर हमारे नरत्व को नारायणत्वी की ओर ले जा सकता है। हनुमान जल, थल, आकाश में जब जहां, जिस कार्य के उद्देश्य से गए, उसे पूरा करके ही लौटे। आकाश मे व्यवधान उत्पन्न करने वाली सुरक्षा का लोभ भी उन्हें पथ से विचलित नहीं कर पाया तथा थल पर रहने वाली लंकिनी बार-बार ललकारने पर भी संयमित रह कर मुष्टिक-प्रहार के जरिए उसका नाश कर दिया। काम, क्रोध, लोभ से ऊपर उठकर उन्होंने अपने गंतव्य को प्राप्त किया। अहंकारियों का मान-मर्दन करने के कारण ही वे हनुमान कहे जाते हैं। स्वार्थरहित सेवा के पथ पर बढ़ते ही भयानक और प्रतिकूल शक्तियां भी अनुकूल कार्य करने लग जाती हैं। तभी तो हनुमान जी के लिए विष ने अमृत का, शत्रु ने मित्र का, समुद्र ने गा-पद का और अग्नि ने अपनी दहकता छोड़कर शीतलता का रूप धारण कर उनके कार्य में सहयोग दिया। अनिश्चित होते हुए भी सच्चे साधक की सेवा के लिए सिद्धियां अपने आप सदैव तैयार रहती हैं। अणिमा, महिमा, गरिमा, लथिमा प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व इन अष्ट सिद्धियों ने राम-कार्य संपादन में हनुमान जी को सहायता देने के उद्देश्य से होड़ ला रखी थी। लघु रूप धारण करने में अणिमा, विशाल रूप धारण करने में महिमा, गुरू (अधिक भार वाला) बनने में गरिमा, विशाल होते हुए भी हल्कापन लाने में लघिमा, अलभ्य वस्तु उपलब्ध कराने में प्राप्ति, राम कार्य के लक्ष्य को पूरा करने में प्राकाम्य, निर्भयता लाने में ईशित्व तथा विपक्षी को वश में कर लेने में वशित्व-नाम की सिद्धियों ने हनुमान जी की स्वतः सहायता की। वैसे तो संपूर्ण जगत पंचतत्त्वों के वशीभूत हैं, किंतु स्वार्थरहित, सेवाभाव से पूर्ण साधक इन पंचतत्त्वों को अपने वश में कर लेता है।


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