आत्म पुराण

By: Jul 14th, 2018 12:05 am

इस बात को समझकर मैं ब्रह्मचर्य आश्रम में ही सब प्रकार की आसक्तियों को त्याग चुका था, उस समय स्वर्ग की अप्सराओं के अपूर्व सौंदर्य और काम कला के समस्त उपायों से भी विचलित नहीं हुआ था। पर तत्पश्चात सूर्य भगवान के आदेश से मुझे गृहस्थ का बंधन स्वीकार करना पड़ा। पर उनके आदेशानुसार संतान उत्पन्न करके और देवऋण, पितृ ऋण आदि से उऋण हो जाने पर भी उसी बंधन में पड़ा हूं और आनंद स्वरूप आत्मा को जानता हुआ भी स्त्री, पुत्र, धन आदि पदार्थों में आसक्त होकर बहिर्मुख हो रहा हूं, इससे मैं अत्यंत पामर और निकृष्ट हूं, इसलिए अब मुझे इस प्रकार से निकृष्ट मोह का त्याग करके संन्यास आश्रम अवश्य ग्रहण करना चाहिए। पर संन्यास से पूर्व मुझे अपनी दोनों स्त्रियों-कात्यायिनी और मत्रैयी की संतोषजनक व्यवस्था कर देना उचित है।

इनमें से कात्यायिनी तो केवल गृह कार्यों में ही दत्तचित है, वह बंधन और मोक्ष की बात कुछ नहीं जानती। सलिए उसे ब्रह्मा विद्या का अधिकार नहीं है। पर मैत्रेयी संसार के कष्टों को देखकर सदा शोकातुर रहती है और सर्वदा मोक्ष प्राप्ति की इच्छा करती है। इस कारण मैं उसे ब्रह्म विद्या का उपदेश देकर संन्यास ग्रहण करूंगा।

यह विचार कर उसने कहा-हे मैत्रेयी! मैं अब गृहस्थ आश्रम को त्यागकर चतुर्थ आश्रम को ग्रहण करना चाहता हूं, इसलिए घर में जितना सुवर्ण, गौ तथा अन्य संपत्ति है, उसके दो भाग करके कात्यायिनी तथा तुमको दे देना चाहता हूं, जिससे तुम सुखपूर्वक रह सके । याज्ञवल्क्य का कथन सुनकर मैत्रेयी ने कहा-‘हे भगवत् मैं ऐसे धन की इच्छा करती हूं, जिससे मैं अमर बन सकूं। जिस धन को पाकर मैं मृत्यु से न बच सकूं, उसको पाने से क्या लाभ? हे भगवन! सुवर्ण आदि संपत्ति से परिपूर्ण यह संपूर्ण पृथ्वी मैत्रेयी को दे दो, तो भी वह उससे अमृत भाव को प्राप्त कर सकेगी या नहीं, इसी दृष्टि से निश्चय करके आप हमको आदेश दीजिए।’

 मैत्रेयी का कथन सुनकर याज्ञवल्क्य कुछ विचार कर कहने लगा-हे मैत्रेयी! इस सुवर्ण आदि नाशवान धन के द्वारा कोई भी देहधारी मोक्ष रूप अमृतभाव को प्राप्त नहीं कर सकता। वरन् इससे तो वह मरण को ही विशेष रूप से प्राप्त हो सकेगा।

इस संसार में जितने धनवान पुरुष हैं, उन्हीं को राजा, शासक और चोर-डाकू आदि का विशेष भय रहता है। इस जगत में ऐसा कोई धनवान पुरुष ढूंढने से भी नहीं मिलेगा, जो चिंता रहित जीवन व्यतीत करता हो। हे मैत्रेयी! दुनिया में जो धन रहित पुरुष हैं, वे तरह-तरह के रोग और बीमारियों से भी बचे रहते हैं, उनकी जठराग्नि प्रदीप्त होती है, जिससे साधारण भोजन भी पचकर शक्ति प्रदान करता है।

इसके विपरीत धनवानों की जठराग्नि प्रायः मंद ही होती है, जिससे भोजन का उत्तम रस और रक्त नहीं बनता तथा वे सदा कमजोर निस्तेज ही बने रहते हैं। इससे उनकी आयु भी प्रायः अल्प ही होता है। उन धनी मनुष्यों का अपने संबंधियों के साथ जो प्रायः वैमनस्य रहता है और उनके घरों में क्लेश और कलह की आशंका ही बनी रहती है।

हे मैत्रेयी! धनवान पुरुषों को अमृत-भावन की प्राप्ति नहीं होती है, क्योंकि जब तन देहादिक का अहं-मम नहीं मिटता, तब तक अमृत भावन दूर ही बना रहता है, पर धनवान आदमी अपनी संपत्ति का अहं-मम भावन कभी नहीं छोड़ सकते, इसलिए वे सदा पुण्य-पाप और आवागमन के चक्र में पड़े रहते हैं और अमृत-भावन के प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं।


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