मोदी के चार साल में हिमाचल

By: May 28th, 2018 12:05 am

लगातार सूरत बदलते हिमाचल में हर बार केंद्र की कलगी लगती है। जाहिर है इस बार मोदी सरकार की योजनाओं का प्रभाव देखा जाएगा। केंद्र के साथ हिमाचल के चार साल इतनी अहमियत तो रखते ही हैं कि प्रदेश ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सियासी कवच पहनकर जयराम सरकार के पक्ष में वोट और नारा दिया। हालांकि हिमाचल उन राज्यों में से एक है, जहां भाजपा के वर्तमान दौर ने आरंभिक पांव रखे थे और अंत्योदय जैसी योजनाओं के सर्जक पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार बने। अब यही पंक्तियां अगर अंतिम व्यक्ति तक विकास परिभाषित कर रही हैं, तो हिमाचल का अपना रिकार्ड हमेशा केंद्र से प्राप्त योजनाओं के कार्यान्वयन में अव्वल रहा है। मोदी सरकार के बजटीय प्रावधानों ने प्रदेश की सामाजिक जरूरतों में खूबसूरती से चित्रण किया है, लेकिन यहां भी जीएसटी और नोटबंदी ने आशियानों का दर्द बढ़ाया है। यहां का छोटा व्यापारी, उद्योग मालिक और निजी संस्थाएं जीएसटी के केंद्र में केंद्र सरकार के फैसले की आंच में हैं, तो पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ती कीमतों का खामियाजा आम जनता को उठाना पड़ रहा है। यह इसलिए भी कि रोजगार या स्वरोजगार के कंधों पर देश की आर्थिक नीतियों का दबाव स्पष्ट है और इसका ताल्लुक हिमाचल के पढ़े-लिखे बेरोजगारों को भी बेचैन किए हुए है। यह दीगर है कि केंद्र की मौजूदा सरकार की कार्यशैली के कई पैकेज प्रदेश का भविष्य रेखांकित कर रहे हैं। खास तौर पर राष्ट्रीय राजमार्गों की शृंखला में हिमाचल की जीवन रेखाएं बड़ी होती नजर आ रही हैं, तो फोरलेन परियोजनाओं के प्रति प्रतिबद्धता से हिमाचल में क्रांतिकारी अधोसंरचना के संचार की उम्मीद बंध गई है। पर्यटन के लिहाज से सड़कों के सुदृढ़ीकरण से हिमाचली सकल घरेलू उत्पादन बढ़ेगा और माल ढुलाई भी आसान होगी। यह अलग बात है कि हवाई अड्डों के विस्तार तथा रेल परियोजनाओं की हिमाचली जरूरत पर कोई स्पष्ट दिशा दिखाई नहीं दे रही है। कहने को लेह रेल परियोजना को लेकर पिछले एक दशक से चुनावी सपना मुखर रहता है, लेकिन हकीकत के पांव दिखाई नहीं देते। मोदी सरकार की सबसे बड़ी महत्त्वाकांक्षी योजना ने भले ही धर्मशाला-शिमला को स्मार्ट सिटी की पुष्पमाला पहना दी, लेकिन जमीन पर एक इंच भी प्रगति नहीं हुई है। इसके विपरीत शिमला तो अपनी हैसियत के तकलीफदेह मोड़ पर पानी के लिए तरस रहा है। शिमला को अगर स्वच्छ और माकूल पानी मिल जाए, तो राजधानी पर लगे कई प्रश्नचिन्ह हट जाएंगे। केंद्र के समक्ष हमेशा से कई स्थायी प्रश्न रहे हैं और उनमें हिमाचल के अधिकारों की वकालत बाकी प्रदेशों के मुकाबले हारती रही है। पुनः कचहरी वही है, लेकिन न तो पौंग-भाखड़ा बांध विस्थापितों को उनके हक का आशाजनक उत्तर मिला और न ही बीबीएमबी से हिमाचल की लेनदारी हासिल हुई। चंडीगढ़ में हिमाचल की 7.19 प्रतिशत हिस्सेदारी आज भी सूखे कांटे की तरह चुभन पैदा करती है।  कमोबेश यही हाल केंद्रीय संस्थानों के हिमाचली अस्तित्व पर छाई अनिश्चितता का भी है। आईआईएम, ट्रिपल आईटी और एम्स की स्थापना पर सियासत के अलावा अभी तक कुछ हासिल नहीं हुआ, तो केंद्रीय विश्वविद्यालय के नाम पर हिमाचल आज भी कांगड़ा बनाम हमीरपुर संसदीय क्षेत्रों में बंटा हुआ है। बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहचान में हिमाचली युवा आज भी मोहित है, लेकिन हकीकत के घाट पर घोषणाओं की चादर अगर फट रही है, तो आईटी पार्कों का निर्माण दिखाई नहीं दिया और न ही औद्योगिक सवेरा हुआ, ताकि बेरोजगार खुद को जीवन की रोजी-रोटी से जोड़ सकें। यूं तो मोदी ऐसे दूसरे प्रधानमंत्री हैं, जो हिमाचल के करीब हैं, लेकिन क्या वह अटल बिहारी वाजपेयी की तरह हमारे दर्द को दूर कर पाएंगे। वाजपेयी ने औद्योगिक पैकेज के मार्फत हिमाचल का नसीब लिखा, तो रोहतांग सुरंग जैसी राष्ट्रीय परियोजना देकर लाहुल-स्पीति का अंधेरा दूर किया। हिमाचल को यही आशा नरेंद्र मोदी से भी रही है, ताकि राष्ट्रीय स्तर की जो परियोजनाएं जम्मू-कश्मीर या पूर्वोत्तर राज्यों को छू रही हैं, हमें भी नसीब हों।

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