तेल के ऊंचे मूल्य का स्वागत कीजिए

By: Jun 5th, 2018 12:10 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

अमरीका एवं भारत की तुलना करें तो विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार साठ के दशक में भारत की अर्थिक विकास दर 3.4 फीसदी प्रति वर्ष थी, जबकि अमरीका की 4.3 फीसदी। सत्तर एवं अस्सी के दशक में तेल के मूल्यों में वृद्धि के बावजूद भारत की विकास दर में वृद्धि होती गई और नब्बे के दशक में 6.1 फीसदी पर पहुंच गई। इसके विपरीत अमरीका की विकास दर में गिरावट आई और सत्तर के बाद वह लगभग 3.0 फीसदी पर अटकी हुई है। इससे संकेत मिलते हैं कि तेल के मूल्यों में वृद्धि का भारत पर सकारात्मक एवं अमरीका पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है…

विचार है कि तेल की बढ़ती कीमतें विश्व अर्थव्यवस्था के लिए खतरा हैं। हमारे वित्त मंत्री उनके साथ एकमत हैं। वे भी मानते हैं कि तेल की ऊंची कीमतें भारत के लिए नुकसानदेह हैं। प्रथम दृष्ट्या यह सही भी लगता है चूंकि हमें आयात के लिए अधिक रकम अदा करनी पड़ती है, परंतु गहराई से समीक्षा करने पर पता लगता है कि महंगा तेल हमारे लिए वरदान साबित हो सकता है। अफीम के बढ़ते दाम नशा करने वाले के लिए हानिकारक होते हैं, लेकिन वही बढ़ते दाम नशा करने वाले को कमजोर करते हैं। इसी प्रकार तेल के ऊंचे दाम भारी मात्रा में तेल की खपत करने वाले देशों के लिए ज्यादा हानिकारक हो सकते हैं और विश्व प्रतिस्पर्धा में हमारी विजय का कारण बन सकते हैं। तेल के ऊंचे दाम का दौर 1971 में चालू हुआ था। उस समय अरब देशों ने तेल के मूल्य को रातों-रात एक डालर प्रति बैरल से बढ़ाकर 11 डालर कर दिया था। इसके बाद 1981 में पुनः तेल के मूल्य बढ़ाकर 21 डालर प्रति बैरल कर दिए गए थे। देखना यह है कि इस मूल्य वृद्धि का अमीर एवं गरीब देशों पर भिन्न-भिन्न प्रभाव क्या पड़ा है। अमरीका एवं भारत की तुलना करें, तो विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार साठ के दशक में भारत की अर्थिक विकास दर 3.4 फीसदी प्रति वर्ष थी, जबकि अमरीका की 4.3 फीसदी। सत्तर एवं अस्सी के दशक में तेल के मूल्यों में वृद्धि के बावजूद भारत की विकास दर में वृद्धि होती गई और नब्बे के दशक में 6.1 फीसदी पर पहुंच गई। इसके विपरीत अमरीका की विकास दर में गिरावट आई और सत्तर के बाद वह लगभग 3.0 फीसदी पर अटकी हुई है। इससे संकेत मिलते हैं कि तेल के मूल्यों में वृद्धि का भारत पर सकारात्मक एवं अमरीका पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। वास्तव में तेल के मूल्यों में वृद्धि से विश्व अर्थव्यवस्था पर कुल प्रभाव शून्य होता है। एक देश का नुकसान दूसरे देश का लाभ होता है, जैसे-एक भाई द्वारा दूसरे भाई को एक लाख रुपए देने से परिवार की आय में परिवर्तन नहीं होता है।

इसी प्रकार तेल के ऊंचे मूल्यों का निर्यातक देशों पर सकारात्मक एवं आयातक देशों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। भारतीय अर्थव्यवस्था तेल के उपयोग में कुशल है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की मानव विकास रपट के अनुसार एक किलो तेल से अमरीका 4.0 डालर की आय अर्जित कर रहा था, चीन 4.2 डालर एवं भारत 4.4 डालर। यानी भारत की आय में तेल पर निर्भरता कम है। यदि तेल महंगा हो जाता है, तो भारत पर दुष्प्रभाव कम पड़ेगा। प्रति व्यक्ति तेल की खपत में अंतर अधिक है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के अनुसार प्रत्येक भारतीय वर्ष में 561 यूनिट बिजली की खपत करता है, चीनी 1139 यूनिट तथा अमरीकी 13,241 यूनिट। यदि उर्जा के मूल्य में एक रुपया प्रति यूनिट की वृद्धि होती है, तो अमरीकी नागरिक को नुकसान अधिक और भारतीय नागरिक को कम होगा। यह थी नुकसान की बात। तेल के ऊंचे मूल्यों से हमें लाभ भी मिलता है। रिजर्व बैंक की रपट के अनुसार अप्रवासी भारतीयों ने कई अरब डालर की रकम अपने परिजनों को भेजी थी। इसे रेमिटेंस कहा जाता है। इस रेमिटेंस का बड़ा हिस्सा अरब देशों में कार्य कर रहे अप्रवासी भारतीयों से मिल रहा है। रेमिटेंस का यह सिलसिला सत्तर के दशक में तेल की मूल्य वृद्धि के बाद शुरू हुआ था। अरब देशों को भारी आय हुई और उन्होंने शापिंग माल, हवाई अड्डे, हाई-वे आदि बड़े पैमाने पर बनाने चालू किए, जिसके लिए भारी संख्या में श्रमिकों की जरूरत पड़ी थी। तब इराक, कुवैत, इरान तथा साउदी अरब को भारी संख्या में भारतीयों का पलायन हुआ था। ये भारतीय ही रेमिटेंस भेज रहे हैं।

अंतिम फार्मूला इस प्रकार है-तेल की मूल्य वृद्धि से तेल उत्पादक देशों को आय होती है। वे निर्माण करते हैं, उन्हें श्रमिकों की आवश्यकता होती है, भारत इन श्रमिकों की सप्लाई करता है, ये श्रमिक रेमिटेंस भेजते हैं। इस प्रकार तेल की मूल्य वृद्धि से हमारी आय बढ़ती है। दूसरा लाभ यह है कि हमारे शेयर बाजार में विदेशी निवेश बड़ी मात्रा में आता है। सत्तर एवं अस्सी के दशक में अरब देशों ने तेल के निर्यात से मिली आय के बड़े हिस्से का अमरीका में निवेश किया था। उस समय डालर का सूरज चढ़ रहा था। अरब शेखों ने न्यूयार्क में प्रापर्टी तथा अमरीकी कंपनियों के शेयर खरीदे थे। वर्तमान में विश्व के निवेशकों को दूसरी मुद्रा की तलाश है जिसमें वे निवेश कर सकें। भारतीय रुपया इस निवेश को प्राप्त करने का प्रबल उम्मीदवार है। विश्व में इस समय दो मुद्राएं चमक रहीं हैं-चीन का युआन और भारत का रुपया। परंतु युआन का मूल्य चीन की सरकार तय करती है, जो कि निवेशकों को पसंद नहीं है। रुपए का मूल्य बाजार तय करता है। अतः संभावना है कि विश्व पूंजी का बहाव बाजार की तरफ मुड़े। यह विदेशी निवेश हमारी कंपनियों को सुदृढ़ करता है। अरब निवेशक जब टाटा मोटर्स के शेयर खरीदता है, तो वह भारतीय कंपनी की विदेशियों से प्रतिस्पर्धा करने की ताकत बढ़ाता है।

अंतिम फार्मूला इस प्रकार है-तेल के ऊंचे मूल्य से अरब देशों द्वारा विदेशी निवेश अधिक होता है। यह पूंजी भारतीय शेयर बाजार में प्रवेश करके हमारी कंपनियों को सुदृढ़ करती है। तेल की मूल्य वृद्धि से हमें तीन लाभ होते हैं। अमरीका तथा भारत के बीच टक्कर में तेल के ऊंचे मूल्य अमरीका के लिए ज्यादा हानिकारक हैं और हमारे लिए कम। इसलिए ऊंचे मूल्य से अमरीका से सामना करने की हमारी ताकत बढ़ती है। दूसरा अप्रवासियों द्वारा रेमिटेंस अधिक भेजी जाएगी। तीसरा हमारी कंपनियों को विदेशी निवेश मिलेगा। इन लाभ के सामने हमें नुकसान भी है। हमें तेल के ऊंचे मूल्य अदा करने होंगे। अंतिम आकलन इस बात पर निर्भर करता है कि उपरोक्त तीन लाभ के सामने ऊंचे मूल्य से सीधी हानि कितनी है। मेरा व्यक्तिगत मानना है कि लाभ अधिक और हानि कम है। प्रमाण यह है कि सत्तर एवं अस्सी के दशक में तेल की मूल्य वृद्धि के बाद हमारी विकास दर में वृद्धि हुई है। अमीर देशों द्वारा तेल के ऊंचे मूल्यों की भर्त्सना करना उचित है चूंकि इससे उन्हें केवल नुकसान है। दुर्भाग्य है कि हमारे वित्त मंत्री उन्हीं का राग अलापते हैं और तेल की मूल्य वृद्धि से हमें होने वाले लाभ को अनदेखा कर रहे हैं।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com

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