जनभावना, जनहित और सिस्टम

By: Jul 5th, 2018 12:10 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

हमारी सरकारें अकुशलता की प्रतिमूर्तियां हैं। असंवेदनशील नौकरशाही और जनता से कटे नेतागणों की सरकार किसी समस्या का समाधान नहीं, बल्कि खुद एक समस्या है। प्रशासन और सरकारें तभी प्रभावी हो सकती हैं, यदि वे स्थानीय स्तर पर जनता से जुड़ सकें और जनता की समस्याओं के समाधान तथा सरकार के रोजमर्रा के कामकाज की मजबूत प्रक्रिया बनाई जाए। सिस्टम का अभाव ही अकुशलता और भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण बनते हैं…

जनभावना और जनहित में स्पष्ट अंतर है। भीड़ को खुश करने के लिए किए गए काम, भीड़ से नारे लगवाने के लिए किए गए काम एक बात हैं और जनता की भलाई के लिए किए गए काम बिलकुल अलग श्रेणी में आते हैं। किसी अस्पताल की दीवारों को भगवा रंग से रंग देना, उसकी चादरें बदलकर भगवा रंग की चादरें बिछा देना जनभावना का उदाहरण है, जहां समाज के एक वर्ग के लोग खुश होंगे। यह जनभावना को मद्देनजर रखकर किया गया काम है। यह एक नया काम होता है, पर इससे किसी को लाभ नहीं होता है, लेकिन किसी अस्पताल में आवश्यक कोई नया संयंत्र लगवा देना, कोई नई तकनीक उपलब्ध करवा देना, कुछ नए विभाग जोड़ देना, आवश्यक कर्मचारियों की भर्ती करवा देना, भवन में नए हिस्से जोड़ देना आदि जनहित के काम हैं, जिससे जनता को सचमुच लाभ होता है।

अकसर सरकारें ऐसे बहुत से काम करती हैं, जिसमें जनता खुश तो होती है, लेकिन आवश्यक नहीं है कि उससे जनता का सचमुच कोई भला भी होता हो। एक ही उदाहरण उसके लिए काफी है। अकसर कुछ राज्य सरकारें ‘जनता दरबार’ का आयोजन करती हैं। जनता दरबार का लाभ यह है कि इससे बिचौलियों की आवश्यकता समाप्त हो जाती है, जनता सीधे अपने नेता से बात कर सकती है और नेता को भी रियाया से मिलने का मौका मिलता है। राज्य भर से लोग अपनी-अपनी फरियाद लेकर शामिल होते हैं, ताकि उनकी समस्याओं का समाधान हो जाए। उम्मीद से भरे इन फरियादियों में हर आय वर्ग और तबके के लोग होते हैं, और कई लोग तो लंबी यात्रा की परेशानियों और भूख-प्यास की परवाह किए बिना बहुत दूर से आए होते हैं। यह जनता दरबार का एक पहलू है, लेकिन अगर जनता दरबार के दूसरे पहलू पर नजर डालें, तो स्पष्ट हो जाएगा कि उसका पूरा नियंत्रण सरकार के हाथ में होता है। जनता दरबार का समय, स्थान और कार्यक्रम जनता की सुविधा के अनुसार नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री की सुविधा के अनुसार तय किया जाता है। दरबार में मुख्यमंत्री कार्यालय का कोई अधिकारी सारी अर्जियां लेता चलता है और उन पर बाद में कार्रवाई का आश्वासन दे दिया जाता है, लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं होती कि उस अर्जी पर सचमुच कोई कार्रवाई होगी या नहीं होगी।

जनता दरबार जैसे आयोजनों की एक बड़ी कमी यह है कि इसमेें शामिल लोग कई बार अनियंत्रित भीड़ में बदल जाते हैं, क्योंकि उसके लिए किए गए इंतजाम नाकाफी सिद्ध होते हैं। सब लोग एक साथ मुख्यमंत्री के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो जाते हैं और अफरा-तफरी का माहौल हो जाता है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इस अफरा-तफरी का शिकार हो चुके हैं और अब हाल ही में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत द्वारा आयोजित जनता दरबार में मुख्यमंत्री द्वारा एक महिला शिक्षिका से अशोभनीय व्यवहार की घटना हुई, जिसने जनता दरबार के तौर-तरीकों पर सवालिया निशान लगाए हैं। महिला शिक्षिका की शिकायत तो क्या दूर होती, उन्हें सेवा से सस्पेंड भी कर दिया गया है। जनता दरबार में आने की तकलीफों और समय की बर्बादी की बात छोड़ दें, तो भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जनता दरबार लगाए जाने की आवश्यकता ही इसलिए पड़ती है, क्योंकि सरकार के रूटीन कामकाज के सिस्टम में शिकायतों का समाधान नहीं हो पाया। इलाज तो यह होना चाहिए कि नागरिकों को अपनी फरियाद लेकर किसी दूर-दराज के शहर में या राज्य की राजधानी में आना ही न पड़े, उनकी शिकायतों का निपटारा स्थानीय स्तर पर ही हो जाए, लेकिन ऐसा कोई सिस्टम बनाने के बजाय सरकारें आसान दिखने वाले जुगाड़ को अपना लेती हैं, जिससे वाहवाही तो मिलती है, पर जिसके वांछित परिणाम नहीं मिल पाते हैं।

एक बार शहर के प्रसिद्ध आंखों के अस्पताल में था और मैं वहां टायलेट में गया, तो मैंने एक चेकलिस्ट टंगी देखी जिस पर टायलेट की दुरुस्ती से संबंधित प्वायंट्स लिखे हुए थे और उन्हें टिक किया गया था। ये प्वायंट थे-फ्लश ठीक चल रही है, पेपर रोल लगा है, पेपर नेपकिन है, सीट को कीटाणुरहित किया गया है, इत्यादि-इत्यादि। उल्लेखनीय है कि भारतीय मूल के अमरीकी सर्जन डा. अतुल गवांडे ने बाकायदा ‘दि चेकलिस्ट मेनिफेस्टो’ के नाम से एक पुस्तक लिखी है, जिसमें चेकलिस्ट की महत्ता को विस्तार से रेखांकित किया गया है। किसी भी काम में गलतियों से बचने के लिए चेकलिस्ट एक बहुत साधारण दिखने वाला असाधारण कदम है। वस्तुतः यह इतना साधारण नजर आता है कि हम अकसर इसकी महत्ता की उपेक्षा कर देते हैं। समस्या यह है कि हमारी सरकारें ऐसे कदम नहीं उठाती हैं, जिससे उनके आयोजनों की कमियां दूर हो सकें, आयोजकों अथवा जनता को परेशानियां न हों और संबंधित प्रक्रियाओं को संस्थागत रूप मिल जाए, ताकि संबंधित विभाग के सभी कर्मचारी अपनी-अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन कुशलतापूर्वक कर सकें। चेकलिस्ट बनाकर काम करने से किसी भी काम में गलतियों की रोकथाम और काम में पूर्ण सफलता के अवसर बढ़ जाते हैं।

इसके विपरीत यदि गलतियों की रोकथाम न की जाए, तो समय बीतने के साथ-साथ हम जीवन में गलतियों और भूलों को जीवन का हिस्सा मानकर स्वीकार करना आरंभ कर देते हैं। हमारे देश में संभावित गलतियों से बचने का कोई नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम नहीं है। ऐसे किसी प्रशिक्षण के अभाव में जानलेवा गलतियां भी सामान्य जीवन का हिस्सा बन जाती हैं। मुंबई में हर साल आने वाली बाढ़ और उससे होने वाले नुकसान तथा परेशानी इसी कमी के द्योतक हैं। हर साल बाढ़ आती है, सूखा पड़ता है, जन-धन की हानि होती है, लेकिन इनकी रोकथाम का कोई स्थायी समाधान नहीं हो पाता। हमारी सरकारें अकुशलता की प्रतिमूर्तियां हैं। असंवेदनशील नौकरशाही और जनता से कटे नेतागणों की सरकार किसी समस्या का समाधान नहीं, बल्कि खुद एक समस्या है। प्रशासन और सरकारें तभी प्रभावी हो सकती हैं, यदि वे स्थानीय स्तर पर जनता से जुड़ सकें और जनता की समस्याओं के समाधान तथा सरकार के रोजमर्रा के कामकाज की मजबूत प्रक्रिया बनाई जाए। एक मजबूत सिस्टम जहां सरकार की कुशलता का पैमाना है, वहीं सिस्टम का अभाव अकुशलता और भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण बनते हैं। सिस्टम के अभाव में प्रशासन निरकुंश हो जाता है और जनसामान्य उनके भ्रष्ट आचरण का शिकार होकर खुद भी भ्रष्ट हो जाता है। भारतवर्ष में यही हुआ है। हमारे चारों तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जनता को किसी से उम्मीद नहीं है। सरकारें बदल जाती हैं, नेता बदल जाते हैं, लेकिन सरकार के तौर-तरीके नहीं बदलते। आज आवश्यकता इस बात की है कि जनहित को प्रमुखता दी जाए और उसके लिए मजबूत सिस्टम बनाया जाए।

ईमेलः indiatotal.features@gmail.com


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