मोदी पर निहाल होंगे दलित ?
अंततः प्रधानमंत्री मोदी ने बेटियों और दलितों पर अपनी चुप्पी तोड़ी, तो भ्रांतियां दरकने लगीं, धारणाएं बदलने लगीं। इतिहास के पन्ने खंगाले गए, जो स्पष्ट करते हैं कि कांग्रेस और देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, बाबा अंबेडकर के कितना खिलाफ थे। कांग्रेस ने अंबेडकर को 1952, 1954 में लोकसभा चुनाव तक जीतने नहीं दिए, लेकिन कांग्रेस की सुई आज भी यहीं अटकी है कि बाबा को केंद्रीय कानून मंत्री किसने बनाया? बहरहाल हम इतिहास के गलियारों में न खोकर वर्तमान की मीमांसा करें, तो बेहतर होगा। लगातार दो दिनों तक प्रधानमंत्री मोदी ने दलितों से जुड़े कई तथ्यों का खुलासा किया। उस संदर्भ में यह भी गौरतलब है कि मुद्रा ऋण योजना के तहत 12 करोड़ लोगों को आर्थिक मदद दी गई, जिनमें से 2.16 करोड़ से ज्यादा ऋण दलित आवेदकों को मुहैया करवाए गए, लेकिन दूसरी ओर वित्त मंत्री अरुण जेतली ने संसद में जवाब दिया कि अभी तक बैंकों की 1,40,000 शाखाओं ने करीब 8500 दलितों को ही मुद्रा लोन बांटे हैं। विरोधाभास इतना गंभीर और गहरा है कि किसे सच मानें-प्रधानमंत्री या वित्त मंत्री को! बहरहाल इसे भी प्रधानमंत्री के विवेक पर ही छोड़ते हैं। 14 अप्रैल अंबेडकर जयंती के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी कबूल कर लिया कि वह बाबा अंबेडकर के कारण ही प्रधानमंत्री बन सके। उनका यह कथन भी सवालिया है। यदि आरक्षण के कारण मोदी सांसद बने और फिर बहुमत पाने के बाद प्रधानमंत्री बने, तो यह भी अर्द्धसत्य है। देश ने प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी को समर्थन क्यों दिया? उसमें दलितों के करीब 24 फीसदी वोट भी शामिल हैं, भाजपा को औसतन 11-12 फीसदी दलित वोट मिलते रहे हैं, ये सच भी देश जानता है। हम उस फेहरिस्त की गणना नहीं करना चाहते कि मोदी सरकार ने दलितों के लिए क्या काम किए। संसद के सेंट्रल हाल में बाबा अंबेडकर का तैल चित्र लगवाया। बाबा की जन्मस्थली ‘महू’ को एक राजनीतिक तीर्थ बनवा दिया। 26 नवंबर को ‘संविधान दिवस’ घोषित किया गया और अंततः 13 अप्रैल को अंबेडकर स्मारक का उद्घाटन किया, लेकिन जिस कानून के मद्देनजर दलितों ने ‘भारत बंद’ किया, उसके दायरे में दलितों के खिलाफ अत्याचार और उत्पीड़न के 22 अपराध ही रखे गए थे। मोदी सरकार ने 2015 में कानून को सख्त किया और 47 अपराध उस कानून के दायरे में लाए। उसके बावजूद 2014-16 के दौरान दलित अत्याचार और उत्पीड़न के औसतन 40,000 मामले हर साल सामने आते रहे हैं। मोदी सरकार में ही ऐसा क्यों हुआ? क्या जांच करवा कर यथार्थ की तह खोजी गई? बहरहाल कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी समेत विपक्ष के प्रमुख नेताओं ने इस संदर्भ में देश को गुमराह किया और झूठ बोला। न तो एससी / एसटी अत्याचार निवारण कानून रद्द किया गया और न ही आरक्षण समाप्त हो सकता है। संवैधानिक और संसदीय निर्णय किसी भी सरकार की बपौती नहीं होते। यदि परिवर्तन भी करना है, तो संसद में ही होगा। गौरतलब यह भी है कि 1990 के दशक के बाद ही कांग्रेस और भाजपा ने बाबा अंबेडकर को स्वीकारा। बसपा, लोजपा या अन्य दलितवादी पार्टियां तो बहुत बाद में बनीं और उनका प्रभाव-क्षेत्र भी सीमित है। बेशक डा. भीमराव अंबेडकर मौजूदा दौर की ‘प्रेरक शख्सियत’ हैं, लेकिन बाबा, बाबा चिल्लाने के अलावा उनके विचार और जीवन-संघर्ष से कोई भी प्रेरणा नहीं लेता है। आज औसत दलित नेता ‘करोड़पति’ हैं, जबकि अंबेडकर को पानी पिलाने को चपरासी तैयार नहीं था, नौकरी में होने के बावजूद फाइलें ऊपर से ही मेज पर फेंकी जाती थीं, स्कूल में उन्हें एक कोने में ही बैठना पड़ता था। वैसा छुआछूत आज के नेताओं ने कहां भुगता है? बहरहाल सवाल दलितों के उत्थान और विकास का है। सवाल यह भी है कि अब ‘हिंदूवादी’ और ‘मनुवादी’ मोदी अचानक ‘अंबेडकरवादी’ क्यों हो गए हैं? संविधान-निर्माण के दौर में आरएसएस और जनसंघ कहा करते थे कि ‘मनुस्मृति’ को ही संविधान मान लिया जाए। वह भारत के सर्वथा अनुकूल है। यह दीगर है कि बाबा साहब भारत का संविधान तैयार करने वालों में अग्रणी थे, लेकिन संविधान ग्रहण करने के बाद वह खुद कहते थे कि उनकी चले, तो वह संविधान को ही जला दें! संविधान और संसदीय व्यवस्था से बाबा संतुष्ट नहीं थे, लेकिन देश इस सवाल का जवाब जरूर चाहेगा कि ‘मनुस्मृति’ को संविधान मानने वालों की परंपरा का नेता (प्रधानमंत्री) अब इतना ‘दलितवादी’ क्यों हो गया है? बाबा की जयंती पर छत्तीसगढ़ के बीजापुर में प्रधानमंत्री मोदी ने यहां तक दावा किया-‘हमने पिछले चार वर्षों में गरीब, दलित, शोषित, पीडि़त, वंचित, पिछड़ों, महिलाओं और आदिवासियों के लिए काम किए हैं।’ अब सवाल है कि बाबा का स्मारक बनाने, उनका महिमामंडन करने, दलितों के लिए विभिन्न योजनाएं लागू करने से ही इस देश के करीब 18-19 फीसदी दलित ‘भाजपामय’ हो जाएंगे? बाबा अंबेडकर कहा करते थे कि वह ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम-कृष्ण आदि को नहीं मानते, तो क्या दलितों को राम के साथ बाबा वाला प्रधानमंत्री स्वीकार्य होगा? सवाल और जिज्ञासाएं अनेक हैं। बेशक प्रधानमंत्री मोदी देश के आम, पिछड़े, दलित तबकों के लिए कुछ करना चाहते हैं, कई काम किए भी हैं, कई विरोधाभास भी हैं, जनता संदेहास्पद होने लगी है। इस पूरे परिदृश्य में लगता तो नहीं कि 2019 में दलित 2014 की तरह भाजपा के पक्ष में वोट करेंगे!
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